कहानी
पारदर्शी
पारदर्शी
(कतिपय पारदर्शी व्यक्तित्व समय के धुंध या आवरण के पार देखने की दिव्य क्षमतावाले) होते हैं। इस सत्य पर आधारित है विदुषी कहानीकार डॉ दीप्ति गुप्ताजी की यह कहानी।)
राजश्री की रात आँखों में ऐसे रिस-रिस के बीती कि सुब्ह उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। इतनी बेचैन तो वह कभी नहीं हुई। ये
क्या हो रहा है उसके साथ? क्यों
अजीब-अजीब घट रहा है। सब उसकी समझ से परे
था। कहीं वह अपना मानसिक संतुलन न खो बैठे। वह बेहद चिन्तित और डरी हुई थी। उसके
मन में तो वह विचार आया भर था कि सिरफिरा शराबी पड़ौसी जो अपनी निरीह पत्नी को जब-तब दरिन्दे की तरह मारता पीटता रहता है, बाहर बिल्डिंग के चारों ओर नशे में गालियाँ बकता घूमा करता है, निरन्तर प्रलाप करता कभी पेड़ के नीचे खड़ा
तो कभी गेट के पास आने जाने वालों के साथ झगड़ा करता बैठा रहता
है – उसे ईश्वर सबक़ क्यों नहीं देता और
उसके हाथ पैर क्यों नहीं तोड़ देता ! शाम को पता चला कि उस
शराबी का ऐसा भयंकर एक्सीडेन्ट हुआ कि
दोनों पैरों और दाँए हाथ
में मल्टीप्ली फ्रैक्चर हो गए थे।
उसकी पत्नी की विडम्बना ये कि वही उस आततायी
पति की देख भाल कर रही थी जो ठीक होने के बाद इनाम में उसे मार पीट के
अलावा कुछ और देने वाला नहीं था। राज सच में थोड़े ही चाहती थी कि शराबी के हाथ
पैर टूट जाए, वो तो उसकी
निरीह पत्नी की हालत देख गुस्से में उसके मन में विचार भर आया था कि इतना अन्याय
करने वाले को ईश्वर दंडित क्यों नहीं करता। इसके अलावा राज
इसलिए भी परेशान थी कि पिछले पाँच वर्षों से वह लगातार महसूस कर रही है और महसूस
ही नहीं कर रही अपितु अपने होशो हवास में
देख रही है कि उसके अन्दर कुछ तो ऐसा घट रहा है जो उसकी ‘सोच’ को ‘सच’ बनाते देर नहीं
करता। वह सोचने से घबराने लगी है। उसके दिमाग़ में विचार कौंधा नहीं कि और उधर
उसके घटने की प्रक्रिया शुरु हुई। पहले तो वह बेख़बर थी, शुरु में तो उसका ध्यान ही नहीं गया इस ओर, लेकिन एक बार एक निकट संबंधी के लिए उसने अपने मन में आई बात
को ऐसे ही कह दिया और वह सच हो गई।
वह बात 4 वर्ष पहले
की है। उसके चाचा की बेटी का कहीं रिश्ता
नहीं हो पा रहा था। वे सोच में डूबे थे कि
कहाँ से कैसे योग्य वर ढूँढ कर लाए अपनी बेटी के लिए। उनकी चिन्ता को दूर
करती राज एक दिन यूँ ही उन्हें ढाढस बँधाती बोली –
“अरे चाचा जी क्यों चिन्ता करते है, आपकी बेटी के लिए तो दूल्हा ख़ुद चलकर घर आएगा और इसे सात
समुन्दर पार ले जाएगा।“
ठीक एक महीने बाद कुछ ऐसा ही घटा। किसी जान पहचान वाले के
माध्यम से टोरंटो(कनाडा) में सैटिल्ड एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर ने घर आकर चाचा
जी की बेटी को पसन्द किया और एक सप्ताह के
अन्दर शादी करके सच में सात समुन्दर पार ले गया। चाचा और चाची की तो ख़ुशी का
ठिकाना न था। उन्होंने राज की भविष्यवाणी पर पूरी तरह गौर किया और इनाम के रूप में
सबको घर परिवार में उसकी इस दिव्य वाणी की बारे में बार – बार बताया। तब राज ने पहली बार अपने शब्दों के सच होने पे गौर किया।पर फिर भी उसे यूँ ही कही
गई बात के सच हो जाने में कोई चमत्कार जैसी बात नज़र नहीं आई।उसे यह मात्र एक
इत्तेफ़ाक भर लगा। ख़ैर, वह बात आई
गई हो गई। पर राज ने इस घटना को मात्र एक
संयोग के रूप में लिया।
इस सुखद होनी के छ: माह बाद, एक बार उसके मन में अनायास ही अपनी ममेरी बहन, जो विवाह के आठ साल बीत जाने पर भी माँ न बन सकी थी, उसके लिए ख़्याल आया, बल्कि उसने दिल से उसके लिए चाहा कि ‘काश ! भगवान उसकी गोद भर दे, और एक ही बार में बेटी – बेटा दोनों उसकी गोद में डाल दे।‘ दो- तीन महीने बाद उसे पता चला कि उसकी ममेरी बहन सच में माँ
