पर्यावरण संरक्षण पर आधारित, प्रस्तुत कविता "उषा किरण और निर्झर धारा" मेरी पूज्य माताश्री स्व.श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी द्वारा
रचित है।
उषा किरण और निर्झर धारा
प्रस्तुत कविता में प्रकृति के सौन्दर्य का मानवीकरण किया गया
है। उषा की किरण एवं निर्झर की धारा को दो सखियों के रूप में
दर्शाया गया है जो अपने हर्ष-विषाद के अनुभव पर परस्पर विचार
विमर्श करती हैं।
जब उतंग गिरि शृंगों से निर्झर धारा बहती झर-झर,
मणि-नूपुर बजने लगते रुनझुन झुन शैल शिला पथ पर।
आह्लादित उल्लास भरी रस रूप भरी आनन्द भरी,
हीरे मोती माणिक कण-कण जल फुहार लहरी-लहरी।
नील व्योम के स्वर्ण-द्वार से, उषा किरण पट से निकली,
दो सखियों की लोल-किलोलें बोली भोली भली-भली।
बोली प्रात की अरुणाई, ‘‘आओ सखि हम किल्लोल करें,
निर्मल जल की लहरों में बातें गुमसुम अनमोल करें।
जिधर चली तुम निर्झर धारा फूल लता झूमे झूमे,
भ्रमरों की अवली कमलों की कली-कली चूमें चूमें।
फल-फूलों से सजती जाती घाटी सुषमा हरी-हरी,
क्यारी-क्यारी की झोली मधुमय पुष्पों से भरी भरी।’’
वन वल्लरियाँ महक भरी मकरन्द मधुर मृदु बहे पवन,
पतझर की झाड़ी से झाँके सरस वसन्त सुख सुमन-सुमन।
गिरि-निर्झर-धारा हर्षित कटु काँटों पर बहती जाये,
जिधर चले शत पुष्प खिले अधखिली कली खिलती जाये।
निर्झर धारा बोली:—
‘‘तारा मण्डित निशि-महलों से उषा किरण प्रिय सखि निकलो,
कुञ्ज निकुञ्जों की सुगन्ध फुहारों में तुम टहलो टहलो।
नभ से उतरो मन्द-मन्द धरती पर चरण सरोज धरो,
पुष्प-पराग अपनी झोली मन की पुलकन में भरो भरो।
सरस सुहावन प्रिय मन भावन सतरंगी स्वर मृदु वेला,
मोर मयूरी ठुमके वन में पिक-शुक का रुमझुम मेला।
व्योम-व्योम अनुप्राणित अनुरंजित अणु-अणु सुषमा निखरी,
आओ सखि अभिनन्दन है धरती देखो आनन्द भरी।
आओ उषे प्रिय सखि आओ, हमसे हिलमिल कर तुम खेलो,
अपना गीत सुनाओ मधुरम बुलबुल की वाणी बोलो।
मेरी लहरों के झूले में झूम-झूम सखि तुम झूलो,
आनन्दम-आनन्दम रजनी तम घन के बन्धन खोलो।
नभ से पर्वत फिर धरती पर जब तुम थिरक छलकती हो,
दिशि-दिशि आलोकित जब तुम चट चटक कली सी हँसती हो।’’
दोनों सखियाँ हिलमिल लहर-लहर में लोल-किलोल करें,
दोनों के नयनों से हर्ष विषाद के अश्रु झरें-झरें।
उषा किरण बोली, ‘‘ए सखि तुम क्यों उदास हो कहो कहो,
गुमसुम सुख दुख मन की बात कहो, उर अन्तर शान्त करो।’’
निर्झर धारा बोली, ‘‘सखि री मेरे दु:ख से भरी कहानी,
कुछ व्यापारी मेरे वृक्षों से करते रहते मनमानी।
हरे भरे वृक्षों को सींचा मेरे बच्चे मुखड़े प्यारे,
लिये कुल्हाड़ी काटा उनको दुष्ट पुष्ट निर्मम हत्यारे।
मुझे लगा जैसे दुष्टों ने मेरा हाथ पाँव सिर काटा,
आँखों में आँसू की धारा, हाय रे मेरा सब कुछ लूटा।
फिर भी सखि मैं नहीं निराश, उद्यम करना मेरा काम,
नये-नये मैं वृक्ष सजाऊँ जल से सींचूँ दिन या शाम।
रजनीगन्धा कुन्द मनोहर रात की रानी हरसिंगार,
मधुमालती चाँदनी चन्दन गुलदाउदी औ सदाबहार।
