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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

दुर्गा कवच सानुवाद

।।ओम् नमश्चण्डिकायै ।।
http://shobhasinha.blogspot.com/2015/10/durga-kavach-hindi-translation.html
मार्कण्डेय उवाच:

ओम् यद् गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं   नृणाम्   ।
यन्न    कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि   पितामह ! ।।१ ।।।

मार्कण्डेय जी ने कहा है ---हे पितामह! जो साधन संसार में अत्यन्त गोपनीय है, जिनसे मनुष्य मात्र की रक्षा होती है, वह साधन मुझे बताइए ।
           ब्रह्मोवाच:

अस्ति गुह्यतमं विप्र ! सर्व-  भूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व   महामुने ।।२ ।।

ब्रह्मा जी ने कहा --हे ब्राह्मन!  सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करने वाला देवों का कवच ( रक्षा कवच ) यह स्तोत्र है,इनके पाठ करने से साधक सदैव सुरक्षित रहता  है, अत्यन्त गोपनीय है, हे महामुने! उसे सुनिए ।

प्रथमं  शैलपुत्री च , द्वितीयं  ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्दघण्टेति ,  कूष्माण्डेति  चतुर्थकम् ।।३ ।।

हे मुने ! दुर्गा माँ की नव शक्तियाँ हैं-----पहली शक्ति का नाम शैलपुत्री ( हिमालय कन्या पार्वती ) , दूसरी शक्ति का नाम ब्रह्मचारिणी (परब्रह्म परमात्मा को साक्षात कराने वाली ) , तीसरी शक्ति चन्द्रघण्टा हैं। चौथी शक्ति कूष्माण्डा ( सारा संसार जिनके उदर में निवास करता हो ) हैं।

पंचमं  स्कन्दमातेति , षष्ठं कात्यायनीति  च ।
सप्तमं   कालरात्रीति , महागौरीति  चाष्टमम् ।। ४ ।।

पाँचवीं शक्ति स्कन्दमाता ( कार्तिकेय की जननी ) हैं।छठी शक्ति कात्यायनी (महर्षि कात्यायन के अप्रतिभ तेज से उत्पन्न होने वाली) हैं सातवीं शक्ति कालरात्रि ( महाकाली ) तथा आठवीं शक्ति महागौरी हैं।

नवमं  सिद्धिदात्री , च  नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि  नामानि , ब्रह्मणैव महात्मना ।।५ ।।

नवीं शक्ति सिद्धिदात्री हैं और ये नव दुर्गा कही गई हैं।

अग्निना दह्यमानस्तु , शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव , भयार्ता: शरणं गता: ।।६ ।।

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, युद्ध भूमि मे शत्रुओं से घिर गया हो तथा अत्यन्त कठिन विपत्ति में फँस गया हो, वह यदि भगवती दुर्गा की शरण का सहारा ले ले ।

न तेषां जायते , किंचिदशुभं रणसंकटे ।
नापदं तस्य पश्यामि , शोक-दु:ख भयं न हि ।।७ ।।

तो इसका कभी युद्ध या संकट में कोई कुछ विगाड़ नहीं सकता , उसे कोई विपत्ति घेर नहीं सकती न उसे शोक , दु:ख तथा भय की प्राप्ति ही हो सकती है।

यैस्तु भक्तया स्मृता नूनं , तेषां वृद्धि : प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि ! , रक्षसे तान्न  संशय: ।।८ ।।

जो लोग भक्तिपूर्वक भगवती का स्मरण करते हैं , उनका अभ्युदय होता रहता है। हे भगवती ! जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं , निश्चय ही तुम उनकी रक्षा करती हो।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा , वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा , वैष्णवी  गरूड़ासना   ।।९ ।।

चण्ड -मुण्ड का विनाश करने वाली देवी चामुण्डा प्रेत के वाहन पर निवास करती हैं ,वाराही महिष के आसन पर रहती हैं , ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है, वैष्नवी का वाहन गरुड़  है।