बनने वाली है। राज की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। इस बार वह ख़ुद-ब-ख़ुद अपने मन में आए इस विचार की खोजबीन करना चाहती
थी और मन में उत्सुक्ता से भरी हुई थी कि
जुड़वा बच्चे होते हैं क्या उसकी ममेरी बहन के और वह भी –एक बेटा और बेटी.... ! समय आने पर राज को
पता चला कि उसकी बहन ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है और वो भी - एक बेटा और बेटी को....। राज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अच्छे ख़्याल के सच
होने की बात तो स्वीकार्य थी, स्वागत योग्य थी, लेकिन अप्रिय
सोच के सच में परिणत हो जाने की बात चिंतनीय
और विचलित करने वाली थी । जैसे दो वर्ष पूर्व उसके मन में अक्सर बालकनी से
सामने नीचे दिखाई देने वाली बस्ती के एक छोटे से मकान को देख कर न जाने क्यूं यह
विचार बार-बार आता कि
वह जल्द ही गिरने वाला है, जबकि वह
अच्छी ख़ासी हालत में था। राज के दुख का पारावार न रहा, जब उसने देखा कि एक दिन वह मकान आधे से अधिक ढह गया था और जो बचा था, वह भी
गिरनाऊ था। ऐसी न जाने उसके मन में आई कितनी बाते सच होती रहती। धीरे- धीरे इन्तहा ये हो गई कि वह अपनी सोचों से घबराने लगी थी। लेकिन दिलो
दिमाग में 24 घंटे में
हज़ारों विचार आते हैं, जाते हैं, उन पे राज कैसे काबू पा सकती थी। फलत: वह रात – दिन
तनावग्रस्त रहने लगी और स्वयं को अप्रिय घटनाओं के घटने का कारण मानने लगी। इस
कारण से वह अनेक बार गहरे अवसाद में डूब जाती। फिर किसी तरह वह अपने को उस अवसाद
से उबारती।अपना अधिकतम समय पढ़ने लिखने और अन्य कामों में बिताती, अपने मन को अधिक से
अधिक कामों में उलझाए रखती। पर उसके दिलोदिमाग़ की यह ग्रन्थि सुलझाए नहीं सुलझ रही थी।
दोपहर का सन्नाटा
था। राज आराम से बिस्तर पे लेटी ‘बी.बी. लाल’ की किताब “सरस्वती फ़्लोज़ ऑन”
पढ़ रही थी। इतने में हवा के एक तेज़ झोके ने मेज़ पर रखे
पन्नों को कमरे में इधर उधर उड़ाया, राज झपट कर
उठी और पन्नों को समेटा। खिड़की बंद की और फिर से पढ़ने में डूब गई। पढ़ते- पढ़ते उसे कुछ देर के लिए न जाने कैसे झपकी सी आ गई। किन्तु दिन में सोने की आदत
न होने के कारण वह 5 मि. में ही उठ बैठी। उसे “गायत्री मंत्र“ पर प्रकाशित एक पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद करके “विभूति मिशन“ को अगले हफ़्ते तक देना था। वह उठी, मुँह पर ठन्डे पानी के छींटे डाले और फ़्रेश होकर अपने को अनुवाद के काम पे कमर कस के
केन्द्रित किया। आज वह शेष काम पूरा करके ही दम लेगी। तीन
घन्टे वह ऐसी काम पे टूटी कि उसे समय का
भी ध्यान नहीं रहा। घड़ी 4 बजा रही
थी। वह तो दोपहर का खाना ही न बना पाई, न खा पाई। पेट में चूहे गदर मचाए थे। काम तो पूरा हो गया था।
बस टाइप वह कल – परसों
करेगी, यह सोचती वह उठी और कुकर में पुलाव चढ़ाया।
डाइनिंग टेबल पे रखे फलों से सेब उठाकर खाने लगी कि पुलाव बनने तक पेट को कुछ
सहारा होए और सेब खाते –खाते वह
अपने अधूरे पड़े प्रोजेक्ट के बारे में सोच-विचार करने लगी।
राज को आज
डैक्कन लाइब्रेरी जाना था। वह सड़क के किनारे खड़ी ऑटो मिलने का इन्तज़ार कर रही
थी। दो मिनट बाद एक ऑटो मिल गया और वह तुरन्त डैक्कन
लाइब्रेरी के लिए रवाना हो गई। लाइब्रेरी में शोध
संबंधी जो सन्दर्भ पुस्तक वह खोज रही थी, पता चला कि वह पन्द्रह दिन के लिए किसी मिसेज़
बैनर्जी के पास है। राज बड़ी सोच में