मैं माली बन उनको सींचूँ अपने नयनों के पानी से,
मोर मयूरी ठुमके-ठुमके गायें गीत मधुर वाणी से।
धरती को मैं स्वर्ग बना दूँ मेरी आस यही है,
ऋषि मुनियों वेदों की भूमि तुलसीदास यहीं हैं।
उषे अपनी कहो कहानी तेरी महिमा अपरम्पार,
सारे जग से मिट जाता है अन्धकार का तमस अपार।
जब तुम उदित होती अम्बर में छा जाता सब ओर उजास,
फिर भी जाने क्यों लगती हो कभी-कभी तुम उषे उदास।’’
उषा बोली, ‘‘सुनो सखी री मेरी अश्रु से भरी कहानी,
झील झरोखे झिलमिल झूले झुकि-झुकि रुनझुन रश्मि सुहानी।
स्वर्ण दण्ड लेकर मैं उतरूँ द्वारे-द्वारे खटकाऊँ ,
कोई जागे कोई सोये मन में सुख-दु:ख दोनों पाऊँ।
कभी-कभी हे प्रिय सखी री मेरा मन हो जात उदास,
किन्तु फिर भी मेरे मन में विजयश्री औ आत्मविश्वास।
कहती जाऊँ द्वारे-द्वारे जागो जागो हुआ प्रभात,
बीत रही है झिलमिल-झिलमिल तारों भरी सुनहरी रात।
प्रात:काले ब्रह्म मुहूर्त स्नान ध्यान मन प्रभु का गान,
गिरि उतंग में सूर्य रश्मियाँ नीलाम्बर में अरुण विहान।
रामचरितमानस श्रीमद्भगवद्गीता का अनुशीलन,
गायत्री माता का आसन जप तप मन में ले लो प्रण।
दुर्गा सप्तशती श्री विष्णु-सहस्र्नाम का कर लो पाठ,
रामनाम की ग्यारह माला प्रतिदिन जप लो देखो ठाठ।
तुम ही केवट बन जाओगे दर्शन देंगे तुमको राम,
सदा सवेरा मन में झिलमिल कभी न होगी दु:ख की शाम।’’
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी
[काव्य निकुंज, पृष्ठ सं. 72-75 प्रकाशन वर्ष 2016
रचित है।
'prof_umalaviya' prof_umalaviya@rediffmail.com |
उषा किरण और निर्झर धारा
प्रस्तुत कविता में प्रकृति के सौन्दर्य का मानवीकरण किया गया
है। उषा की किरण एवं निर्झर की धारा को दो सखियों के रूप में
दर्शाया गया है जो अपने हर्ष-विषाद के अनुभव पर परस्पर विचार
विमर्श करती हैं।
जब उतंग गिरि शृंगों से निर्झर धारा बहती झर-झर,
मणि-नूपुर बजने लगते रुनझुन झुन शैल शिला पथ पर।
आह्लादित उल्लास भरी रस रूप भरी आनन्द भरी,
हीरे मोती माणिक कण-कण जल फुहार लहरी-लहरी।
नील व्योम के स्वर्ण-द्वार से, उषा किरण पट से निकली,
दो सखियों की लोल-किलोलें बोली भोली भली-भली।
बोली प्रात की अरुणाई, ‘‘आओ सखि हम किल्लोल करें,
निर्मल जल की लहरों में बातें गुमसुम अनमोल करें।
जिधर चली तुम निर्झर धारा फूल लता झूमे झूमे,
भ्रमरों की अवली कमलों की कली-कली चूमें चूमें।
फल-फूलों से सजती जाती घाटी सुषमा हरी-हरी,
क्यारी-क्यारी की झोली मधुमय पुष्पों से भरी भरी।’’
वन वल्लरियाँ महक भरी मकरन्द मधुर मृदु बहे पवन,
पतझर की झाड़ी से झाँके सरस वसन्त सुख सुमन-सुमन।
गिरि-निर्झर-धारा हर्षित कटु काँटों पर बहती जाये,
जिधर चले शत पुष्प खिले अधखिली कली खिलती जाये।
निर्झर धारा बोली:—
‘‘तारा मण्डित निशि-महलों से उषा किरण प्रिय सखि निकलो,
कुञ्ज निकुञ्जों की सुगन्ध फुहारों में तुम टहलो टहलो।
नभ से उतरो मन्द-मन्द धरती पर चरण सरोज धरो,
