दो मुक्तक
अग्नि परीक्षा उसकी ही, लेता आया है महाकाल।
जिसका रणकौशल अद्भुत हो, जो समय-सामने हो मिसाल।
जो नेह नर्मदा बन प्रवहित वह पाषाणों पर पटके सिर-
युग-युग का कल्मष मिटा जले, वह कर निशांत बनकर मशाल।
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जाने कहाँ गया क्या-क्या पर रामसनेही अब भी है।
दूषित पछुवा-पवैया पर, गीत अदेही अब भी है।
पग-पग पर पगडंडी घायल, राजमार्ग पर क्रंदन है-
अधभूखे नयनों में सपने, लोक अगेही अब भी है।
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