पड़ी कि अब क्या करे, पन्द्रह दिन तक काम अधूरा ही पड़ा रहेगा।
‘राधाकमल मुखर्जी’ की पुस्तक उसे हर हाल में जल्द से जल्द चाहिए थी। कुछ
देर राज निष्क्रिय सी बैठी सोचती रही। अन्य नामी लेखकों की किताबें भी उसने उलट पलट कर देखी कि सम्भवत उनसे कुछ
बात बन सके, लेकिन
अपेक्षित सन्दर्भ उनमें नहीं मिल सके। सोच
में डूबी वह उठी और पुस्तकालयाध्यक्ष के
पास जाकर ‘राधाकमल
मुखर्जी’ की पुस्तक
का नाम, अपना फ़ोन नंबर नोट करा दिया जिससे
कि रिटर्न होने पर, वह पुस्तक
उसे बिना किसी देरी के तुरन्त मिल जाए। वह किताब बार-बार उसके ज़हन में उभर रही थी। दो दिन बाद
ही, सुब्ह ग्यारह
बजे के लगभग उसके पास
लाइब्रेरी से फ़ोन आया कि ‘राधाकमल
मुखर्जी’ की पुस्तक
वापिस आ गई है और उसके लिए रिज़र्व रख दी गई है।
“क्या”…… राज ख़ुशी और आश्चर्य
से भरी और कुछ भी न कह सकी। वह सोच में भर गई कि जो पुस्तक पन्द्रह दिन के लिए
इश्यूड हो, वह एकाएक वापिस कैसे आ गई ? राज
झटपट तैयार होकर लाइब्रेरी पहुँची और
किताब अपने नाम इश्यू करवायी । फिर भी उससे रहा नहीं गया और उसने
पुस्तकालयाध्यक्ष से पूछ ही लिया –
“यह तो पन्द्रह दिन के लिए
इश्यूड थी, इतनी जल्दी कैसे मिल गई ? “
पुस्तकालयाध्यक्ष भी थोड़ा
आश्चर्य अभिव्यक्त करते बोले –
“पता नहीं, मिसेज़ बैनर्जी तो जब भी कोई पुस्तक ले जाती हैं तो कभी ड्यू
टाइम से पहले नहीं लाती, बल्कि कई
बार तो ड्यू डेट पे वापिस लाकर
रिइश्यू करा कर ले जाती हैं। पर इस बार तो
वे दो ही दिन में किताब
ले आई और बिना कुछ कहे लौटाकर चली गईं। “
राज मन ही मन कुछ सूत्र टटोलती, खोजती सी घर पहुँची। उसकी यह इच्छा कैसी चमत्कारी रूप से
पूर्ण हुई ! वह उत्साह से भरी घर के पास की दुकान से कुछ ताज़ी सब्ज़ी, और फल लेने के लिए उतर गई। साथ ही उसने टोफू, फ़्रोज़न मटर, पास्ता, मैक्रोनी भी ख़रीदा। अब उसका सारा ध्यान किताब में पड़ा था।
सो उसने लंच में शार्टकट लेते हुए वेजिटेबल पास्ता बनाया और भुक्कड़ की तरह किताब
पे टूट पड़ी। लंच में अभी दो घंटे बाकी थे। तब तक उसने ज़रूरी सन्दर्भ खोज
निकाले और अपने शोध प्रपत्र में उनका उल्लेख भी बक़ायदा कर
डाला। शोध प्रपत्र को शुरू से आख़िर तक, ध्यान से निरीक्षक की तरह पढ़ा, ख़ास जगहों पे कुछ काट छाँट की और अपने उस लम्बे लेख को
अन्तिम रूप दिया। इस लिखत पढ़त में 2 बज गए थे।
अंगड़ाई तोड़ती राज अपने मनपसन्द लंच – पास्ता को
अनुगृहीत करने उठी, तो देखा
बेचारा ठन्डा होकर जम गया था। ख़ैर, उसकी अपनी
मूर्खता थी कि लंच का बोझ निबटाने के चक्कर में उसे पास्ता जैसी चीज़ इतनी जल्दी
बना कर नहीं रखनी चाह्ए थी और बनाई थी तो दस-पन्द्रह
मिनट में उसे खा
लेना चाहिए था। इसलिए बिना मुँह बनाए राज ने उसे माइक्रोवेव में कुछ सैकेंड के लिए
निवाया किया और खा लिया। पेट तो भर गया था, लेकिन मुंह का स्वाद ठीक
करने के लिए उसने कीनू और कीवी का जूस गिलास में डाला और सिप करती
बालकनी में बैठ गई। ऊपर के फ़्लोर के नानावती दम्पत्ती के एक दो कपड़े, हवा ने उड़ाकर पास के पेड़ की शाख़ पे लटका दिए थे। वे
बेचारे लावारिस से उस पे झूल रहे थे। नीचे आस पड़ौस के बच्चे आइस पाइस खेल रहे थे, तो दो नन्ही लड़कियाँ
पाटिका खेल रही थीं। दुनिया के झमेलों से दूर वे कितने ख़ुश और रचनात्मकता के साथ खेल की बारीकियों में व्यस्त थे...। बच्चों को देख कर राज बड़ी देर तक मन ही मन चिहुँकती सी
बैठी रही और उनकी एक-एक हरकत पर
गौर करती रही। तभी नीले फ़्रॉक वाली बच्ची उसे बार –बार चोट खाई, मुँह से
ख़ून निकलती नज़र आने लगी। जब कि ऐसा कुछ
