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बस्तर में 1876 का आदिवासी विद्रोह और झाड़ा सिरहा
बस्तर में हुए जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1876 में झाडा सिरहा के नेतृत्व में हुए भूमकाल अथवा विद्रोह की महत्वपूर्ण जगह है। इस आन्दोलन को बारीकी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि आदिवासी न केवल संघर्षशील कौम हैं, अपितु उनकी सिद्धांतवादिता का भी कोई सानी नहीं। 1876 के विद्रोह का दमन केवल इसीलिये हो सका था चूंकि आदिवासियों नें संयम और आदर्शवारिता की स्वयंस्थापित लकीर को पार नहीं किया था। आईये जानते हैं इस संघर्ष को विस्तार से:
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किसी भी क्रांति का सूत्रपात करने तथा उसे सुचारू रूप से संचालित करने का
श्रेय उसके नायक को जाता है। बस्तर अंचल में दो बेहद शक्तिशाली जन-आन्दोलन
हुए हैं वर्ष 1876 में तथा वर्ष 1910 में; जो लगभग व्यवस्था परिवर्तन की
कगार तक पहुँचे किंतु फिर छल-बल से उनका दमन कर दिया गया। ये दोनो ही
आन्दोलन क्रांति की मूल परिभाषा के अंतर्गत आते हैं जहाँ जनता अपनी इच्छा
की व्यवस्था के लिये स्वयं संगठित हुई। मेरी धारणा है कि क्रांति का कोई
ककहरा नहीं होता, क्रांति करने वालों को किसी रटे-रटाये वाक्यों या कि
नारों और झंडों की आवश्यकता नहीं होती। मार्क्स-लेनिन-माओ को पढ़े बिना भी
बदलाव आते रहे हैं और आयेंगे यह बात बस्तर के स्वत: स्फूर्त आन्दोलनों से
बेहतर और कहीं सिद्ध नहीं होता। निश्चित ही मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि
आधे बस्तर को लील चुका माओवाद न तो बस्तर का अपना आन्दोलन है न ही क्रांति
से इसका कोई लेना देना है। आन्दोलन तो झाड़ा सिरहा ने किया था; आईये जानते
हैं उसकी कहानी।
वर्ष 1876 तक अंग्रेजों की पकड़ बस्तर में
पूरी तरह मजबूत हो चुकी थी। वर्ष 1862’ में चर्चित दीवान दलगंजन सिंह की
मौत के बाद मोतीसिंह बस्तर राज्य के दीवान बनाये गये। दलगंजन सिंह जब तक
राज की बागडोर संभाले हुए थे अंग्रेजों को बहुत हद तक मनमानी करने की
स्वतंत्रता नहीं मिल रही थी। यही कारण है कि लाल दलगंजनसिंह के बाद राज्य
के जो भी दीवान बनाये गये वे अंग्रेजों की पसंद और सलाह से नियुक्त व्यक्ति
थे। यह स्वाभाविक था कि यहाँ के आदिवासियों के लिये सारा जंगल उनका है,
सारी जमीन उनकी है, सारा पानी उनका है और इसलिये कोई जमीन से जुड़ी सरकानी
नीति नहीं थी। दलगंजनसिंह ने अपने समय तक पटेली बन्दोबस्त को इस तरह लागू
रखा कि उसमें फसल उगाने वाले और राजा के बीच कोई बिचौलिया नहीं था। सीधे
फसल उगाने वाले से ही टैक्स वसूला जाता था। इसके लिये गाँव से ही किसी
आदिवासी को पटेल नियुक्त कर दिया जाता जो वसूली करके टैक्स राजकोष में जमा
करा देता। पटेलों से “हैसियत साल” नाम से सम्पत्ति कर वसूला जाता था। यहाँ
फ्लक्सिबिलिटी थी कि फसल अच्छी है तो लगान की दर अलग और खराब हुई तो अलग।
अगले दीवान मोतीसिंह ने टैक्स पेमेंट के ब्रिटिश पैटर्न को अपना लिया। इसका
उद्देश्य था ज्यादा लगान वसूलना। अब फसल उगाने वाले और राजा के बीच में
पूरी ब्यूरोक्रेसी काम करने लगी। फसल कैसी भी हो टैक्स फिक्ड है। दीवान
मोतीसिंह ने बंजारों पर भी आयात शुल्क और चरवाहा कर लगा दिया था। इससे
बंजारों की आमद कम होने लगी तथा राज्य का व्यापार प्रभावित होने लगा। यह
कदम एक तरह से कालाबाजारी को प्रोत्साहन भी था।
गोपीनाथ राउत
कपड़दार ‘वर्ष-1867’ मे ब्रिटिश आदेश पर दीवान नियुक्त किये गये। एक ‘राउत’
