पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
डाॅ. अंसार क़म्बरी
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नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
डाॅ. अंसार क़म्बरी
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आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं।
इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है।
'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।
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संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629
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संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629
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