नहीं था, वह अच्छी
ख़ासी खेल रही थी। देखते ही देखते वह बच्ची न जाने कैसे पलटी खाकर औंधे मुँह गिरी
और उसके मुँह से ख़ून निकलने लगा, शायद दाँत
टूट गया था, एक हाथ छिल
गया था, कंकड़ो पे गिरने से खरोंचे आ गई
थी। “तौबा, तौबा, ये क्या
हुआ, पर कैसे हुआ... “ राज अपनी
सोच से परेशान हो उठी। क्यों आया उसके मन में चोट का ख़्याल, क्यों वो नन्ही बच्ची बुरी तरह चोट खा गई।राज को लगा कि
उसके कारण उस बच्ची के इतनी चोट लगी, न उस बच्ची के लिए कोई विचार मन में आता और न बच्ची इस बुरी तरह गिरती। राज अपराधी सा महसूस
करती, अपना मेडिसिन किट उठाकर नीचे दौड़ी।
उस बच्ची के डिटॉल और एन्टीसॅप्टिक क्रीम लगाकर पट्टी बाँधी। उसे प्यार से गले
लगाया, किसी तरह वह सुबुकती बच्ची चुप हुई।
ऊपर अपने फ़्लैट में वापिस लौटती राज के ज़हन में फिर वैसे ही अनगिनत सवाल उठने
लगे, जैसे कि अक्सर उसकी सोच के सच होने
पे उठा करते है। पर कोई हल, कोई जवाब
उसे न मिल पाया। उसका मन इस घटना के बाद इतना अशान्त रहा कि वह रात भर कोई काम
नहीं कर पाई।
आज बहुत दिनों बाद कल्पी, राजश्री के पास पूरे
दिन के लिए आ रही थी। छ: महीने पहले वे दोनों मिली थी। राज बहुत ख़ुश थी कि आज एक
लम्बे समय के बाद वह कल्पी से ढेर सारी बातें करेगी, उसकी सुनेगी, कुछ अपनी
कहेगी। सुब्ह ठीक दस बजे बिना किसी देरी के कल्पी, राजश्री के घर पहुँच गई। जैसे ही राजश्री ने दरवाज़ा खोला, कल्पी ‘राज राज’ कहती उससे लिपट गई।
खिलखिलाती कल्पी, राज के हाथ
में मिठाई का डिब्बा, फल और एक गिफ़्ट पैकेट पकड़ाती बोली –
“ले सम्भाल
ये सामान , अरे दुष्ट ! छ: महीने बहुत
लम्बा समय हो गया रे राज ! आज जी भर के बातें करेगें ।“
“क्यों नहीं, क्यों नहीं, पर मैडम ये
सब लाने की क्या ज़रूरत थी ? अगर खाली हाथ आती तो क्या मेरे घर में तुझे एंटरी नहीं मिलती
!” – राज मिठाई, फल वगैहरा मेज़ पर रखती बोली। इतने में फिर बच्ची की तरह किलकती कल्पी ने राज को बाँहों में भर लिया।
राज उसकी सख़्त गिरफ़्त से अपने को छुड़ाती बोली –
“अरे बस कर, बहुत हो गया प्यार, मेरी पसलियाँ चटकाएगी क्या ज़ालिम ?”
खी,खी,खी करती कल्पी अपनी गिरफ़्त ढीली करती बोली –
“चल छोड़ा, पर एक शर्त पे कि फटाफट अपने हाथ की एसप्रेसो कॉफ़ी पिलानी
होगी।“
राज को तो अपनी
ज़िन्दादिल, नटखट सहेली
की फ़रमाइश का पहले से ही अंदाज़ा था, सो उसने
कॉफ़ी फेट कर रखी थी। राज ने तुरत दो कप कॉफ़ी
बनाई और दोनो सखियाँ बालकनी में रखी केन चेयर्स में जम गई। ख़ूब दुनिया
जहान की बातें होती रही। राज ने बातों को विराम देते हुए कहा –
“ एक बजने से पहले ज़रा लंच की तैयारी कर लूँ। यूँ तो तेरा
मनपसन्द राजमा और गोभी –आलू की
सब्ज़ी मैंने बना ली है, पर एक
सब्ज़ी और तुझसे बात करते-करते बना लूँगी।
मशरूम, टोफ़ू और मटर की मिक्स वेजिटेबल खा
लेगी न ? और हाँ
ज़ीरा राइस बनाऊँ या सादा चावल ?”
कल्पी आँखें फैला कर बोली – “क्या मुझे
पेटू समझा है ? इतना तो
बना लिया है, तो अब और
कुछ बनाने की कोई ज़रूरत नहीं।“
“नहीं, नहीं, मैं बाक़ायदा तेरे स्वागत में शानदार और लज़ीज़ लंच तैयार करना चाहती हूँ। कब-कब तू आती है, आज मुझे
अपने दिल के अरमान पूरे करने दे बस।“ राज के इस
प्यार के आगे कल्पी मुस्कुराती चुप रही। बातों
ही बातों में लंच तैयार हो गया। एक भी बजने ही वाला था, तो राज ने टेबल लगा
दी। गरम गरम फुलके बना कर दोनो सहेलियाँ खाने बैठ गई। कल्पी ने स्वाद में खाना कुछ
ज़्यादा खा लिया। चेयर से उठती कल्पी बोली –
“कुछ अधिक
खा लिया राज, हाजमोला है
क्या ?”