माहेश्वरी  वृषारूढ़ा ,  कौमारी शिखिवाहना  ।
लक्ष्मी:  पद्मासना देवी , पद्महस्ता  हरिप्रिया ।।१० ।।

माहेश्वरी बैल के वाहन पर तथा कौमारी मोर के आसन पर विराजमान हैं। श्री विष्णुपत्नी भगवती लक्ष्मी  के हाथों में कमल है तथा वे कमल के आसन पर निवास करती हैं।

श्वेतरूपधरा   देवी , ईश्वरी   वृषवाहना  ।
ब्राह्मी   हंससमारूढ़ा , सर्वाभरण भूषिता ।।११।।

श्वेतवर्ण वाली ईश्वरी वृष-बैल पर सवार हैं , भगवती ब्राह्मणी ( सरस्वती ) सम्पूर्ण आभूषणों से युक्त हैं तथा वे हंस पर विराजमान रहती हैं।

इत्येता  मातर:  सर्वा: , सर्वयोग समन्विता ।
नाना भरण शोभाढ्या ,नानारत्नोपशोभिता: ।।१२ ।।

अनेक आभूषण तथा रत्नों से देदीप्यमान उपर्युक्त सभी देवियाँ सभी योग शक्तियों से युक्त हैं।

दृश्यन्ते  रथमारूढ़ा , देव्य:  क्रोधसमाकुला: ।
शंख  चक्र  गदां शक्तिं, हलं च मूसलायुधम् ।।१३ ।।

इनके अतिरिक्त और भी देवियाँ हैं, जो दैत्यों के विनाश के लिए तथा भक्तों की रक्षा के लिए क्रोधयुक्त रथ में सवार हैं तथा उनके हाथों में शंख ,चक्र ,गदा ,शक्ति, हल, मूसल हैं।

खेटकं  तोमरं  चैव , परशुं  पाशमेव  च  ।
कुन्तायुधं  त्रिशूलं  च ,  शार्ड़गमायुधमुत्तमम्।।१४।।

खेटक, तोमर, परशु , (फरसा) , पाश , भाला, त्रिशूल तथा उत्तम शार्ड़ग धनुष आदि अस्त्र -शस्त्र हैं।

दैत्यानां  देहनाशाय , भक्तानामभयाय  च ।
धारन्तया  युधानीत्थ , देवानां च हिताय वै ।।१५ ।।

जिनसे देवताओं की रक्षा होती है तथा देवी जिन्हें दैत्यों को नाश तथा भक्तों के मन से भय नाश करने के लिए धारण करती हैं।

नमस्तेस्तु  महारौद्रे  , महाघोर  पराक्रमें ।
महाबले  महोत्साहे ,  महाभयविनाशिनि ।।१६ ।।

महाभय का विनाश करने वाली , महान बल, महाघोर क्रम तथा महान उत्साह से सुसम्पन्न हे महारौद्रे तुम्हें नमस्कार है।

त्राही मां देवि ! दुष्प्रेक्ष्ये , शत्रूणां भयवद्धिनि ।
प्राच्यां  रक्षतु  मामेन्द्री , आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७ ।।

हे शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली देवी ! तुम मेरी रक्षा करो। दुर्घर्ष तेज के कारण मैं तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकता । ऐन्द्री शक्ति पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें तथा अग्नि देवता की आग्नेयी शक्ति अग्निकोण में हमारी रक्षा करें।

दक्षिणेअवतु  वाराही , नैरित्वां  खडगधारिणी ।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्- , वायव्यां  मृगवाहिनी ।।१८ ।।

वाराही शक्ति दक्षिन दिशा में, खडगधारिणी नैरित्य कोण में, वारुणी शक्ति पश्चिम दिशा में तथा मृग के ऊपर सवार रहने वाली शक्ति वायव्य कोण में हमारी रक्षा करें।

उदीच्यां पातु कौमारी , ईशान्यां  शूलधारिणी ।
उर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद , धस्ताद्  वैष्नवी तथा ।।१९ ।।

