रम्य रचना:
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
ललित वालिया 'आतिश '
*
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
परिस्तानी बगुले से,
लेखनी पे नाच-नाच;
पांख-पांख नभ कुलांच ...
मेरी दहलीज़, कभी ...
तेरी खुली खिडकियों पे
ठहर-ठहर जाते हैं
लहर-लहर जाते हैं ...
शहर कहीं जागता है, शहर कहीं सोता है
और कहीं हिचकियों का जुगल बंद होता है ||
'भैरवी' से स्वर उचार ...
बगुले से शब्द-पंख
पन्नों पे थिरकते से
सिमट सिमट जाते हैं
कल्पनाओं से मेरी...
लिपट लिपट जाते हैं |
गो'धूली बेला में ...
शब्द सिमट जाते हैं ...
सिंदूरी थाल कहीं झील-झील डुबकते हैं ..
और कहीं मोम-दीप बूँद-बूँद सुबकते हैं ||
होठों के बीच दबा
लेखनी की नोक तले
मीठा सा अहसास
शब्द यही तेरा है |
अंगुली के पोरों पे
आन जो बिरजा है,
बगुले सा 'मधुमास' ...
आभास तेरा है |
मीत कहो, प्रीत कहो, शब्द प्राण छलते हैं
लौ कहीं मचलती है, दीप कहीं जलते हैं ||
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