राज ने शेल्फ़ की तरफ़ इशारा करते कहा –
“वो देख, हाजमोला की शीशी रखी
है, वहाँ से उठा ले। वरना थोड़ी देर में
आधा कप अदरक- इलायची की
चाय ले लेना।“
इसके बाद दोनो बैडरूम में आराम से पसर गई। राज ने जगजीत सिंह
की ग़ज़लों का सी.डी. लगा दिया। राज ने पास ही रखी सौंफ़ इलायची की काँच की प्लेट
कल्पी के आगे कर दी और ख़ुद भी दो इलायची मुँह में डालकर ईज़ी चेयर में अधलेटी हो गई। कल्पी
बिस्तर पे पसर गई। दोनों नेता, अभिनेता, संगीत और नई प्रकाशित किताबों पर ढेर सारी बातों से लेकर घर
परिवार की बातों पे आ गई। कल्पी निराशा भरे स्वर में बेहद उदासी के साथ बोली –
“राज, नरेन्द्र की मुम्बई
पोस्टिंग हो जाने से मैं बहुत परेशान हूँ। माँ - बाबू जी के कारण और बेटे का बी.एस-सी फ़ाइनल होने
के कारण मैं मुम्बई रह नहीं पा रही हूँ। नरेन्द्र के बिना घर बाहर के सारे काम
करने, सम्हालने में बड़ी दिक्कत महसूस होती
है। दूसरे मुम्बई में नरेन्द्र का ऑफ़िशियल घर इतना बड़ा और खुला नहीं है कि
हम सब आराम से रह सके। ख़ासतौर से माँ- बाबू जी तो
पूना का पुश्तैनी बड़ा घर छोड़ कर कहीं और रहना ही नहीं चाहते और हम उन्हें इस उम्र में अकेला छोड़ना नहीं
चाहते। नरेन्द्र की सेहत भी होटल का खाना खाकर ठीक नहीं चल रही। काश कि उसका पूना
तबादला हो पाता। लेकिन 3 साल से
पहले ट्रान्सफ़र के बारे में सोचना ही
बेकार है। वैसे भी नरेन्द्र एम.डी. की पोस्ट पे है और उसे मुम्बई की नई ब्रांच का काम ज़िम्मेदारी
से सम्भालना है, ब्रांच ठीक
से स्थापित करनी है।“
राज कल्पी के चेहरे
पे चढ़ती उतरती उदासी और चिन्ता को गौर से पढ़ रही थी। तभी वह कल्पी का हाथ अपने
हाथ में लेकर आश्वासन देती बोली –
“अरे इतनी
चिन्ता में मत घुल, ईश्वर ने
चाहा तो नरेन्द्र बहुत जल्द ही वापिस पूना आ जायेगा।“
“नहीं राज, ये तो एकदम असम्भव है। मैंने कारण बताया न । अभी तो एक साल ही
हुआ है। दो साल पूरे हो गए होते तो तब भी थोड़ी उम्मीद की जा सकती थी, पर अभी तो तबादला नामुमकिन है।“
राज कहीं दूर शून्य
में खोई बोली – “सब्र रख, सब्र, हो सकता है
कि वह अगले ही महीने पूना आ जाए... !”
कल्पी व्यंग्य से
तिरछी मुस्कान के साथ लम्बी साँस लेती बोली –
“उंह, अगले ही महीने पूना आ जाए... ! तू भी न, दिन में ख़्वाब देखना बंद कर, राज। अच्छा, 4 बजने वाला है अब मैं चलती हूँ। माँ - बाबू जी
भी राह देखते होगें।“
“चाय तो
पीती जा” – राज ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
“अरे, माई डियर, अभी खाना
हज़म नहीं हुआ, चाय की सच
में कोई गुंजाइश नहीं।“ यह कहते कहते कल्पी
ने अपना पर्स उठा लिया। राज उसे विदा करने
नीचे गई। कल्पी आदत की मारी राज के गले लग
गई और उसे घर जल्दी आने का स्नेह सिक्त निमन्त्रण देकर अपनी मारुति सुज़ुकी में बैठ
गई। राज तब तक खड़ी देखती रही जब तक उसकी कार आँखों से ओझल नहीं हो गई। सहेली से
विदा होने के अकेलेपन को साथ लिए वह अपने
फ़्लैट में लौटी। अपने लिए एक कप कॉफ़ी बनाई। कॉफ़ी पीकर अपने शेष काम को पूरा
करने में जुट गई। रात 9 बजे तक काम पूरा होने की खुशी में राज थकी होने पर भी, सुकून भरी स्फूर्ति से भरी हुई थी।
आज सोमवार था। राज कुछ
ज़रुरी
खरीदारी
करने भीड़ भरे
मार्केट में 'ईशान्या मॉल' पहुँची। शॉपिंग करके दोनों हाथों में कैरी बैग पकड़े, वह ऑटो खोज ही रही थी कि तभी पास एक कार इतनी तेजी से निकली
कि वह घबरा गई। उसने नज़र भर के उस के किशोर चालक को हैरत भरे गुस्से से देखा। उसके मन में बिजली की सी गति से विचार
कौंधा कि यह लड़का अभी के अभी ज़रूर अपनी
कार को और अपने को तहस नहस करेगा। हे ईश्वर, इसकी रक्षा कर ! यह विचार जिस
विद्युत गति से आया और गया, उसी गति से
वो 'नेनो’ चालक पास ही क्रॉसिंग पर रेड लाइट हो जाने
के कारण कार पे संतुलन खो देने से, ब्रेक
लगाते-लगाते भी अपने आगे धीमी होती ‘इनोवा’ से इस बुरी तरह
टकराया कि उसकी कार का अगला आधा हिस्सा विशालकाय ‘इनोवा’ के अन्दर घुस गया। देखते ही देखते भीड़ लग गई, ट्रैफ़िक
रुक गया, चौराहे पे
तैनात ट्रैफ़िक पुलिस तुरन्त दुर्घटना स्थल पर आ गई। लोगों की सहायता से पुलिस ने
सिर से ख़ून बहते उस किशोर को बड़ी कठिनाई से निकाला और उसे जीप में डाल कर
अस्पताल ले गई। उसकी जान बच गई थी, वह दर्द से
कहरा रहा था। ईश्वर की मेहरबानी
कि बेवकूफ़ी से रैश ड्राइविंग करते अंजाने में मरने को तैयार उस नौजवान की जान बच
गई थी। राज धड़कते दिल से, खौफ़ खाई
सी सब कुछ ऐसे देख रही थी, जैसे उसके
सामने घटना चक्र की रील चल रही हो – पहले उसके
दिलोदिमाग़ में घटना फ़्लैश होती है और फिर वैसा ही सच में घट जाता है...। वह भूली सी, मूर्तिवत, हाथों में कैरी बैग पकड़े खड़ी की खड़ी रह गई। तभी उसके सामने
खड़ा ऑटो का बारम्बार बजता हॉर्न उसे सोच
से बाहर लाया –“मैडम कब से
हॉर्न पे हॉर्न बजा रहा हूँ, किधर जाने
का ?”