भगवान कार्तिकेय की शक्ति कौमारी उत्तर दिशा में , शूल धारण करने वाली ईश्वरी शक्तिईशान कोण में ब्रह्माणी ऊपर तथा वैष्नवी शक्ति नीचे हमारी रक्षा करें।

एवं दश दिशो रक्षे , चामुण्डा  शववाहना ।
जया मे चाग्रत: पातु , विजया पातु पृष्ठत: ।।२० ।।

इसी प्रकार शव के ऊपर विराजमान चामुण्डा देवी दसों दिशा में हमारी रक्षा करें।आगे जया ,पीछे विजया हमारी रक्षा करें।

अजिता वामपाश्वे तु , दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षे, दुमा मूर्घिन व्यवस्थिता ।।२१ ।।

बायें भाग में अजिता, दाहिने हाथ में अपराजिता, शिखा में उद्योतिनी तथा शिर में उमा हमारी रक्षा करें।

मालाधरी ललाटे च , भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा  च  भ्रूवोर्मध्ये , यमघण्टा च नासिके ।।२२ ।।

ललाट में मालाधरी , दोनों भौं में यशस्विनी ,भौं के मध्य में त्रिनेत्रा तथा नासिका में यमघण्टा हमारी रक्षा करें।

शंखिनी  चक्षुषोर्मध्ये , श्रोत्रयोर्द्वार   वासिनी ।
कपोलो कालिका रक्षेत् , कर्णमूले  तु  शांकरी ।।२३ ।।ल

दोनों नेत्रों के बीच में शंखिनी , दोनों कानों के बीच में द्वारवासिनी , कपाल में कालिका , कर्ण के मूल भाग में शांकरी हमारी रक्षा करें।

नासिकायां सुगंधा  च , उत्तरोष्ठे  च  चर्चिका ।
अधरे   चामृतकला , जिह्वायां  च  सरस्वती ।।२४ ।।

नासिका के बीच का भाग सुगन्धा , ओष्ठ में चर्चिका , अधर में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती हमारी रक्षा करें।

दन्तान् रक्षतु कौमारी , कण्ठ देशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघंटा च , महामाया च तालुके ।।२५ ।।

कौमारी दाँतों की , चंडिका कण्ठ-प्रदेश की , चित्रघंटा गले की तथा महामाया तालु की रक्षा करें।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् , वाचं  मे  सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली  च ,  पृष्ठवंशे  धनुर्धरी   ।।२६ ।।

कामाक्षी ठोढ़ी की , सर्वमंगला वाणी की , भद्रकाली ग्रीवा की तथा धनुष को धारण करने वाली रीढ़ प्रदेश की रक्षा करें।

नीलग्रीवा  बहि:कण्ठे  ,  नलिकां  नलकूबरी  ।
स्कन्धयो:  खंगिनी  रक्षेद् ,  बाहू मे वज्रधारिनी ।।२७ ।।

कण्ठ से बाहर नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी , दोनों कन्धों की खंगिनी तथा वज्र को धारण करने वाली दोनों बाहु की रक्षा करें।

हस्तयोर्दण्डिनी  रक्षे - ,  दम्बिका चांगुलीषु च ।
नखाच्छुलेश्वरी  रक्षेत् ,  कुक्षौ रक्षेत्  कुलेश्वरी ।।२८ ।।

दोनों हाथों में दण्ड को धारण करने वाली तथा अम्बिका अंगुलियों में हमारी रक्षा करें । शूलेश्वरी नखों की तथा कुलेश्वरी कुक्षिप्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।

स्तनौ  रक्षेन्महादेवी , मन:शोक   विनाशिनी ।
हृदये  ललिता  देवी ,  उदरे  शूलधारिणी  ।।२९ ।।

महादेवी दोनों स्तन की , शोक को नाश करने वाली मन की रक्षा करें । ललिता देवी हृदय में तथा शूलधारिणी उत्तर प्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् ,  गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना  कामिका  मेद्रं ,  गुदे  महिषवाहिनी  ।।३० ।।

