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मंगलवार, 22 जून 2021

शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक

चिंतन
शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक
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शासकीय विद्यालयों के परीक्षा परिणाम आने के साथ ही सर्वाधिक अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों को वाहवाही मिलने, पत्रकारों द्वारा खोजबीन, हेराफेरी और गत वर्षों के सफलता प्रतिशत की तुलना जैसी खबरों के बीच कुछ आत्महत्याओं के समाचार आने लगते हैं।
शिक्षा प्रणाली
सबसे पहली बात तो यह है कि देश में शिक्षा की एक ही प्रणाली होना चाहिए। भारत में शासकों और आम जनों के मध्य खाई को बनाए रखने ही नहीं उसे बढ़ाते जाने में भी नेता, अफसर और सेठों की रुची रही है. इस कारण मँहगे विद्यालय और सरकारी विद्यालय अस्तित्व में थे, हैं और रहेंगे।
मेरे पिताजी ने अधिकारी होने के बाद भी मुझे और मैंने अपने अभियंता और श्रीमती जी के कोलेज प्राध्यापक होने के बाद भी बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाया। हमें अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है किन्तु बच्चों को कभी-कभी शिकायत करते सुना है। अब अगली पीढ़ी को शायद ही सरकारी विद्यालय में पढ़ाया जाए। इसका कारण निजी विद्यालयों की श्रेष्ठता नहीं, सरकारी विद्यालयों में राजनीति, विद्यार्थियों का आरक्षण के आधार पर प्रवेश, शिक्षकों की अध्यापन में अरुचि, पुस्तकालयों का न होना तथा प्रयोगों हेतु उपकरणों का न होना है। दुःख यह है कि निजी विद्यालय भी श्रेष्ठ नहीं केवल कुछ बेहतर हैं। वस्तुत: भारत में शिक्षा को ही महत्व नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक: नौकर या गुरु?
शासकीय विद्यालयों के शिक्षकों को निजी विद्यालयों की तुलना में पर्याप्त अधिक वेतन मिलाता है, नौकरी स्थानान्तरणीय किन्तु सुरक्षित होती है जबकि निजी विद्यालयों में वेतन कम, आजीविका अनिश्चित किन्तु अस्थानान्तरणीय होती है। शिक्षक की आजीविका के साथ एक विशेष सामाजिक सम्मान जुड़ा होता है जो बड़े से बड़े नेता, अधिकारी या धनपति को नहीं मिलता। भारत में अधिकांश विद्यार्थी अपने शिक्षक के चरण स्पर्श करते हैं। शिक्षक को फटीचर टीचर नहीं गुरु माना जाता है। क्या शिक्षक स्वयं 'गुरुत्व' प्राप्त करने के प्रति सजग हैं?, अधिकांश नहीं। अधिकांश शिक्षक केवल फर्ज़ अदायगी और वेतन की चिंता करते हैं। यह स्थिति चिन्तनीय और शिक्षा के गिरते स्तर का कारण है। जिस व्यक्ति की शिक्षा कर्म में रुची न हो उसे शिक्षण नहीं होना चाहिए। शिक्षक स्वयं अस्थायी और शोषण का शिकार होगा तो अध्यापन कैसे कराएगा? योग्य शिक्षक को अपने विषय का ज्ञान, अध्यापन विधियों की जानकारी, बाल मनोविज्ञान की समझ तथा अपने कार्य में रुचि होना जरूरी है।
जानकारी, ज्ञान और दायित्व?
शिक्षा का लक्ष्य क्या है? पाठ्यक्रम की जानकारी या विषय का ज्ञान? हमारी शिक्षा प्रणाली विषय को समझने और उसमें कुछ नया सोचने-करने के प्रति उदासीन है। किताबी जानकारी को यादकर परीक्षा पुस्तिका में वामन कर देना ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, अभियंता और चिकित्सक भी किताबी हैं जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं के बराबर है। यह स्थिति बदली जाना बहुत जरूरी है। प्राथमिक शालेय शिक्षा से ही विद्यार्थी को व्यावहारिक शिक्षा, प्रकृति से जुड़ाव, देश और समाज के प्रति दायित्व आदि की बीज बो दिए जाने चाहिए। हमें बचपन में प्रभात फेरी, जुलूस, व्यायाम, बागवानी, कक्षा की सफाई आदि के काम कराकर अपने दायित्व का भान कराया गया किन्तु आजकल निजी विद्यालयों तो दूर शासकीय विद्यालयों में भी यह नहीं कराया जा रहा। विद्यालयों में राजनैतिक तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप न्यूनतम हो। सभी विद्यार्थियों को समान सुविधाएँ, व्यवहार व अवसर मिले तो भविष्य के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार होंगे जो स्वस्थ्य समाज का निर्माण करेंगे। अच्छे नागरिक और मनुष्य किसी कारखाने में किसी तकनीक से तैयार नहीं किये जा सकते केवल शिक्षक विद्यालयों में उन्हें विकसित कर सकता है। इसलिए शिक्षा और शिक्षक को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
व्यावहारिक पाठ्यक्रम व विषय चयन
