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शनिवार, 19 जून 2021

गीता अध्याय ७ यथावत हिंदी पद्यान्तरण


गीता अध्याय ७
यथावत हिंदी पद्यान्तरण
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हरि बोले: 'मुझमें रम अर्जुन! योग करो मम आश्रय ले।
निस्संदेह जान सकता है, मुझको कैसे वह सुन ले।१।
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ज्ञान तुझे विज्ञान सहित मैं, पूरी तरह बताता हूँ।
जिसे जानकर नहीं जगत में , कुछ ज्ञातव्य शेष रहता।२।
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मनुज हजारों में से कोई, एक सिद्धि हित यत्न करे।
ऐसे सिद्धों में से कोई एक मुझे जाने सच में।३।
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पृथ्वी पानी अग्नि हवा नभ, बुद्धि मन के जानो।
अहंकार ये आठों मेरी, भिन्न शक्तियाँ पहचानो।४।
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'अपरा' यह; जो अन्य प्रकृति है, जानो मेरी 'परा' कहा।
जीवयुक्त हे महाबाहु! जिससे यह जग धारित होता।५।
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ये दोनों शक्तियाँ स्रोत हैं, सब जीवों के यह जानो।
मैं पूरी जग-उत्पत्ति का हेतु नाश का भी मानो।६।
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मुझसे श्रेष्ठ न दूजा कोई है जान धनंजय मीता।
मुझमें सब कुछ यह जो दिखता, धागे गुंथे मोतियों सा।७।
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रस मैं जल में हे कुंती सुत!, आभा हूँ शशि-सूरज की।
'अ उ म' प्रणव हूँ सब वेदों में, ध्वनि नभ में ताकत मनु ।८।
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पुण्यगंध पृथ्वी की हूँ मैं, हूँ प्रकाश मैं पावक में।
जीवन हूँ सब जीवों में मैं, तप हूँ सकल तापसों में।९।
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बीज मुझे सारे जीवों का, जानो पार्थ! सनातन मैं।
मति मतिमानों की हूँ मैं ही तेज तेजवानों का मैं।१०।
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बल बलवानों का अरु मैं हूँ, विषय भोग आसक्ति बिना।
धर्म विरुद्ध न जो जीवों में, काम वही हूँ भारत हे!।११।
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जो निश्चय ही सतोगुणी या, भाव राजसी तमोगुणी।
मुझसे ही उनको जानो पर, नहिं मैं उनमें वे मुझमें है।१२।
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तीन गुणों से युक्त भाव ये, इनसे सब जग मोहित है।
नहीं जानता है मुझको जो, इनसे परे सनातन है।१३।
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दैवी निश्चय ही यह गुणमय, मेरी माया दुस्तर है।
मेरे ही जो शरणागत हैं, माया पार जा सकें वे।१४।
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हों नहिं दुष्ट मूढ़ शरणागत, मेरी मनुज अधर्मी जो।
माया द्वारा अपहृत ज्ञानी, बहुधा भावाश्रित हैं जो।१५।
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चार तरह के मुझे भजें जन, हैं जो पुण्यात्मा अर्जुन!।
विपदग्रस्त जो जिज्ञासामय, लाभार्थी ग्यानी भारत।१६।
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उनमें से ज्ञानी ही तत्पर, भक्तिलीन हैं विशिष्ट भी।
प्रिय ज्ञानी को मैं हूँ अतिशय, मुझको प्रिय अतिशय वह ही।१७।
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उदार सब ही हैं ज्ञानी पर, मुझ सम मेरे मत में हैं।
रहे भक्ति ही में जो तत्पर, मुझे परम गति पाता है।१८ ।
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अगिन जन्म-मरणांत सुज्ञानी, गहता मेरी शरण सदा।
वासुदेव सब कुछ हों जिसको, वही महात्मा दुर्लभ है।१९।
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इच्छावश वे ज्ञानहीन जो, शरण अन्य देवों की लें।
उन विधियों का पालन करते, हो स्वभाव के वश में वे।२०।
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जो जो जिस जिस देव रूप को, भक्त सश्रद्धा पूज रहा।
उसकी स्थिर श्रद्धा उसमें ही, निश्चय ही कर देता मैं।२१।
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वह हो श्रद्धायुक्त देव को, पूज करे आकांक्षा जो।
पाता उसमें इच्छाओं को, मेरे द्वारा निश्चय ही।२२।
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नाशवान लेकिन फल उनका, वह होता अल्पज्ञों का।
सुर समीप उनके पूजक जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२३।
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लुप्त रूप पाया सोचें जो मुझे, अल्प ज्ञानी हैं वो।
परम भाव जाने बिन मेरा, अविनाशी अति उत्तम जो।२४।
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नहीं प्रगट होता सब सम्मुख, छिपा योगमाया में मैं।
मूर्ख व्यक्ति नहिं समझें मुझको, जन्मरहित अविनाशी मैं।२५।
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जान रहा हूँ मैं अतीत को, वर्तमान को भी अर्जुन!
भावी-भूतों को जानूँ मैं, मुझसे अधिक नहीं कोई।२६।
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इच्छा द्वेष उदित होने से, द्व्न्द मोह द्वारा भारत!
सारे जीव मोह ले जन्में, मोहग्रस्त हो शत्रुजयी।२७।
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जिनके नष्ट पाप हो जाते, पुण्य कर्म जिनके होते।
वे द्वन्द के मोह में रहें, भक्त भजें मुझको दृढ़ हो।२८।
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जरा मृत्यु से मुक्ति हेतु जो, मेरा आश्रय लेते हैं।
वे जन ब्रह्म वास्तव में हैं, जानें दिव्य कर्म पूरे।२९।
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जो अधि-भूत-दैव को जानें, मुझे यज्ञ को जो जाने।
मृत्यु समय में भी मुझको वे, पाते जिनका मन मुझमें।३०।
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