नाभि में कामिनी तथा गुह्य भाग में गुह्येश्वरी हमारी रक्षा करें। कामिका तथा पूतना लिंग की तथा महिषवाहिनी गुदा में हमारी रक्षा करें।

कट्यां   भगवती  ,  रक्षेज्जानुनि   विन्ध्यवासिनी ।
जंघे   महाबला रक्षेद् ,   सर्वकामप्रदायिनी     ।।३१ ।।

भगवती कटि प्रदेश में तथा विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली  महाबला जांघों की रक्षा करें।

गुल्फयोर्नारसिंही  च  , पादपृष्ठे तु  तैजसी ।
पादाड़्गुलीषु  श्री रक्षेत् , पादाधस्तलवासिनी ।।३२ ।।

नारसिंही दोनों पैर के घुटनों की , तेजसी देवी दोनों पैर के पिछले भाग की, श्रीदेवी पैर की अंगुलियों की तथा तलवासिनी पैर के निचले भाग की रक्षा करें।

नखान्  दंष्ट्राकराली  च , केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी  ।
रोमकूपेषु  कौनेरी  ,       त्वचं वागीश्वरी तथा ।।३३ ।।

दंष्ट्राकराली नखों की , उर्ध्वकेशिनी देवी केशों की , कौवेरी रोमावली के छिद्रों में तथा वागीश्वरी हमारी त्वचा की रक्षा करें।

रक्त-मज्जा - वसा -मांसा , न्यस्थि- मेदांसि  पार्वती ।
अन्त्राणि  कालरात्रिश्च , पित्तं च मुकुटेश्वरी  ।।३४ ।।

पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस , हड्डी और मेदे की रक्षा करें । कालरात्रि आँतों की तथा मुकुटेश्वरी पित्त की रक्षा करें ।

पद्मावती   पद्मकोशे , कफे  चूड़ामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी  नखज्वाला , मभेद्या  सर्वसन्धिषु ।।३५ ।।

पद्मावती सहस्र दल कमल में , चूड़ामणि कफ में , ज्वालामुखी नखराशि में उत्पन्न तेज की तथा अभेद्या सभी सन्धियों में हमारी रक्षा करें।

शुक्रं  ब्रह्माणिमे  रक्षे , च्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं ,   रक्षेन् मे धर्मधारिणी  ।।३६ ।।

ब्रह्माणि शुक्र की , छत्रेश्वरी छाया की , धर्म को धारण करने वाली , हमारे अहंकार , मन तथा बुद्धि की रक्षा करें।

प्राणापानौ    तथा , व्यानमुदान च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेद , प्राणंकल्याणं शोभना ।।३७ ।।

वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान तथा समान वायु की , कल्याण से सुशोभित होने वाली कल्याणशोभना ,हमारे प्राणों की रक्षा करें।

रसे रूपे गन्धे च , शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं   रजस्तमश्चचैव , रक्षेन्नारायणी सदा ।।३८ ।।

रस , रूप , गन्ध , शब्द तथा स्पर्श रूप विषयों का अनुभव करते समय योगिनी तथा हमारे सत्व , रज , एवं तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें ।

आयु रक्षतु वाराही , धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यश: कीर्ति च लक्ष्मी च , धनं विद्यां च चक्रिणी ।।३९ ।।

वाराही आयु की , वैष्णवी धर्म की , चक्रिणी यश और कीर्ति की , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करें।

गोत्रमिन्द्राणि  मे  रक्षेत् , पशुन्मे  रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान्  रक्षेन्महालक्ष्मी ,    भार्यां रक्ष्तु  भैरवी ।।४० ।।

हे इन्द्राणी , तुम मेरे कुल की तथा हे चण्डिके , तुम हमारे पशुओं की रक्षा करो ।हे महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की तथा भैरवी देवी हमारी स्त्री की रक्षा करें।

