मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..
बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..
पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, सँवरती रही मिट्टी मेरी..
ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..
कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..
खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों तक.
पाक-नापाक दहकती रही मिट्टी मेरी..
खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..
गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..
राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..
कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
१९-६-२०१७
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 19 जून 2021
मुक्तिका मिट्टी मेरी...
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