मुक्तक
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती
*
लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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- आचार्य संजीव 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ वार्ता:०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४
१४-६-२०१४
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 14 जून 2021
लघुकथा एकलव्य, मुक्तक
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