पन्थानं  सुपथा  रक्षेन्मार्गं , क्षेमकरी    तथा ।
राजद्वारे   महालक्ष्मी , र्विजया  सर्वत: स्थिता ।।४१ ।।

सुपथा हमारे पथ की , क्षेमकरी ( कल्याण करने वाली ) मार्ग की रक्षा करें। राजद्वार पर महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया भयों से हमारी रक्षा करें।

रक्षाहीनं  तु  यत्  स्थानं , वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं  रक्ष मे  देवी !  जयन्ती  पापनाशिनी ।।४२ ।।

हे देवी ! इस कवच में जिस स्थान की रक्षा नहीं कही गई है उस अरक्षित स्थान में पाप को नाश करने वाली , जयन्ती देवी ! हमारी रक्षा करें।

पदमेकं   न   गच्छेतु , यदीच्छेच्छुभमात्मन:   ।
कवचेनावृतो   नित्यं  ,  यत्र  यत्रैव  गच्छति  ।।४३ ।।

यदि मनुष्य  अपना कल्याण चाहे तो वह कवच के पाठ के बिना एक पग भी कहीं यात्रा न करे । क्योंकि कवच का पाठ करके चलने वाला मनुष्य जिस-जिस स्थान पर जाता है।

तत्र   तत्रार्थलाभश्च ,  विजय:  सार्वकामिक: ।
यं यं चिन्तयते  कामं तं तं , प्राप्नोति  निश्चितम ।।४४ ।।

उसे वहाँ- वहाँ धन का लाभ होता है और कामनाओं को सिद्ध करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह पुरुष जिस जिस अभीष्ट वस्तु को चाहता है वह वस्तु उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।

परमैश्वर्यमतुलं  प्राप्स्यते , भूतले पूमान ।
 निर्भयो  जायते मर्त्य: , सड़्ग्रामेष्वपराजित: ।। ४५ ।।

कवच का पाठ करने वाला इस पृथ्वी पर अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वह किसी से नहीं डरता और युद्ध में उसे कोई हरा भी नहीं सकता ।

रोमकूपेषु  कौनेरी  ,       त्वचं वागीश्वरी तथा ।।३३ ।।

दंष्ट्राकराली नखों की , उर्ध्वकेशिनी देवी केशों की , कौवेरी रोमावली के छिद्रों में तथा वागीश्वरी हमारी त्वचा की रक्षा करें।

रक्त-मज्जा - वसा -मांसा , न्यस्थि- मेदांसि  पार्वती ।
अन्त्राणि  कालरात्रिश्च , पित्तं च मुकुटेश्वरी  ।।३४ ।।

पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस , हड्डी और मेदे की रक्षा करें । कालरात्रि आँतों की तथा मुकुटेश्वरी पित्त की रक्षा करें ।

पद्मावती   पद्मकोशे , कफे  चूड़ामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी  नखज्वाला , मभेद्या  सर्वसन्धिषु ।।३५ ।।

पद्मावती सहस्र दल कमल में , चूड़ामणि कफ में , ज्वालामुखी नखराशि में उत्पन्न तेज की तथा अभेद्या सभी सन्धियों में हमारी रक्षा करें।

शुक्रं  ब्रह्माणिमे  रक्षे , च्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं ,   रक्षेन् मे धर्मधारिणी  ।।३६ ।।

ब्रह्माणि शुक्र की , छत्रेश्वरी छाया की , धर्म को धारण करने वाली , हमारे अहंकार , मन तथा बुद्धि की रक्षा करें।

प्राणापानौ    तथा , व्यानमुदान च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेद , प्राणंकल्याणं शोभना ।।३७ ।।

वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान तथा समान वायु की , कल्याण से सुशोभित होने वाली कल्याणशोभना ,हमारे प्राणों की रक्षा करें।

रसे रूपे गन्धे च , शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं   रजस्तमश्चचैव , रक्षेन्नारायणी सदा ।।३८ ।।

