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रविवार, 27 जून 2021

गीता अध्याय ८ - ९

ॐ गीता अध्याय ८
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अर्जुन कहे ब्रह्म-आत्मा क्या, कहें कर्म क्या पुरुषोत्तम?
भौतिक जग किसको कहते हैं?, क्या कहलाता देव कहें?१।
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अधियज्ञ किस तरह कौन यहाँ, इस तन में मधुसूदन है?
अंत समय में कहें किस तरह, आत्म संयमी जान सके?२।
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श्री हरि: 'अक्षर ब्रह्म दिव्य है, स्वभाव आत्मा है उसका।
जीव सृष्टि उत्पन्न करे जी, कर्म वही कहलाता है।३।
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है अधिभूत भाव क्षर बदले, परमपुरुष अधिदैव यहाँ।
हूँ अधियज्ञ मात्र मैं जानो, देहधारियों में हे श्रेष्ठ!४।
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अंत काल में मुझे याद कर, तजता है जो तन अपना।
वह मेरे स्वभाव को पाता, नहीं तनिक संदेह यहाँ।५।
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जिसको भी कर याद भाव में, तजे अंत में तन को जो।
उसको ही पता कुन्तीसुत!, सदा भाव को याद करे।६।
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इसीलिए सब कालों में कर, मुझको याद समररत हो।
मुझमें शरणागत हो मन-मति, मुझे मिले संदेह नहीं।७।
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कर अभ्यास ध्यान-मन-मति से, किंचित विचलित हुए बिना।
जो वह पाता परम पुरुष को, पार्थ सतत चिंतन करता।८।
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कवि प्राचीन नियंता अणुतर, लघुतर सदा सोचता जो।
सबका पालक अचिन्त्य रूपी, रवि सम तम से परे रहे।९।
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मृत्यु समय मन अचल भक्तिमय, योगशक्ति से निश्चय ही।
भृकुटि-मध्य प्राणों को स्थिरकर, परम पुरुष दिव्य पाए।१०।
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जो अक्षर वेदज्ञ कह करें, प्रवेश जिसमें यति सन्यासी।
इच्छुक ब्रह्मचर्य अभ्यासें, वह तुमसे पद सार कहूँ।११।
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सब द्वारों को वश में करके, मन को हृद में रुद्ध करे।
सिर में स्थिर कर आत्म-प्राण को, करे योग में स्थित खुदको।१२।
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ॐ एकाक्षर ब्रह्म बोलकर, मुझे सतत जो याद करे।
तजते हुए देह जो पाता, परम सद्गति निश्चय ही।१३।
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अनन्यचेता सदैव जो भी, मुझे सुमिरता है नियमित।
उसे मैं सुलभ सदा पार्थ! हूँ, नियमित युक्त भक्त को भी।१४।
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मुझको पा फिर जन्म दुखों के, आलय भंगुर में नहिं हो।
कभी न पाते महान आत्मन, सिद्धि-परमगति पाए हुए।१५।
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ब्रह्मलोक तक सब लोकों से, फिर वापिस आते अर्जुन!
