दोहा गाथा ९ : दोहा कम में अधिक है
संजीव
संजीव
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.
*
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे तो फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय.
*
दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य.
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य. कबीर
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य. कबीर
दोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत.
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.
सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.
गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.
दोहा रचकर आपको, मिले सफलता-हर्ष.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.
नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.
'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.
दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
मुगल
सम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीम
खानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० - संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत
और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदि के भक्त
कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वत कोष के रत्न
हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं (
ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृज एवं अवधी से
प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये--
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९ में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...
छंद क्या है?
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.
सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.
गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.
नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.
'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.
दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९ में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...
छंद क्या है?
संस्कृत काव्य
में छंद का रूप श्लोक है जो कथ्य की आवश्यकता और संधि-नियमों के अनुसार कम या अधिक लम्बी, कम या ज्यादा
पंक्तियों का होता है। संकृत की क्लिष्टता को सरलता में परिवर्तित करते हुए हिंदी छंदशास्त्र में वर्णित
अनुसार नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति, यति का पालन करते हुए
की गयी काव्य रचना छंद है। श्लोक तथा दोहा क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के छंद हैं। ग्वालियर निवास स्वामी ॐ कौशल के अनुसार-
दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.
श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
*
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
गोष्ठी के अंत में :
दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.
श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
*
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
गोष्ठी के अंत में :
17 टिप्पणियां:
Indira Pratap via yahoogroups.com
बंद किताबों में पड़े, बाँट रहे थे ज्ञान|
दोहे के रस-खान हैं,'सलिल'जी अति महान|| मेरे लिखे दोहे में गलतियाँ संजीव भाई आप स्वयं सुधर लें | दोहों सम्बंधित ज्ञान देने के लिए बहुत बहुत साधुवाद | शुभ कामनाओं के साथ
deepti gupta via yahoogroups.com
बहुत ज्ञानवर्धक एवं रुचिकर संजीव जी !
सादर,
दीप्ति
Mahipal Tomar via yahoogroups.com
आचार्य संजीव'सलिल'जी,
आपका 'दोहा-गाथा' पुरुषार्थ श्लाघनीय है। शिखर -पुरुष(अपने समकालीनों-तुलसी, सूर, नानक) कबीर को नए अंदाज में बंचवाना नई उर्जा का संचार करता है। समापन दोहे का साक्षात्कार किये हुए लोगो की संख्या भी इस देश में काफी है।
सादर, शुभेक्षु,
महिपाल
Laxmanprasad Ladiwala
दोहों का बहुत सुंदर इतिहास बताया आपने आदरणीय श्री संजीव सलिल जी आपने सही कहा है तत्कालीन राजा महाराज से अधिक सम्मान दरबारी कवी को मिला है, मेरे जयपुर शहर को बसाने वाले महाराजा सवाई जयसिंह जी के दरबारी कवि और विद्वान् कवि बिहारी के लिए कहा गया है - सत्सय्या के दोहरा जो नाविक के तीर, देखन में छोटे लागे घाव करे गंभीर | हार्दिक बधाई और जानकार के लिए आभार स्वीकारे
Shubham Dubey
Bhai
Kha Se Dekh K Likha Mast H Yr
Guddo Dadi करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान
सुंदर क्या आज की पीडी समझ पाएगी साहित्य आधुनिक यंत्रो पर निर्भर है (नेट फेसबुक)
ज्योत्स्ना शर्मा
सुन्दर भाषा भावमय, पुलकित दोहा आज |
मात शारदा सोचतीं, सुत मेरो कविराज......:)) ...बहुत सुन्दर सारगर्भित जानकारी दी आपने मुझे ...आपकी मित्रता ,आपका स्नेह ,आशिष माँ शारदा का उपहार है मेरे लिए !
kusum sinha
priy sanjiv jee
etne sundar dohe likhna bahut kam logo ke vash me hai padhakar bahut khushi hui
badhai bahut bahut badhai bhagwan kare aap sada swasth rahen aur khub likhte rahen
शुभाशीष पा कुसुम का, सलिल हो गया धन्य.
दोहा अनुपम छंद है, इस सा छंद न अन्य।।
jyotsana bin srishti men, soojhta hai path naheen. /
saday hain prabhu mil gayee hai jyitsana mujhko yaheen
shar_j_n
आदरणीय आचार्य जी,
वाह बहुत बहुत अच्छा!
शीश नवाते आपको, ईकविता जन आज
ज्ञान वृष्टि दोहावली, पाता मुदित समाज
सादर शार्दुला
शार्दूला जी
दोहा गाथा एक प्रयास है छंद को केंद्र में लाने का. जब समय मिले प्रारंभिक कड़ियाँ देखकर अभिमत देंगी। उनमे काव्य रचना के आधार समझने के प्रयास किया है.
एक निवेदन यह कि बांगला के कुछ दोहे देवनागरी लिपि में अर्थ के साथ दे सकें तो इस शारदेय अनुष्ठान की शोभ तथा उपयोगिता वृद्धि होगी।
बांगला कविता में छंद हिंदी जैसे ही हैं क्या? यदि अन्य छंद हों जैसे मराठी में अभंग, पंजाबी में माहिया तो कृपया जब समय हो हमें सिखाएं।
shar_j_n
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत धन्यवाद, अब लगता है जल्दी ही समय हाथ लगे और पूरा पूरा कई बार पढूँ आपके लेख. ये दोहा मेरा पसंदीदा दोहा है :
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.
दुमछल्ले दोहे की कहानी सुन कर मज़ा आया, होली के विषय से जुड़े कई इस तरह के दोहे सुने हैं .
