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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

तुलसी वंदन दीप्ति गुप्ता / संजीव 'सलिल'


तुलसी वंदन 



'तुलसी  के बिरवे तले'




-- दीप्ति गुप्ता



तुलसी  के छोटे बिरवे तले
देखे   है  शांत  रौशन  दिये
नन्हे से,छोटे से, हों वे भले
दिव्यता  से  हैं   होते   भरे



मन्नतें घर-भर   की  लिये
अपनी दमकती लौ  में  धरे
पहुंचाते  प्रभु को  सांझ ढले
सबकी अरज  आस पूरी करें



मन में उगाओ तुलसी का बिरवा
और जलाओ  एक  नेह का दिया
देखो  फिर,  कैसा   उजाला  भरे
मन   में   भरा   तम    दूर   करे



दोहा सलिला:
तुलसी वंदन 
संजीव 'सलिल'
 

तुलसी वंदन कर मिला, शांति-सौख्य अनमोल.
कौन तराजू कर सके, जग में इसका तोल..




रामा तुलसी से कहे, श्यामा तुलसी सत्य.
मन का नाता सत्य है, तन का मोह असत्य..

 

तुलसी हुलसी तो लिया, तुलसी ने अवतार.
राम-भक्ति से तर गया, दिया जगत को तार..


 

तुलसी चौरे पर दिया, देता दीप्ति अनूप.
करें प्रणव-उच्चार नित, किंकर के सँग भूप..


 

अमल कमल सम हो 'सलिल', रहो पंक से दूर.
लहर-लहर कहती हहर, ठहर न होना सूर..






tulsi = ocemumsanctum -kraphao, holy basil

5 टिप्‍पणियां:

- sosimadhu@gmail.com ने कहा…

- sosimadhu@gmail.com

आ. संजीव जी
आपकी पावन लेखनी को शत शत नमन . मन का नाता सत्य है यह धारणा हमारी भी है .
मधु

vijay ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

vijay ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


आ० दीप्ति जी,

पूजा के दिए की लौ को देख-देख मुझको भी बहुत शांति मिलती है ।

अच्छे विषय पर अच्छी कविता के लिए हार्दिक बधाई ।

सादर,

विजय

"Lalit Walia" ने कहा…


दीप्ति जी ...,

'मंढवे तले ग़रीब के दो फूल खिल रहे हैं', जैसे भावों को सिमटे ....
'तुलसी के बिरवे तले' की सभी पंक्तियाँ अच्छा सन्देश देती हैं | ढेर सराहना स्वीकार करें ...

~ 'आतिश'

madhu sosi ने कहा…

madhu sosi


अति सुन्दर सजीव भाव , दीप की लौ, दीप की प्यारी सी स्नेह भरी गर्माहट पहुँच गयी ।
मधु

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

- shishirsarabhai@yahoo.com
आदरणीया दीप्ति जी,

पूजा सी पावन,
बहुत ही मनभावन,
बांचो इसे तो, हरे ताप
अंखियों से बरसे सावन

आपकी इस कविता में कुछ तो अद्भुत है, जबकि इसमें सरल, सामान्य शब्द हैं, बनावट, और बुनावट भी सरल सामान्य है, किन्तु फिर भी अनूठी सी दिव्यता है, दिए की लौ की सी दिपदिपाहट है, सुकून और चैन की गमक है.. कल रात इसे एक साथ धीरे-धीरे पाँच बार पढ़ा और अधीर मन शान्त होता गया. ऊपर लिखी पंक्तियों में 'अंखियों से बरसे सावन' में मेरा भाव यह है कि जैसे अनेक तरह के कष्टों से बोझिल मन लिए जब हम मंदिर में या घर के ही पूजास्थान में आँखें मूँदकर बैठ जाते हैं, तो मन में घुमडते आंधी-तूफां थम जाते हैं. हम सुख, शान्ति से भरने लगते है, उस क्षण कई बार हमारी आँखों से स्वत: ही आँसू बह निकलते हैं. क्योंकि यह बात सच है कि जब चैन के लिए तरसा मन शांति पाता है तो अच्छे- अच्छे सूरमाओं की आंखे बरस पडती हैं. हमेशा नहीं, पर अक्सर ऐसा होता देखा गया है. ऐसा होना बहुत अच्छी बात है.

हम सबने जीवन में अनेक बार सुना है- 'अरे मर्द होकर रोता है?' बाप भी किशोर/युवा बच्चे से कहेगे- अरे! लडका होकर रोता है... इसलिए यह बात मैं यहाँ बांटना चाहता हूँ कि अनेक आलेखों में मैंने पढ़ा और पुरुषों के लिए विशेषतौर पे हिदायत दी गई कि जब कभी मन उमड़े तो जी भर कर रो लेना चाहिए, इससे एक तो आतंरिक शोधन होता है, दूसरे यह हमारी इंसानियत, संवेदनशीलता को भी बनाएँ रखता है! वरना आँसुओं को ज़ब्त करने से पुरुष कई तरह की भावनात्मक और मानसिक ग्रंथियों का शिकार हो सकता है. किसी बहुत बड़े विचारक, दार्शनिक ने कहा था (नाम याद नहीं रहा) मर्द कठोरता और मजबूती का प्रतीक माना जाता है किन्तु वह इंसान पहले है(हम सभी इंसान पहले हैं, मर्द या औरत बाद में) इसलिए जो मर्द ज़िंदगी में कभी रोता नहीं, उसे अपने पर गर्व न करके अफसोस अधिक करना चाहिए. वह इंसान ही क्या जिसकी आँखे कभी बरसी न हों, उमडी न हों. उससे अधिक पथराया हुआ कोई नहीं.
बहुत ही सुन्दर बात लगी.

दीप्ति जी!आपकी इस कविता ने गज़ब ढाया. जिस सुकून के लिए मैं कल तरस रहा था, रात इसे पढते ही उसे पा लिया .

साधुवाद, सराहना, बधाई,
सादर
शिशिर