कोविद / कोरोना विमर्श : ४
को विद? पूछे कोरोना
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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को अर्थात कौन और विद अर्थात विद्वान। कोविद आज यही परख रहा है कि विद्वान कौन है? विद्वान वह जिसके पास विद्या हो किन्तु केवल विद्या ही पर्याप्त नहीं होती। पंचतंत्र की एक कथा है जिसमें चार मित्र अपने गुरु से विद्या प्राप्त कर जीवन यापन हेतु संसार सागर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में उनके मन में संशय होता है कि अपने ज्ञान को परख लें। उन्हें एक शेर का अस्थि पंजर मिलता है। पहला मित्र उसे अस्थियों को जोड़ देता है, दूसरा उस पर मांस-चर्मादि चढ़ा देता है, तीसरा उसमें प्राण डालने लगता है तो चौथा रोकता है पर वह नहीं मानता। तब वह वृक्ष पर चढ़ जाता है। प्राण पड़ते ही शेर तीनों को मार डालता है। इस बोधपरक लघुकथा का संदेश यही है कि केवल किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है।
कोविद ने यही पूछा को विद? अमेरिका, इटली, जर्मनी आदि तथाकथित देशों ने पहले तीन मित्रों की तरह आचरण किया और दुष्परिणाम भुगता। भारत ने चौथे मित्र की तरह सजगता और सतर्कता को महत्व दिया और अपने आप को अधिकतम जनसँख्या, अधिकतम सघनता और न्यूनतम चिकित्सा सुविधा और संसाधनों के बावजूद सबसे कम हानि उठाई। इसका यह आशय कतई नहीं है कि निश्चिन्त हो जाएँ कि हम सुरक्षित हो गए। चौथा मित्र गफलत में नीचे आया तो शेर उसे भी नहीं छोड़ेगा। चौथे मित्र को शेर के जाने, उजाला होने और अन्य लोगों के आने तक सजगता बरतनी ही पड़ेगी।
को विद? इस प्रश्न का उत्तर भारतवासी मुसलमानों को भी देना है। दुर्भाग्य से भारत में तब्लीगी, मजलिसी, जिहादी आदि एक तबका ऐसा है जो धर्मांध मुल्लाओं, मौलवियों आदि को मसीहा मानकर उनका अंधानुकरण करता है। यह तबका हर सुधारवादी कदम का विरोध करना ही अपना मजहब समझता है। संकीर्ण दृष्टि और स्वार्थपरकता इन तथाकथित धर्माचार्यों को बाध्य करती है वे अपने अनुयायियों को अशिक्षा और जहालत में रखकर अन्धविश्वास और अंधानुकरण को बढ़ावा देते रहें। सुशिक्षित, समझदार, प्रगतिवादी मुसलमान संख्या में कम और भीरु प्रवृत्ति का है। इसलिए वह चाहकर भी शेष समाज के साथ नहीं चल पाता। उन्हें अपने आप से सवाल करने होंगे और उनके उत्तर भी खोजने होंगे। क्या अच्छा मुसलमान अच्छा इंसान या अच्छा नागरिक नहीं हो सकता? यदि नहीं, तो उसे पूरी दुनिया में लांछित और दंडित किया जाना सही है। तब उसे नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता। यदि हाँ, तो उन्हें अपनी पहचान तथाकथित धर्मांध लोगों और अतवादी आतंवादियों से अलग बनाई होगी और बहुसंख्यक मध्य धारा के साथ नीर-क्षीर की तरह मिलना होगा।
को विद? इस सवाल से बहुसंख्यक सनातनधर्मी हिन्दू भी बच नहीं सकते। वसुधैव कुटुम्बकम, विश्वैक नीड़म् आदि की उदात्त परंपरा की विरासत के बावजूद जाति-पाँति, छुआछूत, वर्ण विभाजन, अन्य धर्मावलंबियों को हीन समझने की मानसिकता को छोड़ना ही होगा। आरक्षण विरोध की दुंदुभी बजानेवाले क्या आरक्षित वर्ग के डॉक्टर से इलाज नहीं कराएँगे? खुद को श्रेष्ठ समझनेवाला ब्राह्मण क्या अनुसूचित जनजाति के पुलिसवाले की मदद नहीं लेगा? बाहुबल के आधार पर गाँवों में मनमानी करनेवाला क्षत्रिय वर्ग क्या खुद अपने आपकी रक्षा कर सकता है? हम सबको समझना होगा कि हाथ की अँगुलियाँ यदि मुट्ठी बनकर नहीं रहीं तो एक-एक कर सब का विनाश हो जाएगा।
