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शुक्रवार, 18 जून 2021

श्रीकृष्णार्जुन संवाद डॉ. नीलमणि दुबे


श्रीकृष्णार्जुन संवाद
डॉ. नीलमणि दुबे, शहडोल 
[प्रख्यात हिन्दीविद, मानस मर्मज्ञ डॉ. नीलमणि दुबे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। यह रचना उन्होंने १९७४ में जब वे ९ वीं कक्षा की विद्यार्थी थीं, तब लिखी थी। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उनके रूप में साकार है। ]
*
समर्पण-
नित होती जाए प्रीति नयी;
भगवान् आपके चरणों में, 
सत्य शब्द संचारित हों;
प्रभु मेरे इक-इक वर्णों में! 
सबके ही मन में सदा;
होते कुछ अरमान! 
पूर्ण करें उस चाह को;
नीलमणी घनश्याम!! 

पूर्वाभास-
कौरवों ने जब कर दिया;
हिस्सा देने से इंकार! 
पांडु-तनय तब हो गए;
लड़ने को तैयार!! 
भक्तिभाव के प्रेम से;
किया भक्त का काम! 
अर्जुन के सारथि बने;
मुरली धर घनश्याम!! 
(2) 
अर्जुन-
हे हृषीकेश रथ को बढ़ाओ जरा;
देखूँ कितने रणस्थल में आकर खड़े! 
किसकी कजा उसके सिर पर हुयी;
जो पाण्डु- पुत्र -सम्मुख आकर अड़े!! 

मेरी भृकुटि के सामने ;
ठहरे न किसी का आज प्रताप! 
मिला दूँ मैं सबको मिट्टी में;
संधानूँ जब अपना चाप!! 

श्री कृष्ण- 
मैं बढ़ाता हूँ पारथ रथ को;
तुम सावधान होकर रहना! 
ले देख उन्हें पहले अर्जुन;
जिनसे है अब तुमको लड़ना!! 
अर्जुन-
गोविंद यहाँ मैं देख रहा;
गुरुदेव -पितामह खड़े हुए! 
मामा, काका, अश्वत्थामा;
द्रुपदादि वीर सब अड़े हुए!! 

भगवान् आपके चरणों में;
यह श्रद्धा -पुष्प समर्पित है! 
कलियाँ तो विकसित हुयीं नहीं;
पर मन में उत्साह तो है!! 

सब अदेय तुमको भगवन्;
कुछ भाव समर्पित करती हूँ! 
निज शीश झुकाकर चरणों में;
शब्दों को अर्पित करती हूँ!!) 

अर्जुन-
आचार्य, मामा आदि को;
मारूँ न मैं निज वाण से! 
हाथों में लूँ गाण्डीव न;
क्यों न निकलें प्राण ये!! 

मारूँ कैसे गोपाल इन्हें;
ये तो सब मेरे अपने हैं! 
इनके बिन हे गिरिधर-माधव;
सुख-राज्य जगत् में सपने हैं!! 
फिर इन्हें मारकर हे माधव;
किस सुख का हम उपभोग करें? 
पृथ्वी , धन,राजपाट , वैभव -
का; किस प्रकार उपयोग करें? 

बिन मित्र-हितैषी के माधव;
सुख-राज्य वृथा ही होते हैं! 
शुभकर्मी कैसे वे राजा हों;
जिनके सब पूर्वज रोते हैं!! 

श्रीकृष्ण-
न कोई अपना है अर्जुन;
न कोई मित्र होता है! 
साथी वही सच्चा ;
जो जग में बीज बोता है!! 

मालिक तो इस संसार का;
भगवान्   होता   है! 
सदा आत्मा अमर रहती;
हाँ चोला नष्ट होता है!! 
अर्जुन तू मोह के कारण ही;
इनको निज स्वजन समझता है! 
अपनत्वजाल के कारण ही;
तेरा मन निज में भ्रमता है!! 

