श्रीकृष्णार्जुन संवाद
डॉ. नीलमणि दुबे, शहडोल
[प्रख्यात हिन्दीविद, मानस मर्मज्ञ डॉ. नीलमणि दुबे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। यह रचना उन्होंने १९७४ में जब वे ९ वीं कक्षा की विद्यार्थी थीं, तब लिखी थी। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उनके रूप में साकार है। ]
*
समर्पण-
नित होती जाए प्रीति नयी;
भगवान् आपके चरणों में,
सत्य शब्द संचारित हों;
प्रभु मेरे इक-इक वर्णों में!
सबके ही मन में सदा;
होते कुछ अरमान!
पूर्ण करें उस चाह को;
नीलमणी घनश्याम!!
पूर्वाभास-
कौरवों ने जब कर दिया;
हिस्सा देने से इंकार!
पांडु-तनय तब हो गए;
लड़ने को तैयार!!
भक्तिभाव के प्रेम से;
किया भक्त का काम!
अर्जुन के सारथि बने;
मुरली धर घनश्याम!!
(2)
अर्जुन-
हे हृषीकेश रथ को बढ़ाओ जरा;
देखूँ कितने रणस्थल में आकर खड़े!
किसकी कजा उसके सिर पर हुयी;
जो पाण्डु- पुत्र -सम्मुख आकर अड़े!!
मेरी भृकुटि के सामने ;
ठहरे न किसी का आज प्रताप!
मिला दूँ मैं सबको मिट्टी में;
संधानूँ जब अपना चाप!!
श्री कृष्ण-
मैं बढ़ाता हूँ पारथ रथ को;
तुम सावधान होकर रहना!
ले देख उन्हें पहले अर्जुन;
जिनसे है अब तुमको लड़ना!!
अर्जुन-
गोविंद यहाँ मैं देख रहा;
गुरुदेव -पितामह खड़े हुए!
मामा, काका, अश्वत्थामा;
द्रुपदादि वीर सब अड़े हुए!!
भगवान् आपके चरणों में;
यह श्रद्धा -पुष्प समर्पित है!
कलियाँ तो विकसित हुयीं नहीं;
पर मन में उत्साह तो है!!
सब अदेय तुमको भगवन्;
कुछ भाव समर्पित करती हूँ!
निज शीश झुकाकर चरणों में;
शब्दों को अर्पित करती हूँ!!)
अर्जुन-
आचार्य, मामा आदि को;
मारूँ न मैं निज वाण से!
हाथों में लूँ गाण्डीव न;
क्यों न निकलें प्राण ये!!
मारूँ कैसे गोपाल इन्हें;
ये तो सब मेरे अपने हैं!
इनके बिन हे गिरिधर-माधव;
सुख-राज्य जगत् में सपने हैं!!
फिर इन्हें मारकर हे माधव;
किस सुख का हम उपभोग करें?
पृथ्वी , धन,राजपाट , वैभव -
का; किस प्रकार उपयोग करें?
बिन मित्र-हितैषी के माधव;
सुख-राज्य वृथा ही होते हैं!
शुभकर्मी कैसे वे राजा हों;
जिनके सब पूर्वज रोते हैं!!
श्रीकृष्ण-
न कोई अपना है अर्जुन;
न कोई मित्र होता है!
साथी वही सच्चा ;
जो जग में बीज बोता है!!
मालिक तो इस संसार का;
भगवान् होता है!
सदा आत्मा अमर रहती;
हाँ चोला नष्ट होता है!!
अर्जुन तू मोह के कारण ही;
इनको निज स्वजन समझता है!
अपनत्वजाल के कारण ही;
तेरा मन निज में भ्रमता है!!
पर सोच-समझ कौंतेय जरा;
जब ये तेरे संबंधी हैं!
फिर क्यों तुमसे लड़ते ये;
क्या इनकी आँखें अंधी हैं?
अर्जुन-
रोमांच हो रहा है मुझको;
और ओंठ सूखता जाता है!