हर कक्षा के लिए पाठ्यक्रम विद्यार्थी की औसत उम्र में हुए मानसिक विकास के आधार पर बनाया जाए। अनावश्यक विषय न पढ़ाए जाए तथा आवश्यक विषय छोड़े भी न जाएँ। साथ ही साथ मानवीय, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के विकास, शारीरिक मजबूती, चारित्रिक दृढ़ता के विकास संबंधी कार्यक्रम भी होना चाहिए। विद्यार्थियों का मनोवैज्ञानिक परिक्षण कर उनमें अंतर्निहित गुणों और प्रतिभा का आकलन कर तदनुसार विषय या शिल्प की शिक्षा दी जाना चाहिए ताकि उनका सर्वश्रेष्ठ विकास हो। अभिभावकों की इच्छा या समृद्धि को विषय चयन का आधार नहीं होना चाहिए।
एक ही शिक्षा प्रणाली
तत्काल संभव न हो तो भी क्रमश: पूरे देश में सभी व्द्यार्थियों को क्रमश: सामान्य पाठ्यक्रम तथा विद्यालय मिलना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधियों और जनसेवकों के लिए अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। शिक्षा का व्यवसायीकरण बंद करने के लिए निजी विद्यालयों को हतोत्साहित करना आवश्यक है। कमजोर समाज के मतों के लिए राजनीति कर रहे दलों को इस ओर प्रतिबद्ध होना चाहिए। सरकारी विद्यालयों को अधिकाधिक साधन संपन्न और विकसित बनाकर निजी विद्यालयों को हतोत्साहित किया जा सकता है।
शासकीय विद्यालय अभिशाप नहीं वरदान
प्राय: साधन संपन्न जन अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में नहीं भेजते। यह स्थिति बदली जानी चाहिए। शासकीय संस्थानों में सुयोग्य शिक्षक, समृद्ध पुस्तकालय, सुसज्ज प्रयोगशाला, खेल-कूद उपकरण, समयानुकूल पाठ्यक्रम तथा परिणामोन्मुखी वेतनमान हों तो विद्यार्थी उन्हें चुनने लगेंगे। शासकीय विद्यालयों के श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शासकीय सेवा में वरीयता दी जाने से भी स्थिति में सुधार होगा।
शासकीय शक्षकों को अपनी सोच बदलनी होगी। शासकीय विद्यालयों में निम्न अंक प्रतिशत के विद्यार्थी आने का लाभ कुशल शिक्षक ले सकता है। ४० % अंक ला रहे विद्यार्थी पर ध्यान देकर उसे ६०% के स्तर पर ले जाना आसान है किन्तु ९०% अंक ला रहे विद्यार्थी के स्तर को बढ़ाना या बनाये रखना अधि कठिन है। शासकीय विद्यालय के शिक्षक अपने हर विद्यार्थी को पूर्व परीक्षा से बेहतर अंक पाने योग्य बनाने का लक्ष्य रखें। जो शिक्षक यह लक्ष्य पा सकें उन्हें वार्षिक वेतन वृद्धि दी जाए, जो यह लक्ष्य न पा सकें उन्हें पूर्वत वेतन दिया जाए और जिनके विद्यार्थियों का परीक्षा परिणाम घटे उनके वेतन में एक वार्षिक वेतन वृद्धि की राशि काम कर दी जाए। ऐसी व्यवस्था होने पर शिक्षक पूरी क्षमता से अध्यापन कराएँगे।
परिणाम बेहतर आने औए उच्च कक्षा में प्रवेश में प्राथमिकता मिलने से विद्यार्थी भी मनोयोग से पढ़ने के लिए उत्साहित होंगे। निजी विद्यालयों में कमजोर विद्यार्थी जायेंगे तो उन्हें योग्य शिक्षक समुचित वेतनमान पट रखना होंगे। लाभांश कम होगा तो धंधेबाज शिक्षाजगत से बाहर होते जायेंगे और केवल समाज सेवा या देश सेवा को लक्ष्य बनाने वाले ही शिक्षा संस्थाएँ चलाएँगे।
शिक्षक असहाय नहीं
शिक्षा स्तर सुढारने की दिशा में हर शिक्षक अपने स्तर पर पहल कर सकता है। सत्र आरम्भ होने पर वह हर विद्यार्थी के प्राप्तांक की जानकारी ले ले तथा खुद अपने लिए लक्ष्य बनाए की हर विद्यार्थी के अंकों में कम से कम ५% अंक वृद्धि हो, इस तरह अध्यापन कराएगा। इससे और कुछ न हो उसे आत्म संतोष मिलेगा तथा विद्यार्थियों के समय परीक्षा परिणाम के समय यह घोषणा किये जाने पर विद्यार्थियों का सम्मान पायेगा। प्राचार्य ऐसे शिक्षकों के वार्षिक प्रतिवेदन में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए पुरस्कार हेतु अनुशंसा करें तथा जिला शिक्षाधिकारी पुरस्कृत करें। शासन उदासीन हो तो यह कार्य शिक्षक संघ भी कर सकते हैं या अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी। शिक्षक का सम्मान बढ़ेगा तो उसमें अध्यापन के प्रति रुचि भी बढ़ेगी।
धनहीन विद्यार्थियों के लिए गत वर्ष उत्तीर्ण हो चुके विद्यार्थियों की पुस्तकें उपलब्ध कराकर शिक्षक सहायता कर सकते हैं। इसी तरह निर्धन होशियार छात्रों से निचली कक्षा के कमजोर विद्यार्थी को ट्यूशन दिलाकर दोनों की मदद की जा सकती है। शिक्षकों को साधनहीनता, शासकीय उपेक्षा, काम वेतन आदि का रोना रोना बंद कर स्थिति को सुधारने के उपाय खोजना अपना कार्य मानना होगा तभी वे 'गुरु' हो सकेंगे।

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