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मंगलवार, 22 जून 2021

लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार संपादक मधुकर अष्ठाना

पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
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अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।

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