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शनिवार, 5 सितंबर 2020

आत्मालाप: संजीव 'सलिल

कविता: आत्मालाप: संजीव 'सलिल' * क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब?  कौन किसे बतलाये? मन की मात्र यही जिज्ञासा हम क्या थे संग लाये? आए खाली हाथ गँवाने को कुछ कभी नहीं था. पाने को थी सकल सृष्टि हम ही कुछ पचा न पाये. ऋषि-मुनि, वेद-पुराण, हमें सच बता-बताकर हारे कोई न अपना, नहीं पराया हम ही समझ न पाये. माया में भरमाये हैं हम वहम अहम् का पाले. इसीलिए तो होते हैं सारे गड़बड़ घोटाले. जाना खाली हाथ सभी को सभी जानते हैं सच. धन, भू, पद, यश चाहें नित नव कौन सका इनसे बच? जब, जो, जैसा जहाँ घटे हम साक्ष्य भाव से देखें. कर्ता कभी न खुद को मानें प्रभु को कर्ता लेखें. हम हैं मात्र निमित्त, वही है रचने-करनेवाला. जिससे जो चाहे करवा ले कोई न बचनेवाला. ठकुरसुहाती उसे न भाती लोभ, न लालच घेरे. भोग लगा खाते हम खुद ही मन से उसे न टेरें. कंकर-कंकर में वह है तो हम किससे टकराते? किसके दोष दिखाते हरदम? किससे हैं भय खाते? द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें तभी मिल सके दृष्टि. तिनका-तिनका अपना लागे अपनी ही सब सृष्टि. कर अमान्य मान्यता अन्य की उसका हृदय दुखाएँ. कहें संकुचित सदा अन्य को फिर हम हँसी उड़ायें.. कितना है यह उचित?, स्वयं सोचें, विचार कर देखें. अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें, व्यर्थ अन्य को लेखें.. जिनके जैसे पंख, वहीं तक वे पंछी उड़ पायें. ऊँचा उड़ें,न नीचा उड़नेवाले को ठुकराएँ.. जैसा चाहें रचें, करे तारीफ जिसे भायेगा.. क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी नेह-प्रीत लाएगा??.. सृजन नहीं मसखरी,न लेखन द्वेष-भाव का जरिया. सद्भावों की सतत साधना रचनाओं की बगिया.. शत-शत पुष्प विकसते देखे सबकी अलग सुगंध. कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह, उस पर हो प्रतिबन्ध.' कभी न एक पुष्प को देखा दे दूजे को टीस, व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे जो वह दिखे कपीश.. नेह नर्मदा रहे प्रवाहित चार दिनों का साथ. जीते-जी दें कष्ट बिछुड़ने पर करते नत माथ? माया है यह, वहम अहम् का इससे यदि बच पाये. शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन करे 'सलिल' तर जाये.   *********************

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