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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

नव गीत

नव गीत:
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ
अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों
सी चढ़ रही हैं.
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की
कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी
घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट
से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत
जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की
कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
**********************
२५-४-२०१०

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