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गुरुवार, 10 जून 2021

भारत में उर्दू

विशेष लेख-
भारत में उर्दू :
संजीव 'सलिल'
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भारत विभिन्न भाषाओँ / बोलिओं का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है। मुग़ल फौजों द्वारा भारत पर विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों को कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें। यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही विद्वान नहीं लड़ाके थे, वे शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोला। उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा। इस तरह लश्करों (सैन्य शिविरों) में विदेशी जुबानों और सीमान्त प्रदेशों की भाषाओँ की खिचड़ी पकी जिसे लश्करी कहा गया। लश्करी से रेख़्ता का विकास हुआ। क्रमश: मुग़ल सत्ता स्थाई होने पर दैनंदिन जीवन और बाजार की जरूरतों के मुताबिक रोजमर्रा के शब्दों को मिलकर जो भाषा प्रचलित हुई उसे उर्दू (तुर्की में उर्दू का अर्थ बाजार है) अर्थात बाजार की भाषा (बाजारू भाषा) कहा गया। मुगल शासक और सेनापति खुद अरबी-फारसी के विद्वान नहीं थे, भारतीय भाषा वे अपना नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने उर्दू को सरकारी काम-काज की भाषा बना दिया। फलत:, राज कृपा पाने के आकांक्षी जन उर्दू सीखने, लिखने और पढ़ने लगे। स्पष्ट है कि उर्दू भारत में जन्मी, पूरी तरह भारतीय भाषा है जी कई भाषाओँ के शब्दों के सम्मिश्रण से बनी है। इसीलिए उर्दू की अपनी वर्णमाला, व्याकरण, लिपि या शब्द कोष नहीं है, न हो सकता है। वह आरंभ में अरबी-फारसी वर्णमाला, व्याकरण और पिंगल अपनाती रही किन्तु शब्द मिले-जुले उपयोग किए जाते रहे। भारत में पैदा मुग़ल बच्चों के बाद क्रमश: अरबी-फारसी प्रभाव घटता गया, और भारतीय भाषाओँ का असर उर्दू पर बढ़ता गया। खुसरो से लेकर बशीर अहमद 'मयूख' और गुलज़ार तक बदलती उर्दू में यह साफ-साफ़ देखा जा सकता है। उर्दू के तीन रूपों देहलवी, लखनवी और हैदराबादी में स्थानीय भारतीय भाषाओँ का असर ही अंतर का कारक है। निर्विवाद है कि उर्दू भारत का अपना भाषा रूप है, लिपि का फर्क न रहे तो उर्दू हिंदी का ही एक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी उच्चार के अनुसार बोला और लिखा जाता है। उच्चार का यह अंतर देश के हर अंचल में है किन्तु कहीं भी उच्चार के अंतर से भाषा का नाम नहीं बदलता।

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है। न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है। याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया है, न किया जाने की संभावना है। भारत में जिस तरह अंग्रेजी प्रेमी अफसरशाही और नेता हिंदी को राष्ट्रीय भाषा नहीं बनने देना चाहते वैसे पाकिस्तान में उर्दू को वहाँ की अंग्रेजी प्रेमी अफसरशाही और नेता उर्दू को राष्ट्रीय भाषा नहीं बनने देना चाहते।

हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए। वासन ने उर्दू को अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप माना तथा कहा कि उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को। उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है। '' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती। हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं। वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है। भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं। फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है। किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है। इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी। उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है। व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि प्रचार माध्यम तथा प्रशासन न चाहें।

उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है। ८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी। अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं। यहाँ तक कि केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं। मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल में मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं। यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है। आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था। मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा। जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था।उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में मिला। उर्दू संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई। उर्दू को अपना चुके कायस्थ जनों को उर्दू प्रभाव घटने के कारण नौकरियाँ और प्रतिष्ठा गँवानी पड़ीं।

उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं। फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया।कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में बाहर के अनुकूल नहीं पाया। फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा -अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गए। और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, मकान के स्थान पर मकां आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गए। मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया। साहित्य में उर्दू के दो रूप प्रचलन में हैं एक में पारंपरिक अरबी-फारसी व्याकरण का अंधानुकरण है, दूसरी में हिंदी व्याकरण को अपनाकर समय के साथ बदलने का प्रयास।

हिंदी ने निरंतर सृजन, अनुवाद, भाषांतरण, नव शब्द सृजन आदि द्वारा अपना इतना विकास किया है कि अब वह विश्व की समुन्नत और सशक्त भाषा बन गई है। आज हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषाओँ में से एक है। वास्तव में हिंदी विश्ववाणी बन चुकी है जबकि उर्दू सिमटती जा रही है। भाषाविदों के अनुसार चित्रात्मक लिपि वाली भाषाएँ तथा दाएँ से बाएँ लिखी जा रही भाषाएँ लुप्त होने का खतरा झेल रही हैं। हिंदी इस खतरे से मुक्त है।

स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई। फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ। मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से फारसी में लिखा वे आज किसे याद हैं?, जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया। ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ। दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गई जो सफल भी हुई।

उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गए और मुँह की खाई। हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका। उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया। उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आए। वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे। आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाए ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है।

भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है। भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया। भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गए उर्दू मदरसों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की समुचित उन्नत व्यवस्था बहुत कम है।

बांग्ला देश ने उर्दू के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है। अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है। क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते। अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं। उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है।

भारत में जन्म लेने औरपोसी जाने के बाद भी उर्दू अवधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाए जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है। वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी। आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गए हैं। उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किए गए शब्द ही समझ में नहीं आए, काल बाह्य हो चुके हैं।

तकनीकी कामों में रोजगार पाए नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिए पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है। दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है। इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं, विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्या हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी। वे बच्चों को भारतीयता से जोड़े रखना चाहते हैं। भोजपुरी पति की तमिल पत्नि भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नि की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते। एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है। अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है।

हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जाएँगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे। उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा।
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