मुझको पाकर किंतु कुंतिसुत!, जन्म न फिर से होता है।१६।
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एक हजार युगों तक दिन जो, ब्रह्मा का वे जान रहे।
रात युग सहस बाद खत्म हो, वे दिन-रात जानते हैं।१७।
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हो अव्यक्त से व्यक्त जीव सब, प्रगटें दिन के होने पर।
रात्रि नष्ट हों उनमें से जो, हैं अव्यक्त कहा जाता।१८।
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जीव समूह वही फिर फिर लें जन्म, नष्ट भी हो जाते।
रात्रि आगमन पर हो बेबस, पार्थ! प्रकट हों जब दिन हो।१९।
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परम भाव अव्यक्त से अलग, है अव्यक्त सनातन जो।
वह जो जीव नष्ट हों तो भी, नष्ट नहीं होती।२०।
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कहें अव्यक्त और अविनाशी, जिसको वह गंतव्य परम।
जिसको पाकर कभी न लौटें, वह है धाम परम मेरा।२१।
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परम पुरुष से बड़ा न कोई, मिले भक्ति से जो अविचल।
जिसके अंदर सकल जगत यह, दिखता जो भी व्याप्त रहे।२२।
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काल न जिसमें वापिस लौटे, जिसमें वापिस हो योगी।
कर प्रयाण पाते हैं जिसको, वही काल कहता भारत!२३।
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अग्नि ज्योति दिन शुक्ल पक्ष छः, रवि जब उत्तर दिशा रहे।
वहाँ प्राण तज ब्रह्म लोक को, जाते लोग ब्रह्मज्ञानी।२४।
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धूम्र रात्रि या कृष्ण पक्ष जब, छः महीने रवि दक्षिण हो।
चंद्र लोक जा प्रकाश; योगी पाता फिर वह वापिस हो।२५।
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हैं प्रकाश तम मार्ग गमन के, जग से वेदों के मत में।
गया एक से नहीं लौटता, अन्य गया फिर लौटे फिर से।२६।
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कभी न दोनों मार्ग जानकर, योगी मोहग्रस्त होता।
इसीलिए हर समय योग में, योग युक्त हो हे अर्जुन!।२७।
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वेद पढ़े कर यज्ञ तपस्या, दान पुण्य फल पाकर जो।
लाँघे वे सब; जाने योगी, परम धाम को पाए वो।२८।
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ॐ गीता अध्याय ९
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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हरि बोले 'अति गुप्त कह रहा, तुम्हें न जो ईर्ष्यालु है।
सभी ज्ञान-विज्ञान जानकर, जिसे मुक्त होगे भव से।१।
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है अतिगुप्त राजविद्या यह, यही शुद्धतम उत्तम है।
समझा गया आत्म अनुभव से, धर्म सुखद अविनाशी है।२।
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श्रद्धाहीन धर्म के प्रति, नर हे अरिहंता! सच जानो।
बिन पाए मुझको वापिस हों, मर्त्य जगत में पथ से ही।३।
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मुझसे व्याप्त जगत यह सारा, दृश्य-अदृश्य रूप द्वारा।
मुझमें सभी जीव हैं लेकिन, मैं उनमें हूँ स्थित न कहीं।४।
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कभी न मुझमें स्थित है सब जग, देखो मेरा योगैश्वर्य।
जीवों का पालक न भूत में, स्वात्मा भूत स्रोत हूँ मैं।५।
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जैसे नभ में वायु सदा ही, प्रवहित है सर्वत्र महान।
वैसे ही सब प्राणी मुझमें, रहते समझो इसी प्रकार।६।
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सब प्राणी कौन्तेय प्रकृति में, करते हैं प्रवेश मेरी।
कल्प अंत में, फिर उन सबको कल्प आदि में रचता मैं।७।
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प्रकृति में अपनी प्रवेश कर, बार बार पैदा करता।
सकल विराट जगत पूरा है, अवश प्रकृति के ही वश में।८।
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नहीं कभी भी मुझे कर्म वे, सकते बाँध धनंजय हे!