राज सकपकायी सी ‘’हाँ हाँ चलो
कोरेगाँव पार्क चलो’’ ; बोली और
अपना सामान ऑटो में रख कर कुछ सहज सी हुई। पर उसके मन में हलचल मची हुई थी। घर
पहुँच कर, पसीने से
तर बतर, वह बाथरूम में घुस गई और सिर पे शॉवर
खोलकर, बहुत देर तक उसके नीचे निश्चेष्ट
खड़ी भीगती रही। अगर वो किशोर, किसी का बेटा, मर जाता
तो, हे ईश्वर क्या होता.....उसकी माँ, उसके पिता
तो अधमरे हो जाते। नहीं कभी दुश्मन के साथ भी हे ईश्वर ऐसा न करे....मेरे मन वह विचार आया ही क्यूँ और अगर आ भी गया था तो सच क्यूँ हो गया... क्यूँ क्यूँ क्यूँ.....????
शुक्रवार को अचानक कल्पी का फ़ोन आया। वह लगभग शोर मचाती सी बोली –
“अरे कहाँ है तू, कब से दस बार फ़ोन कर चुकी
हूँ, तू है कि उठाती ही नहीं है। मुझे तो
चिंता होने लगी थी कि तू सही सलामत तो है।“
“नहीं, वो क्या था कल्पी कि मैं फ़ोन वाइब्रेटर पर लगाकर काम में लगी थी, सो मुझे पता ही नहीं चला
तेरी कॉल का। सॉरी...चल बता
कैसे फ़ोन किया।“ - राज सफाई देती सी बोली I
कल्पी उधर से
खिलखिलाती बोली –
“ओ मेरी राज, तेरे मुँह में घी शक्कर....तू बड़ी धुरंधर भविष्यवक्ता है रे... तेरी अंजाने में कही हुई बात सच हो गई – पता है नरेन्द्र का ट्रांसफर पूना हो गया। वह अगले महीने
पूना की ईस्ट स्ट्रीट ब्रांच में ज्वाइन
करेगा। ये तो
चमत्कार से भी ज़्यादा बड़ा चमत्कार हो गया राज…..!”
सहसा ही राज के मुँह से निकला –
“नरेन्द्र
का ट्रांसफर पूना हो गया, मज़ाक तो
नहीं कर रही तू। तू तो कह रही थी कि ट्रांसफर किसी भी हाल में हो ही नहीं सकता, फिर कैसे हो गया कल्पी…?”
कल्पी उधर से ख़ुशी
के आवेग में चिहुँकी –
“एक राजश्री
नाम की पहुँची हुई भविष्यद्रष्टा ने कहा
था कि नरेन्द्र अगले ही महीने पूना आ
जाएगा... ! तो वह आ गया बस मुझे तो इतना पता है, इससे अधिक न मुझे पता और न मैं जानना चाहती हूँ।“
राज एक बार फिर आश्चर्य में डूबी थी, बेहद हैरान थी कि उसके मन में सहसा ही आए विचार सच कैसे होते
जाते है। जो हुआ, अच्छा हुआ, पर असम्भव बात कैसे घटी । ये घटनाएँ विकट प्रश्न बनती जा रही थीं राज के लिए। पहेली, नितान्त उलझी पहेली।
अगले दिन राज मानव मनोविज्ञान के प्रोफ़ैसर
डॉ. सब्बरवाल से समय लेकर मिलने गई। उसने
अपने साथ पिछले पाँच वर्ष से घट रही घटनाओं की विस्तार से
चर्चा की और कारण जानना चाहा कि ऐसा क्यों होता है कि कोई खास
विचार मन में आया और वह सच होने लगता है...!!?? साथ ही वह अपने दिमाग में कौंधने वाली दुर्घटना आदि के विचार के सच घटित हो जाने पर
स्वयं को दोषी मानती है और कई दिनों तक डिप्रेशन में रहती है।डॉ. सब्बरवाल ने बड़ी सहजता से अपने गुरू गम्भीर स्वर में राज को
समझाते हुए कहा –
‘‘परेशान
मत होइए। टेक इट वाइज़ली। नो स्ट्रैस प्लीज़
अदरवाइज़ इट विल इफ़ैक्ट यू एडवर्सली। कुछ व्यक्तियों की सुपरनैचुरल
फ़ैक्ल्टीज़ स्वत:
ही इतनी डैवॅलप्ड होती हैं, कि उन्हें जाने अंजाने घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। वे
जान कर कुछ नहीं सोचते, अचानक से विचार उनके मन में कौंधते हैं और वे कभी तुरंत, तो
कभी एक सप्ताह में, तो कभी महीने, दो महीने में सच में घट जाते हैं। मेरी राय में आप Larry Dossey की
पुस्तक Power of Premonitions पढ़िए। आपको अपने कई सवालों का जवाब उससे मिलेगा। Havard
University के प्रोफ़ैसर Peter Eli Gordon ने भी इस विषय में काफ़ी महत्वपूर्ण तथ्य
प्रस्तुत किए हैं। भारतीय दार्शनिक ‘पी.एन.
