लघुकथा
संस्कार
प्रियंका पांडे
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बड़ी अजीब सी मनोस्थिति थी राव दंपत्ति की आज उनका बेटा अजय सपरिवार विदेश से वापस आ रहा था। श्री राव बैठे सोच रहे थे मानों कल की ही बात हो जब उसे पढने विदेश भेजा था। वही नौकरी करने के बाद जब उसने अपनी सहकर्मी मिशेल से शादी करने की बात की थी तो कितना नाराज़ हुए थे। कितना कुछ बोल था उसको घर ना आने की धमकी तक दे डाली थी
पर दो साल बाद अजय डरते डरते घर आया तो था पर श्री राव की सख्त हिदायत थी की मिशेल नहीं आएगी। श्रीमती राव डिब्बे में अजय की पसंद के लड्डू भरते हुए बड बड भी किये जा रही थी अँगरेज़ ने जाने कैसे पाला होगा अपने बच्चो को गिटर पिटर अंग्रेजी बोलते होंगे हमारी ना सुनेंगे ना समझेंगे। मन में अथाह प्रेम हिलोरे मार रहा था पर एक अनजाना डर भी था कही।
काल बेल की आवाज़ पर दोनों दंपत्ति दरवाज़े की ऒर बढे तो दो चहकती आवाज़ कानो में पड़ी दादा जी दादी जी हम आ गए। सुन कर चकित से दोनों की आँख भर आई। पीछे मिशेल खड़ी थी गुलाबी सलवार कुर्ते में सर पर पल्लू लिए लपक कर पैर छुए तो आशीर्वाद के साथ आंसुओ की भी सीमा न रही।
अपलक बहू-बेटे और बच्चो को निहारते दोनों सोच रहे थे शायद सम्मान और संस्कार भाषा देश के मुहताज नहीं होते......इनकी जगह तो बस दिलों में होती है।
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