उदासीन आसक्ति रहित मैं, रहता हूँ उन कर्मों में।९।
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मेरे ही कारण प्रकृति यह, प्रगटे जड़-जंगम के सँग।
इस कारण से हे कुन्तीसुत!, जग परिवर्तित होता है।१०।
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करते हैं उपहास मूढ़जन, नर तन आश्रित कह मुझको।
दिव्य भाव बिन जाने मेरा, है कण-कण का स्वामी जो।११।
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निष्फल आशा-कारण-ज्ञान भी, उनका मोहग्रसित हैं जो।
त्याज्य राक्षसी-आसुरी प्रकृति मोहक, शरण गहे हैं वे।१२।
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महापुरुष लेकिन कुंतीसुत!, दैवी प्रकृति शरण रहते।
भजते अविचल मन से, जानें सृष्टि मूल अविनाशी मैं।१३।
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सतत कीर्तन करते मेरा, आखिर में संकल्प सहित।
करते नमन मुझे सभक्ति वे, नित जुड़कर पूजा करते।१४।
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ज्ञान यज्ञ द्वारा भी निश्चय, अन्य यज्ञ कर पूज रहे।
मुझे द्वैत-एकांत भाव से, बहु प्रकार से जग-मुख कह।१५।
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मैं कर्मकांड; मैं यज्ञ, स्वधा मैं, मैं ही तो औषधि भी हूँ।
मंत्र हूँ मैं निश्चय ही घृत मैं, पावक आहुति भी हूँ मैं।१६।
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पिता मैं इस जगत का हूँ, माता-धाता तथा पितामह।
हूँ वेद पावन ॐ ऋक् मैं, साम यजु भी सुनिश्चित हूँ।१७।
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हूँ लक्ष्य भर्ता ईश साक्षी, मैं आवास शरण भी हूँ।
हूँ सृष्टि मैं; मैं ही प्रलय, भूमि आश्रय बीज अव्यय हूँ ।१८।
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मैं देता हूँ ताप; बरसता, रोक-भेजता भी हूँ मैं।
अमृतत्व या मृत्यु; मुझ ही में सत अरु असत बसे अर्जुन!१९।
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वेदज्ञ-सोमपानी यज्ञी, पूत-पाप पूज सुरलोक।
हेतु प्रार्थना कर पाते हैं, भोग-आनंद देवता सम।२०।
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भोग स्वर्ग को पुण्य क्षीण हों, मृत्यु लोक में फिर आते।
वेदत्रयी-धर्म पालक जन, जा-आ इन्द्रिय सुख पाते।२१।
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हो अनन्य चिंतन कर मुझको, जो जन पूजा करते हैं।
उन भक्तिलीन लोगों का मैं, योग-क्षेम खुद करता हूँ।२२।
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जो भी अन्य सुरों की करते, पूजा श्रद्धा-भक्ति सहित।
वे भी पूज रहे मुझको ही, कुंतीसुत! विधि गलत भले।२३।
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मैं ही सकल यज्ञ कर्मों का, भोक्ता अरु स्वामी भी हूँ।
नहीं जानते मुझको सचमुच, जो नीचे गिरते हैं वे।२४।
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जाते सुर समीप सुरपूजक, पितृ समीप पितृपूजक।
मिलें भूत से भूत-भक्त जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२५।
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पत्र पुष्प फल जल जो कोई, मुझे भक्ति से देता है।
वह मैं भक्ति-भाव से अर्पित, लेता शुद्ध-आत्मी से।२६।
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जो करते हो या खाते हो, जो देते हो दान कहीं।
जो तप करते कुन्तीपुत्र वह, सब मुझको ही अर्पणकर।२७।
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शुभ अरु अशुभ फलों के द्वारा, मुक्त कर्म बंधन से हो।
सन्यास योग युक्तात्मा हो, हो मुक्त मुझे पाओगे।२८।
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सम भावी मैं सब जीवों प्रति, कोई नहीं द्वेष्य या प्रिय।
जो भजते हैं मुझे भक्ति से, मुझमें वे हैं; उनमें मैं।२९।
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दुर आचारी भी यदि भजता, मुझे अनन्य भाव से तो।
साधु मानने योग्य मनुज वह, सम्यक संकल्पी है वो।३०।
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शीघ्र बने वह धर्म परायण, शाश्वत शांति प्राप्त करता।
हे कुन्तीसुत! करो घोषणा, भक्त न कभी नष्ट होता।३१।
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मेरी पार्थ शरण गहते जो, चाहे पापयोनि से हों।
वनिता वैश्य शूद्र व्यक्ति भी, जाते परम लोक को हैं।३२।
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क्या फिर ब्राह्मण धर्मात्मा या, भक्त राज-ऋषि भी हो तो।
नाशवान दुखमय यह जग पा, प्रेम-भक्ति मेरी कर ले।३३।
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नित मेरा चिंतन कर होओ, भक्त-उपासक नमन करो।
मुझको निश्चय ही पाओगे, लीन आत्म मुझमें यदि हो।३४।
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