पुष्प-पराग अपनी झोली मन की पुलकन में भरो भरो।
सरस सुहावन प्रिय मन भावन सतरंगी स्वर मृदु वेला,
मोर मयूरी ठुमके वन में पिक-शुक का रुमझुम मेला।
व्योम-व्योम अनुप्राणित अनुरंजित अणु-अणु सुषमा निखरी,
आओ सखि अभिनन्दन है धरती देखो आनन्द भरी।
आओ उषे प्रिय सखि आओ, हमसे हिलमिल कर तुम खेलो,
अपना गीत सुनाओ मधुरम बुलबुल की वाणी बोलो।
मेरी लहरों के झूले में झूम-झूम सखि तुम झूलो,
आनन्दम-आनन्दम रजनी तम घन के बन्धन खोलो।
नभ से पर्वत फिर धरती पर जब तुम थिरक छलकती हो,
दिशि-दिशि आलोकित जब तुम चट चटक कली सी हँसती हो।’’
दोनों सखियाँ हिलमिल लहर-लहर में लोल-किलोल करें,
दोनों के नयनों से हर्ष विषाद के अश्रु झरें-झरें।
उषा किरण बोली, ‘‘ए सखि तुम क्यों उदास हो कहो कहो,
गुमसुम सुख दुख मन की बात कहो, उर अन्तर शान्त करो।’’
निर्झर धारा बोली, ‘‘सखि री मेरे दु:ख से भरी कहानी,
कुछ व्यापारी मेरे वृक्षों से करते रहते मनमानी।
हरे भरे वृक्षों को सींचा मेरे बच्चे मुखड़े प्यारे,
लिये कुल्हाड़ी काटा उनको दुष्ट पुष्ट निर्मम हत्यारे।
मुझे लगा जैसे दुष्टों ने मेरा हाथ पाँव सिर काटा,
आँखों में आँसू की धारा, हाय रे मेरा सब कुछ लूटा।
फिर भी सखि मैं नहीं निराश, उद्यम करना मेरा काम,
नये-नये मैं वृक्ष सजाऊँ जल से सींचूँ दिन या शाम।
रजनीगन्धा कुन्द मनोहर रात की रानी हरसिंगार,
मधुमालती चाँदनी चन्दन गुलदाउदी औ सदाबहार।
मैं माली बन उनको सींचूँ अपने नयनों के पानी से,
मोर मयूरी ठुमके-ठुमके गायें गीत मधुर वाणी से।
धरती को मैं स्वर्ग बना दूँ मेरी आस यही है,
ऋषि मुनियों वेदों की भूमि तुलसीदास यहीं हैं।
उषे अपनी कहो कहानी तेरी महिमा अपरम्पार,
सारे जग से मिट जाता है अन्धकार का तमस अपार।
जब तुम उदित होती अम्बर में छा जाता सब ओर उजास,
फिर भी जाने क्यों लगती हो कभी-कभी तुम उषे उदास।’’
उषा बोली, ‘‘सुनो सखी री मेरी अश्रु से भरी कहानी,
झील झरोखे झिलमिल झूले झुकि-झुकि रुनझुन रश्मि सुहानी।
स्वर्ण दण्ड लेकर मैं उतरूँ द्वारे-द्वारे खटकाऊँ ,
कोई जागे कोई सोये मन में सुख-दु:ख दोनों पाऊँ।
कभी-कभी हे प्रिय सखी री मेरा मन हो जात उदास,
किन्तु फिर भी मेरे मन में विजयश्री औ आत्मविश्वास।
कहती जाऊँ द्वारे-द्वारे जागो जागो हुआ प्रभात,
बीत रही है झिलमिल-झिलमिल तारों भरी सुनहरी रात।
प्रात:काले ब्रह्म मुहूर्त स्नान ध्यान मन प्रभु का गान,
गिरि उतंग में सूर्य रश्मियाँ नीलाम्बर में अरुण विहान।
रामचरितमानस श्रीमद्भगवद्गीता का अनुशीलन,
गायत्री माता का आसन जप तप मन में ले लो प्रण।
दुर्गा सप्तशती श्री विष्णु-सहस्र्नाम का कर लो पाठ,
रामनाम की ग्यारह माला प्रतिदिन जप लो देखो ठाठ।
तुम ही केवट बन जाओगे दर्शन देंगे तुमको राम,
सदा सवेरा मन में झिलमिल कभी न होगी दु:ख की शाम।’’
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी
[काव्य निकुंज, पृष्ठ सं. 72-75 प्रकाशन वर्ष 2016
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