हक्सर’ ने भी ‘प्रिमोनीशन’ के बारे में बहुत कुछ लिखा है। इनके अलावा अमरीकन दार्शनिक Albert Balz,
Thomas Edison ने ‘प्रिमोनीशन’
को लेकर अपने बारीक निरीक्षणों का उल्लेख किया है।
'' लेकिन मेरे दिमाग में
अनजाने विचार आते ही क्यों है, सर
? क्या
ये एक इत्तेफ़ाक
है ?''
- राज
परेशान होती बोली।
प्रो सब्बरवाल उसे समझाते बोले
- '' ‘प्रिमोनीशन’ भावी
घटनाओं की पूर्व चेतावनी या
पूर्वाभास होता है, जो विचार, ख़्याल या सपने के रूप में आता है। ये ‘इत्तेफ़ाक’
नहीं होते, वरन
उनसे कहीं अधिक भविष्य में घटने वाली सच्ची घटनाएँ होती हैं।"
राज
ने फिर तर्क किया - ''पूर्वाभास क्यों होते हैं मि. सब्बरवाल
?
प्रो
सब्बरवाल राज को
धैर्य बंधाते
समझाने लगे - ''अधिकतर दार्शनिकों का मत है कि घटनाओं के
पूर्वाभास जीवन
बचाने के लिए होते हैं और यह बात भी सच है कि यदि हम कमज़ोर मनस इंसान से इस तरह के पूर्वाभासों
का ज़िक्र करते हैं तो वे
किसी की मौत
का
कारण भी बन सकते हैं। अनेक बार पूर्वाभास स्पष्ट नहीं होते और न उनकी
व्याख्या
की जा सकती है। 'प्रिमोनीशन’-
‘’एक्स्ट्रा सॅन्सरी परसॅप्शन्स’’
का वह रूप है जिसे हम ‘’इन्स्टिंक्ट’’ या भावी घटना का एक तीव्र आभास कह सकते हैं। ये एक तरह की ‘’इन्ट्यूटिव वॉर्निग’’
होती हैं जो अवचेतन मनस पे अंकित हो जाती हैं और कभी-कभी व्यक्ति को नियोजित
कार्यों को करने से मनोवैज्ञानिक तरह से रोकती हैं। इसे बहुत से चिन्तक विशिष्ट
घटनाओं की ‘भविष्यवाणी ‘
भी कहते हैं। साइंस इसके स्टेटस को अस्वीकार करता है। लेकिन दार्शनिकों का मानना
है कि प्रिमोनीशन और प्रौफॅसी को व्यर्थ
की चीज़ मानकर नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए। क्योंकि घटनाओं के पूर्वाभास की
जानकारी और उनका सही घटना - प्रमाणित करता है कि ‘’प्रिमोनीशन’’ में तथ्य है, इसकी अर्थवत्ता है । इस तरह से यह साइंस के लिए एक चेतावनी है क्योंकि यह सृष्टि
की गतिविधियों के साथ मानव मन के सघन संबंध का संकेत देती है। यह आन्तरिक शक्तियों
और सृष्टि में स्पन्दित अलौकिक शक्तियों एवं उसके चक्र के अन्तर्संबंध का विज्ञान
है।''
''सर, क्या औरों को भी ऐसे ‘’प्रिमोनीशन’’
हुए हैं ? या
यह मेरे साथ ही घट रहा है ?''
- राज चिंतित सी बोली.
''नहीं मैडम ऐसा नहीं है. कहा जाता है कि ‘नॉस्ट्रेडम’ ने अपनी मृत्यु की ‘’पूर्व घोषणा’’
कर दी थी। जुलाई 1, 1566 को जब एक पुरोहित उनसे मिलने आया और जाने लगा तो
नॉस्ट्रेडम ने उससे अपने बारे में कहा कि ‘वह
कल सूर्योदय होने तक मर चुका होगा।
इसी
तरह ‘एब्राहम लिंकन’ ने अपनी मौत का सपना देखा और अपनी पत्नी व अंगरक्षक को, अपने क़त्ल से कुछ घंटे पहले इस
बारे में बताया। ‘मार्क ट्वेन’ ने पहले से यह बता दिया था कि Halley’s Comet
उसकी मृत्यु के दिन दिखाई देगा जैसे कि यह वो दिन
था जिस दिन उसका जन्म हुआ था।
दुर्भाग्यग्रस्त ‘टाइटैनिक’ जहाज जो आइसबर्ग पे अटक जाने के कारण 1912 में समुद्र में विलीन हो गया था, कहा
जाता है कि उसके अनेक यात्रियों को जहाज
के अवरुध्द होकर
डूब जाने का पूर्वाभास काफ़ी समय पहले हो गया था। फिर भी अन्य लोगों ने व जहाज के
सुरक्षा दल ने कुछ यात्रियों के इस पूर्व संकेत की अवहेलना की। उसके बाद ‘टाइटैनिक’
के साथ जो घटा वह अपने में एक आँसू भरा इतिहास
है ।‘’
डॉ सब्बरवाल से बतचीत करके राज को
लगा कि पूर्वाभास कोई निरर्थक या हँसी में उड़ा देने वाली जानकारी
नहीं है। यह एक गहरे अध्ययन और शोध का विषय है। राज ने डॉ.सब्बरवाल के कहे अनुसार
पूर्वाभास से संबंधित किताबें पढ़ी और उसके सोच में एक ठहराव आया। उसने गहराई
से अपने पूर्वाभासों का अध्ययन शुरू किया। धीरे-धीरे कुछ समय बाद उसे लगा कि वह एक
शान्त, निस्पन्द
पथ पर बढ़ रही है। उसके मन पहले की तरह तनाव, चिन्ता और अवसाद नहीं था, वरन् पूर्वाभास को
सहजता से लेने का साहस और मनोबल विकसित हो
रहा था। साथ ही उसने ईश्वर प्रदत्त अपनी इस शक्ति से दूसरों की मदद करने
की ठानी ।
मई की उमस भरी दोपहरी थी. राज पढते
पढते सो गई थी । दो
बजे के लगभग वह चौंक कर उठी ।
अभी अभी ताज़ा देखा सपना उसकी आँखों
में
रह - रह कर लहरा रहा था, उसके दिलोदिमाग पे
हावी था ।
वह तुरंत अपने पडौसी नैयर परिवार को वह सब
बताने को आकुल हो उठी थी, जो उसने उनके बारे
में स्वप्न में देखा
था
। लेकिन इतनी दुपहरी में उसने जाना ठीक
नहीं
समझा और वह बेसब्री से शाम होने
का इंतज़ार करने लगी । ख्यालों में
सपने पर तर्क-वितर्क
करती वह
बाथरूम में गई और मुँह पर खूब ठन्डे पानी के छींटें
मारे । फ्रिज से आरेंज जूस निकाला और थोड़ा सा गिलास में डालकर कमरे आ गई । पाँच बजते ही वह झटपट मिसेज़ नैयर के घर
गई
। एक लंबे समय
के
बाद
उसे देख कर मिसेज़ नैयर उसका स्वागत करती
बोली –
‘आओ राज, बड़े दिनों बाद आई हो । कैसी हो?'
