कविता:
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Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>
जीवन - सफ़र
इंदिरा प्रताप
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कब पैर उठे
कब जीवन के अनगढ़
रस्ते पर निकल पड़े ,
कुछ पता नहीं |
कभी सुबह का उगता सूरज ,
कभी निशा की काली रातें ,
कभी शाम की शीतल छाया,
कभी वादियों में भटके तो ,
कभी मरू की तपती रेती ,
कभी भागते मृग तृष्णा में ,
दूर – दूर तक |
जिया यूँहीं अल्हड सा जीवन ,
पर अब जीबन की संध्या में ,
सोच रही हूँ बैठ किनारे ,
पूनम की भीगी रातों में ,
कोई लहर समेत लेगी जब ,
मुझे भँवर में ,
तुम तक कैसे पहुँच सकूँगी ?
नहीं तैरना सीखा मैनें
वैतरणी का पाट बृहत्तर ,
जीवन की इस कठिन डगर में |_________________________
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>
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