युग कवि राकेश खंडेलवाल के प्रति प्रणतांजलि:
लेखनी में शारदा का वास है, रचते रहो,
युग हलाहल से कहो कवि -कंठ में पचते रहो।
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रस न बस में रह स्वयं के, मानते आदेश कवि का-
लय विलय हो प्राण में तब हो समाधित खो न खोते।।
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विनयावनत
संजीव
कविवर राकेश खंडेलवाल की षष्ठी पूर्ति पर विशेष वीडिओ
द्वारा शार्दूला नोगजा
द्वारा शार्दूला नोगजा
अमिताभ त्रिपाठी
काव्याकाश के निर्मल राकेश को उनकी षष्ठिपूर्ति पर हार्दिक बधाई!
कुछ लोग जन्मना कवि होते हैं
कुछ लोग कवित्व का अर्जन कर लेते हैं श्रम से
और कुछ लोगों पर यह थोप दिया जाता है या वे इसे जबरदस्ती ओढ़ लेते हैं।
यहाँ मैनें फ्रांसिस बेकन की नकल मारी है सिर्फ़ यह बताने के लिये की
इसकी पहली पंक्ति पर राकेश जी विराजमान हैं और अन्तिम पर मैं सगर्व खड़ा
हूँ। इन दोनों सीमाओं के बीच यदि समाकलन कर दिया जाय तो शेष सभी कवि आ
जायेंगे। आज के भी, कल के भी और आने वाले कल के भी।
राकेश जी में कविता अजस्र पयस्विनी की भाँति बहती है बिना किसी अवरोध
के और बिना किसी कृत्रिमता के। राकेश जी के काव्यलोक का भ्रमण करने पर
ज्ञात होता है कि कविता वहाँ पर किसी लम्बे फीते की तरह खुलती चली जाती है।
अविच्छिन्न और अनवरुद्ध।
फ़िराक़ ने ग़ज़ल के बारे में कहा है कि यह गद्य की विधा है। अर्थात्
वहाँ पर बातों को कहा जाता है और सुना जाता हैं, जैसा कि सामान्य
वार्तालाप में होता है। राकेश जी की कविताओं को पढ़ कर मेरे मन में कई बार
यह विचार उठता है कि उनके गीत वास्तव में लयात्मक गद्य हैं। राकेश जी के
काव्य में मानवीकरण, रूपक और बिम्ब प्रचुरता से समाविष्ट हैं जिसके कारण
उसके वाचन या गायन से परिवेश
स्वतः जीवन्त हो उठता है। उनका बिम्ब विधान इतना सार्थक और सटीक होता है
कि वह अमूर्त का साक्षात स्पर्श करा देता है।
मेरा बहुत मन है कि मैं उनकी काव्ययोजना और बिम्ब विधान पर कुछ लिखूँ
परन्तु तथाकथित व्यस्तता और अपने अपरिभाषित आलस्य के कारण अवसर खिसकता जा
रहा है। डर है किसी और ने लिख दिया तो मुझे बड़ा दुख होगा। फिर भी कुछ
बातें...
राकेश जी आजीविका के लिये जिस व्यवसाय में हैं वह उन्हें इतना समय
नहीं देता कि वे व्यवस्थित योजना के द्वारा लेखन करें फिर भी आश्चर्य हैं
जब भी उनका कोई गीत
हमारे सामने आता है तो वह एक सुचिन्तित और
सुव्यस्थित योजना लिये हुये होता है। सहजता, सरलता और अकृत्रिमता उनके
गीतों का प्रमुख गुण है। उनके बिम्ब प्रायः सुग्राह्य होते हैं। विस्तार भय
से अभी उदाहरण नहीं दे रहा
हूँ।
राकेश जी बहुत से प्रयोग नहीं करते। भावना को काव्य-यात्रा का पाथेय
मानते हुये जिस भी प्रवाह (छन्द) में बात निकल पड़ती बहुत स्वाभावित रीति
से उसी तरंग में बहते चले जाते हैं।
राकेश जी काव्य में बौद्धिक
या छान्दसिक चमत्कार उत्पन्न करने की आधुनिक या प्राचीन किसी भी रीति (या
आन्दोलन) का अनुसरण करते दिखाई नहीं देते।
उनकी शैली का लालित्य उनकी भाषा और काव्यगत वाक्य विन्यास में दिखाई देता है।
......अभी इतना ही
राकेश
जी, आप शतायु हों आपकी लेखनी इसी तरह प्रवहमान रहे, उसका यश और कीर्ति
अक्षुण्ण रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है। कुछ अनुचित लिख दिया हो तो क्षमा
कर दीजियेगा।
सादर
अमित, रचनाधर्मिता
7 टिप्पणियां:
Shriprakash Shukla via yahoogroups.com
आदरणीय आचार्य जी,
अद्भुत अभिव्यक्ति ।
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
Mahipal Tomar via yahoogroups.com
मुझे इतनी चुम्बकीय लगी, कि, मैंने Quote भी कर दी।
बधाई 'सलिल' जी इतनी शानदार अभिव्यक्ति हेतु।
अनुज का सम्मान इससे अधिक क्या हो
पीठ पर धर धौल अग्रज थपकियाँ दो
धन्य करते हो मुझे महिपाल होकर-
खुद न रच जब मान अपना पंक्तियाँ लो
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
shar_j_n
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत ही सुन्दर रचना!