रस , रूप , गन्ध , शब्द तथा स्पर्श रूप विषयों का अनुभव करते समय योगिनी तथा हमारे सत्व , रज , एवं तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें ।

आयु रक्षतु वाराही , धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यश: कीर्ति च लक्ष्मी च , धनं विद्यां च चक्रिणी ।।३९ ।।

वाराही आयु की , वैष्णवी धर्म की , चक्रिणी यश और कीर्ति की , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करें।

गोत्रमिन्द्राणि  मे  रक्षेत् , पशुन्मे  रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान्  रक्षेन्महालक्ष्मी ,    भार्यां रक्ष्तु  भैरवी ।।४० ।।

हे इन्द्राणी , तुम मेरे कुल की तथा हे चण्डिके , तुम हमारे पशुओं की रक्षा करो ।हे महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की तथा भैरवी देवी हमारी स्त्री की रक्षा करें।

पन्थानं  सुपथा  रक्षेन्मार्गं , क्षेमकरी    तथा ।
राजद्वारे   महालक्ष्मी , र्विजया  सर्वत: स्थिता ।।४१ ।।

सुपथा हमारे पथ की , क्षेमकरी ( कल्याण करने वाली ) मार्ग की रक्षा करें। राजद्वार पर महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया भयों से हमारी रक्षा करें।

रक्षाहीनं  तु  यत्  स्थानं , वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं  रक्ष मे  देवी !  जयन्ती  पापनाशिनी ।।४२ ।।

हे देवी ! इस कवच में जिस स्थान की रक्षा नहीं कही गई है उस अरक्षित स्थान में पाप को नाश करने वाली , जयन्ती देवी ! हमारी रक्षा करें।

पदमेकं   न   गच्छेतु , यदीच्छेच्छुभमात्मन:   ।
कवचेनावृतो   नित्यं  ,  यत्र  यत्रैव  गच्छति  ।।४३ ।।

यदि मनुष्य  अपना कल्याण चाहे तो वह कवच के पाठ के बिना एक पग भी कहीं यात्रा न करे । क्योंकि कवच का पाठ करके चलने वाला मनुष्य जिस-जिस स्थान पर जाता है।

तत्र   तत्रार्थलाभश्च ,  विजय:  सार्वकामिक: ।
यं यं चिन्तयते  कामं तं तं , प्राप्नोति  निश्चितम ।।४४ ।।

उसे वहाँ- वहाँ धन का लाभ होता है और कामनाओं को सिद्ध करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह पुरुष जिस जिस अभीष्ट वस्तु को चाहता है वह वस्तु उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।

परमैश्वर्यमतुलं  प्राप्स्यते , भूतले पूमान ।
 निर्भयो  जायते मर्त्य: , सड़्ग्रामेष्वपराजित: ।। ४५ ।।

कवच का पाठ करने वाला इस पृथ्वी पर अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वह किसी से नहीं डरता और युद्ध में उसे कोई हरा भी नहीं सकता ।

त्रैलोक्ये तु भवेत् पूज्य: , कवचेनावृत:  पुमान् ।
इदं तु देव्या:  कवचं ,  देवानामपि   दुर्लभम्  ।।४६ ।।

तीनों लोकों में उसकी पूजा होती है।यह देवी का कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।

य: पठेत् प्रयतो नित्य , त्रिसंध्यं  श्रद्धयान्वित: ।
दैवीकला    भवेत्तस्य ,  त्रैलोक्येष्वपराजित: ।। ४७ ।।

जो लोग तीनों संध्या में श्रद्धापूर्वक इस कवच का पाठ करते हैं उन्हें देवी कला की प्राप्ति होती है। तीनों लोकों में उन्हें कोई जीत नहीं सकता ।

जीवेद  वर्षशतं , साग्रम  पमृत्युविवर्जित: ।
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे , लूता  विस्फोटकादय: ।।४८ ।।

