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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

सुख-दुःख

लघुकथा
सुख-दुःख
संजीव
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गुरु जी को उनके शिष्य घेरे हुए थे। हर एक की कोई न कोई शिकायत, कुछ न कुछ चिंता। सब गुरु जी से अपनी समस्याओं का समाधान चाह रहे थे। गुरु जी बहुत देर तक उनकी बातें सुनते रहे। फिर शांत होने का संकेत कर पूछा -  'कितने लोग चिंतित हैं? कितनों को कोई दुःख है? हाथ उठाइये।
सभागार में एक भी ऐसा न था जिसने हाथ न उठाया हो।
'रात में घना अँधेरा न हो तो सूरज ऊग सकेगा क्या?'
''नहीं'' समवेत स्वर गूँजा।
'धूप न हो तो छाया अच्छी लगेगी क्या?'
"नहीं।"
'क्या ऐसा दिया देखा है जिसके नीचे अँधेरा न हो"'
"नहीं।"
'चिंता हुई इसका मतलब उसके पहले तक निश्चिन्त थे, दुःख हुआ इसका मतलब अब तक दुःख नहीं था। जब दुःख नहीं था तब सुख था? नहीं था। इसका मतलब दुःख हो या न हो यह तुम्हारे हाथ में नहीं है पर सुख हो या हो यह तुम्हारे हाथ में है।'
'बेटी की बिदा करते हो तो दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख नहीं चाहिए तो बेटी मत ब्याहो। कौन-कौन तैयार है?' एक भी हाथ नहीं उठा।
'बहू को लाते हो तो सुखी होते हो। कुछ साल बाद उसी बहु से दुखी होते हो। दुःख नहीं चाहिए तो बहू मत लाओ। कौन-कौन सहमत है?' फिर कोई हाथ नहीं उठा।
'एक गीत है - रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा? अब बताओ अँधेरा, दुःख, चिंता ये मेहमान न हो तो उजाला, सुख और बेफिक्री भी न होगी। उजाला, सुख और बेफिक्री चाहिए तो  अँधेरा, दुःख और चिंता का स्वागत करो, उसके साथ सहजता से रहो।'
अब शिष्य संतुष्ट दिख रहे थे, उन्हें पराये नहीं अपनों जैसे ही लग रहे थे सुख-दुःख।
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संपर्क : ९४२५१८३२४४   

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