सादर शार्दुला
Mahipal Tomar via yahoogroups.com
रस-खान ' सलिल' जी , खुसरो-प्रसंग प्यारा और वाक्-चातुर्य ( व्युत्पन्न मति ) का रोचक उदाहरण भी ।
मेरी पसंद के ढेर दोहों में से दो दोहे -
१ - " कामिहि नारि पियारि जिमि ,लोभिहि प्रिय जिमि दाम ,
तिमि रघुनाथ निरंतर , प्रिय लागहु मोहि राम " -तुलसी ,;सरल सी प्रभु वंदना ।
२ -" गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है ,गढ़ी गढ़ी काढहिं खोट ,
आंतर हाथ सहारि दे ,बाहरि बाहे चोट " - कबीर ,; जिसका मैंने पूरी शिद्दत से अपने profession में पालन किया । रेखांकित को कृपया लघु में पढ़ें , टंकण में मुझसे लघु बना नहीं
आदरणीय
कुछ शब्द अक्षर रूप न पर ऐसा शब्द टंकित करें जिसमें उस अक्षर-रूप का प्रयोग हो फिर शेष अक्षर डिलीट कर दें। टंकित करने पर' ढ़ी ' मिलता है। यदि बढ़िया टंकित करें फिर या और ब को डिलीट करदें तो 'ढ़ि' मिला जाता इस्सके पहले 'ग' लगा दें तो 'गढ़ि' बन जाएगा।
deepti gupta via yahoogroups.com
कबीर निराकार ब्रह्म को मानते थे और सृष्टि में चारों ओर उस परमशक्ति के दर्शन करते थे ! उन्होंने 'राम' शब्द का खूब प्रयोग किया है लेकिन उनका राम तुलसी के साकार /सगुण राम के ठीक विपरीत निराकार / निर्गुण है ! ( घट घट में है राम........)
सृष्टि के कण-कण में अलौकिक शक्ति के दर्शन करते हुए कबीर कहते है -
लाली मेरे लाल की , जित देखूं तित लाल,
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल !!
हमें कबीर का यह दोहा बहुत पसंद है क्योंकि इसमें 'सत्य' का उद्घाटन किया गया है ! अनेक ज्ञानी जन इस निराकार शक्ति का विरोध
करते हैं ! पर यह 'आस्था' का मुद्दा ( issue) है !
इसी तरह साकार ईश्वर के लिए कहा गया है - मानो तो देवता, न मानो तो पत्थर ..........! समूचे विश्व में एक से एक भव्य मंदिर मनुष्य की आस्था का ही प्रतीक है और परिणाम हैं ! उन मंदिरों को तोडना , उन्हें नगण्य समझना, या उनका उपहास करना 'मानने वालों ' की आस्था पे चोट करना है ! विशालकाय , सुन्दर शिल्प कला के अद्भुत नमूने अनेक मंदिर मात्र पत्थर का ढांचा नहीं है, बल्कि उनमें सैकडो लोगो की आस्था और विश्वास स्पंदित है जिसे खंडित कर पाना कठिन ही नहीं - बल्कि नामुमकिन है ! इसलिए सबको अपनी -अपनी आस्था के साथ जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ! 'आस्था' के विषय बहस के मुद्दे नहीं बनने चाहिए ! कबीर के अनुसार इस तरह की '' तू तू..... मैं, मैं '' में समय नहीं गंवाना चाहिए बल्कि अपने अंदर छुपे उस 'परम शक्ति' के अंश को खोजना और पहचानना चाहिए ! पता नही कब आप 'व्यक्ति' से 'शक्ति' बन जाए और संसार में रहते हुए भी इसके माया - मोह से मुक्त हुए अलौकिक आनंद की अवस्था में पहुँच जाएं !
सादर,
दीप्ति
Indira Pratap via yahoogroups.com
प्रिय दीप्ति , कबीर के इस दोहे पर मुझे कबीर की दो पंक्तियाँ याद आ गईं जो मुझे बहुत पसंद है ,
जल में कुम्भ ,कुम्भ में जल है , बाहर भीतर पानी
फूटहिं कुम्भ जल जलहि समाना यह तत (तत्व ) कहत ग्यानी | एक सृष्टि के दो विभिन्न रूप हैं जो हमें अज्ञान वश दिखाई देते हैं | इसी भेद के कारण आस्था - अनास्था जैसे विषय मानस के मन में उत्पन्न होते हैं | यह सब बातें तर्क शास्त्र को जन्म देती हैं ,जो स्वाभाविक रूप से मनुष्य में रहती हैं , आस्था कहाँ अनास्था में परिवर्तित हो जाती है और अनास्था कब आस्था में परिवर्तित हो जाती है हमें पता ही नही चलता | आदरणीय द्विवेदी जी ने अपनी एक रचना काव्यधारा पर डाली थी ,ओउम् कार होना चाहता हूँ | यद्यपि यह कविता वैज्ञानिक तत्थों पर आधारित थी ( big bang theory ) अगर मैं ठीक समझी हों तो , पर ॐ कार शब्द का प्रयोग इसमें बीज रूप में एक व्यंजना उपस्थित कर रहा है जो उनके मन में छिपे अध्यात्मिक तत्व को भी व्यंजित कर रहा है |अनजाने ही सही | स्कन्द पुराण के अनुसार जब सृष्टि का उद्भव हुआ तो सारे ब्रह्माण्ड में जो ध्वनि उत्पन्न हुई वह ओंकार ही थी जिससे सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा था जो आज भी सब प्राणियों में नाद स्वरूप विद्यमान है | इंदिरा
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