राज
उखडी सी बोली – ‘ठीक हूँ. आप से कुछ ज़रूरी बात
करनी थी ।’
यह
सुन कर मिसेज़ नैयर कुछ हैरत से भरी पूछने लगी – ‘सब ठीक ठाक तो है न
?’
राज ने कोई भी भूमिका न बांधते हुए सीधे अपने सपने के सन्दर्भ में उनसे कहा – ‘देखिए
भाभी जी, आप नैयर भाई साहब को तेरह
जून
को
नीले रंग की
कार
से कहीं मत जाने दीजिएगा ।
मिसेज़
नैयर अविश्वास से भरी, कुछ - कुछ राज की
बात पे भरोसा करती बोली –
‘’
ठीक है, नहीं जाने दूंगी, पर ऎसी क्या बात
है जो तुम उन्हें रोकना चाहती हो....!
राज ने कहा– ‘वो मैं तेरह जून को ही बताना
चाहूंगी।’और कुछ देर बैठ कर वापिस आ गई ।
तेरह
जून रात आठ बजे,
राज के पास मिसेज़ नैयर का फोन आया कि – ‘’राज,
मैं तुम्हारा किन शब्दों में शुक्रिया
दूं.....राज, सच में तुमने इनकी जान बचा ली ।
आज सुबह नैयर साहब अपने एक दोस्त के साथ गोवा का लिए निकलने वाले थे ।
मुझे तुम्हारी बात
ध्यान थी, सो मैंने इनसे पूछा कि कैसे जा रहे हो ? तो ये बोले - कपिल शर्मा की ‘कार
से !’
फिर
मैंने कार का रंग जानना चाहा तो , ये मेरी मजाक बनाते बोले कि अब तुम उसकी ‘शेप’,
उसकी ‘मेक’ और नंबर भी पूछोगी, क्यों.....क्या मुझ पर किसी
तरह का शक है तुम्हें ??
मैं
उनकी बातों को उडाती हुई अपने सवाल पे अडी
रही तो, वे मुस्कुराते बोले – ‘’नीले रंग की कार है ।’’तो
ये फिर बोले – ‘भई अब तो बताओ कि तुम ये सब क्यों जानना चाहती हो ??’
मेरा
दिल तो अनजानी आंशका से भर गया।
मैं इनके ‘न जाने के’ पीछे पड़ गई।
ये बड़े नाराज़ हुए। इतना कि गुस्से में खाना तक नहीं खाया दोपहर का।
तभी चार बजे इनके एक जाननेवाले ने फोन करके बताया कि जिस कार से ये गोवा जाने वाले थे, वह बीच रास्ते में ट्रक से टकरा
जाने के कारण, बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और शर्मा जी की हालत गंभीर है। यह सुनते ही इनका सारा गुस्सा फना हो गया और फ़ोन रख के ये तुरंत
मेरे पास आकर बोले– 'थैंक्यू! आज तो सच में, तुमने मेरी जान बचा ली। मैं
यूं ही गुस्से में भरा बैठा, तुम्हें कोस रहा था। तब मैंने इन्हें तुम्हारे बारे
में बताया। ये कह रहे है कि क्या तुम भविष्य वक्ता हो...?? क्या हम अभी
तुमसे मिलने, तुम्हें दिली शुक्रिया देने आ सकते हैं क्योकि फिर इन्हें अपने मित्र
शर्मा को देखने अस्पताल जाना है ।
राज
अपने पडौसी परिवार को एक भयावह दुःख की
छाया से बचा ले गई थी और मन में बेशुमार सुकून महसूस कर रही थी। साथ ही, सम्भवत:
यह उसके सुख और चैन से भरे आगामी जीवन का
मार्ग था जो उसे प्रो सब्बरवाल ने दिखाया था। क्योंकि अब वह अपने पूर्वाभासों से बेचैन न होकर, उनके
माध्यम से दूसरों की मदद कर, अंदर होनेवाली स्वच्छ तरल अनुभूति को सदा के लिए
सहेज लेना चाहती थी।
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