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बुधवार, 22 अप्रैल 2020

रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य

विमर्श : 
रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य 

भारत के अनेक स्थानों की तरह लंका में भी श्री लंका रावण को खलनायक नहीं एक विद्वान पंडित अजेय योद्धा, प्रतिभा संपन्न, वैभवशाली एवं समृद्धिवान सम्राट माना जाता है। 
श्री राम ने समुद्र पर सेतु निर्माण के बाद लंका विजय की कामना से विश्वेश्वर महादेव के लिंग विग्रह स्थापना के अनुष्ठान हेतु वेदज्ञ ब्राह्मण और शैव रावण को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का विचार किया क्योंकि रावण के सदृश्य शिवभक्त, कर्मकांड का जानकार और विद्वान् अन्य नहीं था। रावण को आमंत्रित करने के लिए जामवंत को रावण के पास भेजा गया।रावण ने उनका बहुत सम्मान ( अपने दादा महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई वशिष्ठ के यजमान के दूत होने के कारण) किया तथा पूछा कि क्या वे लंका विजय हेतु यह अनुष्ठान करना चाहते हैं? जामवंत ने कहा, बिल्कुल ठीक, उनकी शिव जी के प्रति आस्था है, उनकी इच्छा है कि आप आचार्य पद स्वीकार कर अनुष्ठान संपन्न कराएँ। आपसे अधिक उपयुक्त शिव भक्त आचार्य अन्य कोई नहीं।
रावण ने विचार किया कि वह अपने आराध्य देव के विग्रह की स्थापना को अस्वीकार नहीं करेगा। जीवन में पहली बार किसी ने ब्राह्मण माना है और आचार्य योग्य जाना, वह भी वशिष्ठ जी के यजमान ने।  अत: रावण ने जामवंत को स्वीकृति देते हुए कहा कि यजमान उचित अधिकारी हैं, अनुष्ठान हेतु आवश्यक सामग्री का संग्रह करें ।
इसके बाद वनवासी राम के पास आवश्यक पूजा सामग्री का अभाव जानते हुए अपने सेवकों को भी सामग्री संग्रह में सहयोग करने का निर्देश दिया। इतना हे इन्हीं रावण ने अशोक वाटिका पहुँचकर सीता जी को सब समाचार देते हुए अनुष्ठान हेतु साथ चलने को कहा। विदित हो बिना अर्धांगिनी गृहस्थ का पूजा-अनुष्ठान अपूर्ण रहता है।आचार्य का दायित्व होता है कि यजमान का अनुष्ठान हर संभव पूर्ण कराए। इसलिएरावण ने कहा कि विमान आने पर उसमें बैठ जाना और स्मरण रहे वहाँ भी तुम मेरे अधीन रहोगी, पूजा संपन्न होने के बाद वापस लौटने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। सीता जी ने भी इसे स्वामी श्री राम  का कार्य समझकर विरोध न कर मौन रखा और स्वामी तथा स्वयं का आचार्य मानकर हाथ जोड़कर सिर झुका दिया, रावण ने भी सौभाग्यवती भव कह कर आशीर्वाद दिया।
रावण के सेतु बंध पहुँचने पर राम ने स्वागत करते हुए प्रणाम किया तो रावण ने आशीर्वाद देते हुए कहा "दीर्घायु भव, विजयी भव"। इसपर वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि आश्चर्यचकित रह गए। रावणाचार्य ने भूमि शोधन के उपरांत राम से कहा, यजमान! अर्धांगिनी कहाँ है उन्हें यथास्थान दें। राम जी ने मना करते हुए कहा आचार्य कोई उपाय करें ।रावण ने कहा यदि तुम अविवाहित, परित्यक्त या संन्यासी होते अकेले अनुष्ठान कर सकते थे, परंतु अभी संभव नहीं।
एक उपाय यह है कि अनुष्ठान के बाद आचार्य सभी पूजा साधन-उपकरण अपने साथ वापस ले जाते हैं, यदि स्वीकार हो तो यजमान की पत्नी विराजमान है, विमान से बुला लो। राम जी ने इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार करते हुए रावणाचार्य को प्रणाम किया।" अर्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्धयजमान" कह कर रावणाचार्य ने कलश स्थापित कर विधिपूर्वक अनुष्ठान कराया। बालू का लिंगविग्रह (हनुमान जी के कैलाश से लिंगविग्रह लाने में बिलंब होने के कारण) बनवाकर शुभ मूहूर्त मे ही स्थापना संपन्न हुई।
अब रावण ने अपनी दक्षिणा की माँग की तो सभी उपस्थित लोग चौकें, रावण के शब्दों में "घबरायें नहीं यजमान, स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति तो नहीं हो सकती"। आचार्य जानते हैं कि यजमान की स्थिति वर्तमान में वनवासी की है। राम ने फिर भी आचार्य की दक्षिणा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की ।रावण ने कहा "मृत्यु के समय आचार्य के समक्ष हो यजमान" और राम जी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए रावण के मृत्यु शैय्या ग्रहण करने पर सामने उपस्थित रहे। 

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