पर सोच-समझ कौंतेय जरा;
जब ये तेरे संबंधी हैं! 
 फिर क्यों तुमसे लड़ते   ये;
क्या इनकी आँखें अंधी हैं? 
अर्जुन-
रोमांच हो रहा है मुझको;
और ओंठ सूखता जाता है! 
पृथ्वी पर पाँव नहीं पड़ते;
@ थर-थर यह तन कंपाता है!! 

गांडीव हाथ से गिरता है; 
सारा शरीर भी जलता है! 
मेरा मन खुद में भ्रमता है;
कल्याण न आगे दिखता है!! 
श्रीकृष्ण-
अर्जुन कायर क्यों बनता है;
आत्मीय देखकर डरता है! 
हे पृथापुत्र युद्धस्थल में;
ऐसी बातें क्यों करता है? 
अर्जुन-
हे कृष्ण इनको मारकर;
पृथ्वी में रह सकते नहीं! 
हम भ्रातृ-पितृ-वियोग में;
दुनियाँ में जी सकते नहीं!! 

घनश्याम  हत आत्मीयजन; संसार-सुख होगा नहीं! 
क्या जानकर कोई मनुज;
कीचड़ में गिरता है कहीं? 

अच्युत् न सुख को चाहता हूँ;
धन का भी नहीं प्रयोजन है! 
इन सबके बिन भगवन् सुनिए ;
मिट्टी-सम षटरस  भोजन है!! 
अर्जुन-

यद्यपि ये लोभी हैं कृतघ्न;
कृत कर्मों का संताप नहीं! 
पर कुलक्षण में होना प्रवृत्त ;
हे माधव है क्या पाप नहीं  ? ×××

कुल- परंपराएँ मिटतीं तो;
कुल-रीति-धर्म निश्चय विनष्ट! 
नारी -जन पाप-प्रवृत्त अगर;
संतानें जारज और भ्रष्ट!! ×××

बिन पिंडोदक पूर्वज पाते;
रौ-रौ नरकों में घोर कष्ट! 
इसलिए युद्ध है इष्ट नहींं ;
कर देती हिंसक वृत्ति नष्ट!! ×××

गुरुजन-वध, राज्य-भोग-सुख से;
श्रेयस्कर मुझको भिक्षाटन! 
इन आतताइयों को मारूँ;
यह पापकर्म है मनमोहन!! ×××
श्रीकृष्ण-
अर्जुन मत बन तू नादान , 
यह दुश्शासन, मूर्त्त कुशासन, 
ले तू इसकी जान! 
कोई न प्यारा, नहीं सहारा, 
इनको मारो, न इनसे हारो, 
मत बतला तू ज्ञान!! 
यह दुर्योधन महाँ पपिष्टी, 
अत्याचारी, लोभी, कपटी, 
मिटा तू इसकी शान!!! 
अर्जुन-
ये लोग गर मारें मुझे;
प्रभु हो मेरा कल्याण ही! 
शुभ गति अगर मिलती नहीं;
तो नर्क भी होगा नहीं!!
 श्रीकृष्ण-
युद्ध छोड़ कर हे अर्जुन;
क्या कर्म दूसरा क्षत्रिय का? 
गो-ब्राह्मण -नारी-निर्बल की-
रक्षा ही धर्म है क्षत्रिय का!
श्रीकृष्ण-
तमतोम फाड़ देता था जो;
क्या चिंतन का वह खंग नहीं? 
क्षत-विक्षत अरिदल करता था;
धन्वी क्या आज अपंग नहीं? ××

यह तन असत्य है नाशवान;
देही अविनश्वर लेकिन सुन! 
कौमार्य-युवा-वृद्धावस्था;
बस देशधर्म हैं हे अर्जुन! ! ××
  
कायर- अकीर्तिकर मार्ग छोड़;
तुम क्षत्रियत्व का  करो वरण ! 
होगा निश्चय ही स्वर्ग प्राप्त;
वीरोचित रण में अगर मरण!! ××

माँ का लज्जित हो दूध नहीं;
आचरण न शास्त्र  -विरुद्ध करो! 
दुर्बलता छोड़ो, उठो पार्थ, 
 बैरी सम्मुख है, युद्ध करो!! ××
श्रीकृष्ण-
कर्णादिक वीरों के अर्जुन;
तुम शत्रु हमेशा कहलाए! 
अपमान किया राजाओं का;
पांचाली जाकर वर लाए!! 

