संजीव
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तुम गलत पर हम सही कहते रहे हैं
इसलिए ही दूरियाँ सहते रहे हैं
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ज़माने ने उजाड़ा हमको हमेशा
मगर फिर-फिर हम यहीं रहते रहे हैं
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एक भी पूरा हुआ तो कम नहीं है
महल सपनों के अगिन ढहते रहे हैं
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प्रथाओं को तुम बदलना चाहते हो
पृथाओं से कर्ण हम गहते रहे हैं
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बिसारी तुमने भले यादें हमारी
सुधि तुम्हारी हम सतत तहते रहे हैं
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पलाशों की पीर जग ने की अदेखी
व्यथित होकर 'सलिल' चुप दहते रहे हैं
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हम किनारों पर ठहर कब्जा न चाहें
इसलिए होकर 'सलिल' बहते रहे हैं.
१७-६-२०१५
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