उस पुरुष की अपमृत्यु नहीं होती । वह सौ से भी अधिक वर्ष तक जीवित रहता है । इस कवच का पाठ करने से लूता ( सिर में होने वाला खाज का रोग मकरी ,) विस्फोटक (चेचक) आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।

स्थावरं  जंगमं  चैव , कृत्रिमं  चाअपि  यद्विषम्  ।
अभिचाराणि  सर्वाणि , मन्त्र-यन्त्राणि भूतले  ।।४९ ।।

स्थावर तथा  कृत्रिम विष , सभी नष्ट हो जाते हैं ।मारण , मोहन तथा उच्चाटन आदि सभी प्रकार के किये गए अभिचार यन्त्र तथा मन्त्र , पृथवी तथा आकाश में विचरण करने वाले 

भूचरा: खेचराश्चैव , जलजा श्चोपदेशिका: ।
सहजा कुलजा माला , डाकिनी- शाकिनी तथा ।।५० ।।

ग्राम देवतादि, जल में उत्पन्न होने वाले तथा उपदेश से सिद्ध होने वाले सभी प्रकार के क्षुद्र देवता आदि कवच के पाठ करने वाले मनुष्य को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं।जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले ग्राम देवता ,कुल देवता , कण्ठमाला, डाकिनी, शाकिनी आदि ।

अन्तरिक्षचरा   घोरा , डाकिन्यश्च   महाबला: ।
ग्रह - भूत   पिशाचाश्च , यक्ष गन्धर्व - राक्षसा: ।।५१ ।।

अन्तरिक्ष में विचरण करने वाली अत्यन्त भयानक बलवान डाकिनियां ,ग्रह, भूत पिशाच ।

ब्रह्म    -  राक्षस  - बेताला: , कुष्माण्डा   भैरवादय: ।
नश्यन्ति     दर्शनातस्य , कवचे हृदि   संस्थिते  ।।५२ ।।

ब्रह्म राक्षस , बेताल , कूष्माण्ड तथा भयानक भैरव आदि सभी अनिष्ट करने वाले जीव , कवच का पाठ करने वाले पुरुष को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं।

मानोन्नतिर्भवेद्  राज्ञ , स्तेजोवृद्धिकरं  परम् ।
यशसा वर्धते सोअपि  ,  कीर्ति  मण्डितभूतले ।।५३ ।।

कवचधारी पुरूष को राजा के द्वारा सम्मान की प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला है।कवच का पाठ करने वाला पुरुष  इस पृथ्वी को अपनी कीर्ति से  सुशोभित करता है और अपनी कीर्ति के साथ वह नित्य अभ्युदय को प्राप्त करता है।

जपेत्  सप्तशतीं  चण्डीं , कृत्वा  तु  कवचं  पुरा ।
यावद्  भूमण्डलं  धत्ते - , स - शैल - वनकाननम् ।।५४ ।।

जो पहले कवच का पाठ करके सप्तशती का पाठ करता है , उसकी पुत्र - पौत्रादि संतति पृथ्वी पर तब तक विद्धमान रहती है जब तक  पहाड़ , वन , कानन , और कानन से युक्त यह पृथ्वी टिकी हुई है।

तावत्तिष्ठति  मेदिन्यां , सन्तति:  पुत्र- पौत्रिकी ।
देहान्ते  परमं  स्थानं ,  यत्सुरैरपि  दुर्लभम्   ।।५५ ।।

कवच का पाठ कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाला मनुष्य मरने के बाद - महामाया की कृपा से देवताओं के लिए  जो अत्यन्त दुर्लभ स्थान है 

प्राप्नोति  पुरुषो  नित्यं ,  महामाया  प्रसादत: ।
लभते   परमं    रूपं  ,   शिवेन    सह   मोदते ।।५६ ।।

उसे प्राप्त कर लेता है और उत्तम रूप प्राप्त कर  शिवजी के साथ  आन्नदपूर्वक  निवास करता है।

          ।।   इति  वाराह पुराणे  हरिहरब्रह्मविरचित  देव्या:  कवचं  समाप्तम्   ।।

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