पृथ्वी पर पाँव नहीं पड़ते;
@ थर-थर यह तन कंपाता है!!
गांडीव हाथ से गिरता है;
सारा शरीर भी जलता है!
मेरा मन खुद में भ्रमता है;
कल्याण न आगे दिखता है!!
श्रीकृष्ण-
अर्जुन कायर क्यों बनता है;
आत्मीय देखकर डरता है!
हे पृथापुत्र युद्धस्थल में;
ऐसी बातें क्यों करता है?
अर्जुन-
हे कृष्ण इनको मारकर;
पृथ्वी में रह सकते नहीं!
हम भ्रातृ-पितृ-वियोग में;
दुनियाँ में जी सकते नहीं!!
घनश्याम हत आत्मीयजन; संसार-सुख होगा नहीं!
क्या जानकर कोई मनुज;
कीचड़ में गिरता है कहीं?
अच्युत् न सुख को चाहता हूँ;
धन का भी नहीं प्रयोजन है!
इन सबके बिन भगवन् सुनिए ;
मिट्टी-सम षटरस भोजन है!!
अर्जुन-
यद्यपि ये लोभी हैं कृतघ्न;
कृत कर्मों का संताप नहीं!
पर कुलक्षण में होना प्रवृत्त ;
हे माधव है क्या पाप नहीं ? ×××
कुल- परंपराएँ मिटतीं तो;
कुल-रीति-धर्म निश्चय विनष्ट!
नारी -जन पाप-प्रवृत्त अगर;
संतानें जारज और भ्रष्ट!! ×××
बिन पिंडोदक पूर्वज पाते;
रौ-रौ नरकों में घोर कष्ट!
इसलिए युद्ध है इष्ट नहींं ;
कर देती हिंसक वृत्ति नष्ट!! ×××
गुरुजन-वध, राज्य-भोग-सुख से;
श्रेयस्कर मुझको भिक्षाटन!
इन आतताइयों को मारूँ;
यह पापकर्म है मनमोहन!! ×××
श्रीकृष्ण-
अर्जुन मत बन तू नादान ,
यह दुश्शासन, मूर्त्त कुशासन,
ले तू इसकी जान!
कोई न प्यारा, नहीं सहारा,
इनको मारो, न इनसे हारो,
मत बतला तू ज्ञान!!
यह दुर्योधन महाँ पपिष्टी,
अत्याचारी, लोभी, कपटी,
मिटा तू इसकी शान!!!
अर्जुन-
ये लोग गर मारें मुझे;
प्रभु हो मेरा कल्याण ही!
शुभ गति अगर मिलती नहीं;
तो नर्क भी होगा नहीं!!
श्रीकृष्ण-
युद्ध छोड़ कर हे अर्जुन;
क्या कर्म दूसरा क्षत्रिय का?
गो-ब्राह्मण -नारी-निर्बल की-
रक्षा ही धर्म है क्षत्रिय का!
श्रीकृष्ण-
तमतोम फाड़ देता था जो;
क्या चिंतन का वह खंग नहीं?
क्षत-विक्षत अरिदल करता था;
धन्वी क्या आज अपंग नहीं? ××
यह तन असत्य है नाशवान;
देही अविनश्वर लेकिन सुन!
कौमार्य-युवा-वृद्धावस्था;
बस देशधर्म हैं हे अर्जुन! ! ××
कायर- अकीर्तिकर मार्ग छोड़;
तुम क्षत्रियत्व का करो वरण !
होगा निश्चय ही स्वर्ग प्राप्त;
वीरोचित रण में अगर मरण!! ××
माँ का लज्जित हो दूध नहीं;
आचरण न शास्त्र -विरुद्ध करो!
दुर्बलता छोड़ो, उठो पार्थ,
बैरी सम्मुख है, युद्ध करो!! ××
श्रीकृष्ण-
कर्णादिक वीरों के अर्जुन;
तुम शत्रु हमेशा कहलाए!
