गीत (वाक्यांश पूर्ति) :
प्राण ही शब्दित हुए…
संजीव
*
गगन रीझा, गात ऊषा का, गुलाबी हो गया,
पवन चूमे बेल, चिर अनुराग गुपचुप बो गया।
थपक वसुधा को जगाता, रवि करों से हुलसकर-
सलिल सिकता से लिपटकर, पंक सारा धो गया।
हुआ मूर्तित जब अमूर्तित, भाव तब विगलित हुए
पञ्च तत्वों में पुलककर, प्राण ही शब्दित हुए...
*
राग ने रस सँग रचाई, रास रागिनि छेड़कर,
लास लख अनुप्रास भागा, लय किवड़िया भेड़कर।
अनुपमा उपमा यमक की, दिवानी जब से हुई-
अन्तरा को गीत-मुखड़ा, याद करता हेड़कर।
द्वैत तज अद्वैत वर कर, चाव रूपायित हुए
काव्य तत्वों में हुलसकर, प्राण ही शब्दित हुए...
*
संगमर्मर चन्द्र किरणों का, परस पा तर गया,
नर्मदा की लहरियों में, नाद कलकल भर गया।
ज़िंदगी पाने की खातिर, हौसला उम्मीद पर-
प्राण हँसकर कर निछावर, बाँह में भर मर गया।
राग तत्वों में 'सलिल' वैराग अनुवादित हुए
पञ्च तत्वों में उमगकर प्राण ही शब्दित हुए...
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
4 टिप्पणियां:
Sitaram Chandawarkar via yahoogroups.com
अद्भूत!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
आपकी गुणग्राहकता को नमन
Mamta Sharma via yahoogroups.com
आदरणीय सलिल जी दिद्दा का अर्थ नहीं समझ आया .
दार्शनिक रचना मन को सोचने पर विवश करने वाली .धन्यवाद हमें पढवाने के लिए .
सादर ममता
shar_j_n
आदरणीय आचार्य जी,
आप ही केशाब्दों में क्या बात, क्या बात, क्याबात! :)
गगन रीझा, गात ऊषा का, गुलाबी हो गया,
पवन चूमे बेल, चिर अनुराग गुपचुप बो गया।
थपक वसुधा को जगाता, रवि करों से हुलसकर-
सलिल सिकता से लिपटकर, पंक सारा धो गया।
हुआ मूर्तित जब अमूर्तित, भाव तब विगलित हुए
पञ्च तत्वों में पुलककर, प्राण ही शब्दित हुए... बहुत बहुत सुन्दर!
*
लास लख अनुप्रास भागा, लय किवड़िया भेड़कर। -- ये पंक्ति बहुत ही प्यारी!
अन्तरा को गीत-मुखड़ा, याद करता हेड़कर। --- :)
*
सादर शार्दुला
एक टिप्पणी भेजें