इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए.
१.स्व.सुमित्रानन्दन पन्त
प्रस्तुति : संजीव वर्मा 'सलिल'
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हरी बिछली घासहरी बिछली घास.
डोलती कलगी छरहरे बाजरे की.
अग्र मैं तुमको
ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता, या
शारद के भोर की नीहार-न्हाई कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय
उथला या कि सूना है,
या कि मेरा प्यार मैला है.
बल्कि केवल यही: ये उपमान मैले हो गये हैं.
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच.
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है.
मगर- क्या तुम नहीं पहचान पाओगी:
तुम्हारे रूप के- तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
निजी किसी सहज, गहरे बोध से,
किस प्यार से मैं कह रहा हूँ.
अगर मैं यह कहूँ-
बिछ्ली घास हो तुम, लहलहाती हवा में
कलगी छरहरे बाजरे की.
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा, एक प्रतीक बिछली घास है.
या शारद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी- अकेले बाजरे की.
और सचमुच इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह कुहरा वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित
शब्द जादू हैं
मगर क्या समर्पण कुछ भी नहीं है?
अगर मैं यह कहूँ-
बिछ्ली घास हो तुम, लहलहाती हवा में
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा, एक प्रतीक बिछली घास है.
या शारद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी- अकेले बाजरे की.
और सचमुच इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह कुहरा वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित
शब्द जादू हैं
मगर क्या समर्पण कुछ भी नहीं है?
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