अब युद्ध उन्हीं से करने को;
कुरुक्षेत्र रणस्थल में आए! 
 कुछ ऐसा कर तू हे अर्जुन;
तेरी अपकीर्ति न हो पाए!! 

अर्जुन-
मैं शरण आपकी आया हूँ;
मधुसूदन ज्ञान बताओ तुम  ! 
अज्ञानजाल को दूर हटा ;
उर में प्रकाश फैलाओ तुम!! 

माधव, कर संशय -हरण मेरा;
दो ऐसा अनुपम ज्ञान मुझे! 
तम-मोह दूर मेरा भी हो;
और दुनियाँ को भी मार्ग दिखे!! 

श्रीकृष्ण- 
तुमको निज सखा समझकर ही;
कौंतेय ज्ञान मैं कहता हूँ! 
तू धीरज धर अपने मन में;
अज्ञान सदा मैं हरता हूँ!! 

जब बुद्धि तुम्हारी कुरुनंदन;
इस मोह-दु:ख को पार करे! 
सुख रूप ज्ञान को पाओ तुम;
आत्मा श्रुतियों में विहार करे!! 

अर्जुन जो देह में देही है;
वह अमर सदा ही रहती है! 
चाहे शरीर हो नष्ट-भ्रष्ट;
पर आत्मा कभी न मरती है!! 

जो इसको नश्वर कहते हैं;
या इसको मरा मानते हैं! 
पर आत्मा कभी नहीं मरती ;
यद्यपि वे नर न जानते हैं!! 
श्री कृष्ण-
उत्पन्न अन्न से भूतप्राणि ;
वर्षा से अन्न-समुद्भव  है! 
वर्षा का कारण यज्ञ और;
यह यज्ञ कर्म से संभव है!! ××

तज फलासक्ति -मिथ्या संयम;
तू वर्णोचित कर्मों  को कर! 
कर्त्तापन-आशा-अहंकार;
मुझमें लय और समर्पित कर!!××

अति वेगवान है अश्व प्रबल;
मन- अनुशासन- वल्गा से कस! 
यज्ञाग्नि रूप हो अनासक्त;
जीवन जगतीहित बने निकष!!××
इंद्रिय-मन-बुद्धि-आत्मा को;
जीतो अर्जुन बन आत्मजयी! 
है कर्मयोग ही श्रेयस्कर;
यह सृष्टि समूची कर्ममयी!! ××
श्री कृष्ण-
 तुममें भ्रमती बुद्धि तुम्हारी;
इसमें नहीं तुम्हारा दोष! 
फिर भी आत्मा अमर हमेशा;
सोच इसे पाओ संतोष!! 

जो जन्म लेता जगत में;
मरता वो निश्चय जान तू! 
इसलिए हे पार्थ इसमें;
दु:ख न कुछ भी मान तू! 

वस्त्र जीर्ण हो जाने से;
ज्यों नर उससे नाता तोड़े! 
त्यों समय बीत जाने पर फिर;
आत्मा शरीर को भी छोड़े!! 

शाश्वत पुराण यह कहते हैं;
यह अजर- अमर- अविनाशी है! 
मर सकती है यह नहीं कभी;
 यह आत्मा घट -घट वासी है!!
श्रीकृष्ण-
आत्मा न शस्त्र से कटती है;
और पानी भिंगा नहीं सकता! 
पवन न इसे सुखा सकता-
और ताप न इसे जला सकता!!  

यह सूक्ष्म बहुत है महाबाहु;
अप्रकट सदा यह रहती है! 
ज्यों मनुष्य चोला बदले;
त्यों ही यह नित्य बदलती है!! 

नाशवान् शरीर में;
प्रवेश करती है सदा! 
पर जीर्ण होते छोड़ दे;
अवध्य है देही मुदा!! 

होती है धर्म की हानि और;
सज्जन जब पीड़ित होते हैं! 
बढ़ताअधर्म- अतिचार  तथा;
सन्मार्ग प्रतिष्ठा खोते हैं!! 


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