कोविद विमर्श २
तुलसी, मानस और कोविद
भविष्य दर्शन की बात हो तो लोग नॉस्ट्राडेमस या कीरो की दुहाई देते हैं। गो. तुलसीदास की रामभक्ति असंदिग्ध है, वर्तमान कोविद प्रसंग तुलसी के भविष्य वक्ता होने की भी पुष्टि करता है। कैसे? कहते हैं 'प्रत्यक्षं किं प्रमाणं', हाथ कंगन को आरसी क्या? चलिए मानस में ही उत्तर तलाशें। कहाँ? उत्तर उत्तरकांड में न मिलेगा तो कहाँ मिलेगा? तुलसी के अनुसार :
सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४
वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५
सब रोगों की जड़ 'मोह' है। कोरोना की जड़ अभक्ष्य जीवों (चमगादड़ आदि) का को खाने का 'मोह' और भारत में फैलाव का कारण विदेश यात्राओं का 'मोह' ही है। इन मोहों के कारण बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। आयर्वेद के त्रिदोषों वात, कफ और पित्त को तुलसी क्रमश: काम, लोभ और क्रोध जनित बताते हैं। आश्चर्य यह की विदेश जानेवाले अधिकांश जन या तो व्यापार (लोभ) या मौज-मस्ती (काम) के लिए गए थे। यह कफ ही कोरोना का प्रमुख लक्षण देखा गया। जन्नत जाने का लोभ पाले लोग तब्लीगी जमात में कोरोना के वाहक बन गए। कफ तथा फेंफड़ों के संक्रमण का संकेत समझा जा सकता है।
प्रीती करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब स्कूल नाम को जाना।। १२०/ १६
कफ, पित्त और वात तीनों मिलकर असंतुलित हो जाएँ तो दुखदायी सन्निपात (त्रिदोष = कफ, वात और पित्त तीनों का एक साथ बिगड़ना। यह अलग रोग नहीं ज्वर / व्याधि बिगड़ने पर हुई गंभीर दशा है। साधारण रूप में रोगी का चित भ्रांत हो जाता है, वह अंड- बंड बकने लगता है तथा उछलता-कूदता है। आयुर्वेद के अनुसार १३ प्रकार के सन्निपात - संधिग, अंतक, रुग्दाह, चित्त- भ्रम, शीतांग, तंद्रिक, कंठकुब्ज, कर्णक, भग्ननेत्र, रक्तष्ठीव, प्रलाप, जिह्वक, और अभिन्यास हैं।) मोहादि विषयों से उत्पन्न शूल (रोग) असंख्य हैं। कोरोना वायरस के असंख्य प्रकार वैज्ञानिक भी स्वीकार रहे हैं। कुछ ज्ञात हैं अनेक अज्ञात।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।१२० १९
इस युग (समय) में मत्सर (अन्य की उन्नति से जलना) तथा अविवेक के कारण अनेक विकार उत्पन्न होंगे। देश में राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक शक्तियों के अविवेक से अनेक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विकार हुए और अब जीवननाशी विकार उत्पन्न हो गया।
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क
एक ही व्याधि (रोग कोविद १९) से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।
नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख
नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १
इस प्रकार सब जग रोग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २
जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।
तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३
ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥
ईश्वर की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।
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