लेखनी में शारदा का वास है, रचते रहो,
युग हलाहल से कहो कवि -कंठ में पचते रहो। --- कितना सुन्दर!
काल चारण बन तुम्हारे गीत गायेगा-
कवि-चरण ठहराव से बचते रहो।। --- बहुत सुन्दर सन्देश!
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तुम नहीं बस तुम, समय की चेतना हो, --- तुम नहीं, बस तुम --- इसका अर्थ केवल तुम?
ह्रदय में अन्तर्निहित मनु-वेदना हो।
नाद अनहद गुंजाते हो अक्षरों से-
भाव लय रस शब्द मंथित रेतना हो।।
*
अक्षरी आकाश के राकेश हो तुम,
शब्द के वातास में भावेश हो तुम। --- वातास ---कितने दिनों बाद सुना ये शब्द!
नाद अनहद से निनादित गीत सर्जक
नव प्रतीकों में बसे बिम्बेश हो तुम।। --- वाह, बिम्बेश !! --- ये आपका रचा हुआ नया शब्द! बहुत सार्थक राकेश जी के लिए :)
*
गीत तुम लिखते नहीं हो, गीत तुममें प्रगट होते, --- परम सत्य !
भाव उर में आ अजाने रसों की नव फसल बोते।
रस न बस में रह स्वयं के, मानते आदेश कवि का-
लय विलय हो प्राण में तब हो समाधित खो न खोते।।
सादर शार्दुला
नजर आपकी पारखी, नीर-क्षीर अनुमान.
करती सत्वर प्रतिक्रिया, दे भावों को मान.
बिना कसौटी पर कसे, स्वर्ण न पाता मोल.
काव्य कसौटी बन गए, शार्दूला के बोल.
'सलिल' प्रशंसक आपका, करता है आभार
मिले खुशी जब-जब पढ़े, स्नेह सने उद्गार.
Rakesh Khandelwal
आदरणीय एवं मित्र,
आपके स्नेहिल शब्दों से भाव विभोर हूँ. क्षमाप्रार्थी हूँ कि अतिशय व्यस्तता के कारण देरी से उत्तर दे रहा हूँ
रश्मियों की ले प्रचुरता ज्यों तिमिर मे आये कोई
पंथ में हर एक पग पर पांखुरी लाकर बिछाये
ग्राष्म की तपती दुपहरी में घिरे आ मेघ बन कर
झूमती पुरबाईयों को गात पर लाकर डुलाये
द्वीप मिलता सिन्धु में भटके हुये इक पोत को ज्यों
ईश ज्यों वरदान दे दे कोई बिन आराधना के
पूर्णिमा चुनकर नयन की कोर पर अटके सपन को
शिल्प में ढाले स्वत: ही बिन किसी भी कामना के
खंडहर के दीप को कोई अखंडित ज्योति दे दे
वाटिका अलकापुरी की कीकरों का वन बनाये
घाटियों के शून्य में भर दे लहर मृदु सरगमों की
या मरुस्थल में बुला कर सैकड़ों सावन सजाये
इस तरह से ही मिले आशीष मुझको आप सब के
भावना को शब्द दूँ मैं, ये नहीं संभव हुआ है
ज़िन्दगी को पंथ पर जो रख रही गतिमय निरन्तर
आप सब से प्राप्त मुझको हो रही प्रतिपल दुआ है.
सादर
राकेश खंडेलवाल
Ghanshyam Gupta
मित्रो,
एक बार यह मान लिया जाय कि दुनियां में और भी अच्छे सुखनवर हैं, और बहुत अच्छे हैं और बहुत से हैं तो भी मैं ई-कविता के सिरमौर राकेश जी और उन जैसे अन्य सिद्ध-हस्त, मुक्त-कण्ठ, कवियों की रचनायें देखता हूं तो बस अवाक रह जाता हूं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की आध्यात्मिक रचना की पंक्तियां गुनगुनाने का यत्न तो करता हूं पर अपने बेसुरे गले से समझौता करना पड़ता है:
তুমি কেমন করে গান করো হে গুণী
আমি অবাক হয়ে শুনি, কেবল শুনি
तुमि कैमोन कोरे गान कोरो हे गुनी
आमि ओबाक होए शुनि, कैबोल शुनि
तुम कैसे (किस प्रकार ऐसा उत्तम) गान गाते हो, हे गुणी! मैं तो अवाक सुनता हूं, केवल सुनता हूं।
- घनश्याम
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