अपमान किया राजाओं का;
पांचाली जाकर वर लाए!!
अब युद्ध उन्हीं से करने को;
कुरुक्षेत्र रणस्थल में आए!
कुछ ऐसा कर तू हे अर्जुन;
तेरी अपकीर्ति न हो पाए!!
अर्जुन-
मैं शरण आपकी आया हूँ;
मधुसूदन ज्ञान बताओ तुम !
अज्ञानजाल को दूर हटा ;
उर में प्रकाश फैलाओ तुम!!
माधव, कर संशय -हरण मेरा;
दो ऐसा अनुपम ज्ञान मुझे!
तम-मोह दूर मेरा भी हो;
और दुनियाँ को भी मार्ग दिखे!!
श्रीकृष्ण-
तुमको निज सखा समझकर ही;
कौंतेय ज्ञान मैं कहता हूँ!
तू धीरज धर अपने मन में;
अज्ञान सदा मैं हरता हूँ!!
जब बुद्धि तुम्हारी कुरुनंदन;
इस मोह-दु:ख को पार करे!
सुख रूप ज्ञान को पाओ तुम;
आत्मा श्रुतियों में विहार करे!!
अर्जुन जो देह में देही है;
वह अमर सदा ही रहती है!
चाहे शरीर हो नष्ट-भ्रष्ट;
पर आत्मा कभी न मरती है!!
जो इसको नश्वर कहते हैं;
या इसको मरा मानते हैं!
पर आत्मा कभी नहीं मरती ;
यद्यपि वे नर न जानते हैं!!
श्री कृष्ण-
उत्पन्न अन्न से भूतप्राणि ;
वर्षा से अन्न-समुद्भव है!
वर्षा का कारण यज्ञ और;
यह यज्ञ कर्म से संभव है!! ××
तज फलासक्ति -मिथ्या संयम;
तू वर्णोचित कर्मों को कर!
कर्त्तापन-आशा-अहंकार;
मुझमें लय और समर्पित कर!!××
अति वेगवान है अश्व प्रबल;
मन- अनुशासन- वल्गा से कस!
यज्ञाग्नि रूप हो अनासक्त;
जीवन जगतीहित बने निकष!!××
इंद्रिय-मन-बुद्धि-आत्मा को;
जीतो अर्जुन बन आत्मजयी!
है कर्मयोग ही श्रेयस्कर;
यह सृष्टि समूची कर्ममयी!! ××
श्री कृष्ण-
तुममें भ्रमती बुद्धि तुम्हारी;
इसमें नहीं तुम्हारा दोष!
फिर भी आत्मा अमर हमेशा;
सोच इसे पाओ संतोष!!
जो जन्म लेता जगत में;
मरता वो निश्चय जान तू!
इसलिए हे पार्थ इसमें;
दु:ख न कुछ भी मान तू!
वस्त्र जीर्ण हो जाने से;
ज्यों नर उससे नाता तोड़े!
त्यों समय बीत जाने पर फिर;
आत्मा शरीर को भी छोड़े!!
शाश्वत पुराण यह कहते हैं;
यह अजर- अमर- अविनाशी है!
मर सकती है यह नहीं कभी;
यह आत्मा घट -घट वासी है!!
श्रीकृष्ण-
आत्मा न शस्त्र से कटती है;
और पानी भिंगा नहीं सकता!
पवन न इसे सुखा सकता-
और ताप न इसे जला सकता!!
यह सूक्ष्म बहुत है महाबाहु;
अप्रकट सदा यह रहती है!
ज्यों मनुष्य चोला बदले;
त्यों ही यह नित्य बदलती है!!
नाशवान् शरीर में;
प्रवेश करती है सदा!
पर जीर्ण होते छोड़ दे;
अवध्य है देही मुदा!!
होती है धर्म की हानि और;
सज्जन जब पीड़ित होते हैं!
बढ़ताअधर्म- अतिचार तथा;
सन्मार्ग प्रतिष्ठा खोते हैं!!
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