को विद? से बच तो शासन और प्रशासन भी नहीं सकता। उसे आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा कि पुलिस का काम 'तथा कथित महत्वपूर्णों की रक्षा' नहीं जन सामान्य की सेवा और सहायता करना है। जिस दिन भारत ,में 'पुलिस' को केवल और केवल 'पुलिसिंग' करने दी जाएगी उस दिन देश में सच्चे लोकतंत्र का आरंभ हो जायेगा। लोकतंत्र में लोक ही सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी शक्ति अपने प्रतिनिधियों में आरोपित करता है। कोविद काल में चिकित्सकों और पुलिस कर्मियों द्वारा अहर्निश सेवा हेतु उनका वंदन-अभिनन्दन होना ही चाहिए किन्तु अबाधित विद्युत् प्रदाय, जल प्रदाय, सैनिटेशन व्यवस्था, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, यातायात आदि को सुचारु रखने में प्राण-प्राण से समर्पित अभियंता वर्ग की सेवा को भी स्मरण किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि अभियंता का कार्य भोजन में जल या भवन में नींव की तरह अदृश्य होता है पर यह भी उतना ही सत्य है कि उसके बिना शेष कार्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। इसलिए 'देर आयद दुरुस्त आयद' अभियंता वर्ग के प्रति देश और समाज को सद्भावना व्यक्त करनी ही चाहिए।
इस कोविद काल में जन प्रतिनिधियों ने निकम्मेपन, अदूरदर्शिता, संवेदनहीनता और जन सामान्य से दूरी की मिसाल हर दिन पेश की है। शाहीन बाग़, तब्लीगी जमात, दिल्ली में मजदूरों का पलायन, मुम्बई में आप्रवासियों की भीड़ के इन और इन जैसे अन्य प्रसंगों में वहाँ के पार्षद, जनपद सदस्य, विधायक, सांसद अपने मतदाता के साथ थे? यदि नहीं तो क्या यह उनका संवैधानिक कर्तव्य नहीं था। कर्तव्य निर्वाण न करने के कारन क्यों न उनका निर्वाचन निरस्त हो। क्या राष्ट्रीय आपदा का सामना करना केवल सत्ताधारी दल को कारण है। क्या हर स्तर पर सर्वदलीय सेवा समितियां बनाकर जन जागरण, जन शिक्षण और जन सहायता का कार्य बेहतर और जल्दी नहीं किया जा सकता ? सत्ता दल की विशेष जिम्मेदारी है कि दलीय हित साधने में अन्य दलों से इतनी दूरी न बना ली जाए की संकट के समय भी हाथ न मिल सकें। लोकतंत्र में सत्ता पर दाल बदलते रहते हैं इसलिए देशहित को दलहित के ऊपर रखना ही चाहिए। सत्ता दल के अंधभक्त, विशेषकर बड़बोले और अनुशासनहीन हुल्लड़बाजों को नियंत्रण में रखा जाना परमावश्यक है। घंटी बजने के समय सड़कों पर भीड़ लगानेवाले, ज्योति जलने के समय बम फोड़ने, मोब लॉन्चिंग करने, असहमति होने पर गाली-गुफ़्तार करनेवाले किसी भी दल के लिए हितकर नहीं हो सकते और देशभक्त तो हो ही नहीं सकते।
को विद? इस कोविद काल में यह प्रश्न हम सबको और हममें से हर एक को खुद से पूछना ही होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
हम कौन हैं?, क्या हो गए हैं?
और क्या होंगे अभी?
आओ! विचारें आज मिलकर
ये समस्याएँ कभी।
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सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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