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शुक्रवार, 31 मई 2013

virasat: bachpan -subhadra kumari chauhan


विरासत :

बचपन
सुभद्रा कुमारी चौहान
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी
चिंतारहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय-स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी
बनी हुई थी वहाँ झोपड़ी और चीथड़ों में रानी
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे?
बड़े-बड़े मोती से आँसू जयमाला पहनाते थे
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आई मुझको उठा लिया
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम गीले गालों को सुखा दिया
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चेहरे चमक उठे
यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल-छबीली थी
दिल में एक चुभन सी थी यह दुनिया अलबेली थी
मन में एक पहेली थी मैं सबके बीच अकेली थी
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियाँ भी न्यारी हैं
माना मैंने युवा काल का जीवन खूब निराला है
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है
किन्तु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना
आ जा बचपन एक बार फिर दे दे अपनी निर्म, शांति
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति
वह भोली सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी 
'माँ माँ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा
मुँह पर थी आल्हाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा
मैंने पूछा यह क्या लाई? बोल उठी वह- "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से मैंने कहा "तुम्हीं खाओ"
पाया मैंने बचपन फिर से प्यारी बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझमें नवजीवन आया
मैं भी उसके साथ खेलती-खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती  हूँ
जिसे खोजती थी बचपन से अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया

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5 टिप्‍पणियां:

indira pratap ने कहा…

Indira Pratap via yahoogroups.

संजीव भाई,
बहुत-बहुत धन्यवाद, बचपन याद दिला दिया, माँ हमको सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएँ खूब सुनाया करती थीं, अंतिम पंक्तियाँ सुनाते-सुनाते वह भी विभोर हो जाया करती थीं, बुंदले हर बोलों----, और वीरों का कैसा हो ------, तो हमें कंठस्थ ही हो गई थीं| सुभद्रा कुमारी के जल्दी निधन से साहित्य जगत में जो क्षति हुई उसकी भर पाई भी मुश्किल है| सुभद्रा कुमारी के प्रति श्रद्धा ने और माँ की याद ने भावुक बना दिया| बहुत बहुत बधाई|
दिद्दा

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta via yahoogroups.com

संजीव जी,

सच लिखा दिद्दा ने, पूरी तरह सहमत! बचपन याद आ गया! बहुत अच्छी कविता शेयर की आपने!

धन्यवाद
सादर,
दीप्ति

kanu vankoti ने कहा…

Kanu Vankoti

बहुत खूब
'माँ माँ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा
मुँह पर थी आल्हाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा

शुक्रिया

कनु

sanjiv ने कहा…

दि - दी, कनु जी
ऐसी कालजयी रचनाएँ मन-प्राण पुलकित कर देती हैं। क्या आज कोइ माँ अपने शिशु को ऐसे रचना सुना रही होगी? अगर नहीं तो नयी पीढ़ी के मूल्यों से दूर जाने का दोष किसे? आपको यह प्रयास रुचा...मैं आशीष पाकर धन्य हुआ

Santosh Bhauwala ने कहा…

Santosh Bhauwala via yahoogroups.com

आदरणीय संजीव जी,
रचना सांझा करने के लिए धन्यवाद, सच में बचपन याद आ गया शायद ये कविता हमारे कोर्स में थी पर तब पढना मजबूरी थी जिसे समझ भी नहीं पाए थे बस रट्टा मार लेते थे परअबके पढ़ी तो समझ में आई!
संतोष भाऊवाला