को दीवान आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। कपड़दार ने पूर्व दीवान मोती
सिंह से एक कदम आगे निकलते हुए ठेकेदारी प्रथा को राज्य में लागू किया।
उसने कर वसूलने का काम ठेके पर ग्रामप्रमुखों को दे दिया और इसी से वो
ठेकेदार भी कहलाने लगे। यह एक छद्म सुधार था। नाप-जोख के अनुसार टैक्स तय
कर दिया गया। जमीन की नाप का गणित तो किसी आदिवासी को समझ आता नहीं था।
किसने कितनी जमीन जोती और कितनी आमदनी हुई सारा गुणा-भाग हवा में होने लगा।
बढ़ा चढ़ा कर लगान वसूली करने का एक सिलसिला आरंभ हो गया। दीवान कपड़दार
ने प्रति जोत भूमि का मूल्यांकन एक रुपये से चार रुपये कर दिया। इमारती
लकड़ी पर अलग कर लगाया गया। शराब-लांदा-सलफी जो कि आदिवासियों की जिन्दगी
थी उस पर भी उत्पाद शुल्क लिया जाने लगा।
केवल दीवान ही नहीं
अंग्रेज भी अब नीतियों में सीधे हस्तक्षेप करने लगे थे। पैदावार बढ़ाने के
लिये परम्परागत कृषि के तरीकों को बदलने पर जोर दिया जाने लगा। फसल वह ली
जाने लगी जो अंग्रेजों को उपयोगी लगती थी। माँग ब्रिटेन में होती थी और
कच्चामाल आदिवासी तैयार करते थे। इसी बीच “वन सुरक्षा अधिनीयम’ को लागू
किया गया। यह बात समझी जानी चाहिये कि वनों को आदिवासियों से कभी खतरा नहीं
था तो फिर उन पर वन सुरक्षा अधिनियम के क्या मायने हो सकते थे? जितने जंगल
अंग्रेजों के आने के बाद कटे हैं उतना आदिवासियों की कई पीढ़ी मिल कर भी
नहीं काट सकती थी? यह सही है कि जूम कल्टिवेशन के लिये जंगल के हिस्से साफ
किये जाते हैं। आदिवासी इसके लिये ज्यादातर श्रब्स या झाडियों वाली जगहें
चुनते हैं। पच्चीस पचास पेड़ किसी गाँव ने जूम खेती के नाम पर काट भी दिये
तो वह इतना नुकसान हर्गिज नहीं था जो खुद अंग्रेज कर रहे थे। उनकी आरा
मशीने जंगलों को मैदान बनाती जा रही थीं।
राजा को पूरी
तरह अब नाम बना दिया गया था। हालाकि उसे सन-1865 से फ्यूडेटरी चीफ का
स्टेटस दिया गया था किंतु उसकी हैसियत एक ‘सेशन-जज’ जितनी ही थी। उसे किसी
भी बड़ी सजा या मृत्युदंड़ देने से पहले चीफ कमिश्नर से ऑर्डर लेने होते
थे। इससे राज्य के अधिकारी मनमानी पर उतर आये थे। घोड़ा और कोड़ा शान का
प्रतीक बन गया और रियाया की पीठ उनके अधिकारों की प्रदर्शनस्थली। काम जो भी
हो उसके लिये ‘बेगार’ लिया जाता। दाम माँगे जाने की सूरत में पीठ पर कोड़े
के निशान जख्म छोड़ दिया करते थे। राजा के लिये स्वेच्छा से बेगार करने
वाले आदिम भी थे। राजा उनका ‘देव’ जो था; लेकिन उसके माहतहत? लगान के बोझ
के बाद भी उन्हें नोचा जाता। किसी मुंशी की बीवी का जी मचलाये तो शाम को
बोरा भर इमली उसकी देहरी पर होती थी, वह भी बिना दाम चुकाये। कुछ आदिवासी
तो संपन्न लोगों के खरीदे हुए दास थे। इधर अंग्रेज भी बस्तर के राजा और
निकटवर्ती रियासतों को छोटी छोटी बातों के लिये उलझाये रखते थे तथा अपने
मनमाने फैसलों से किसी को अपमानित तो किसी के अहं को तुष्ट करते रहते थे।
उदाहरण के लिये जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी।
जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये
वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी
बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंग्रेजों ने
इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव किया। हथिनी को पहले सिरोंचा यह कह कर
मंगवा लिया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा। बाद में उसे जैपोर
स्टेट को वापस सौंप दिया गया। वस्तुत: यह बस्तर के राजा को नीचा दिखाने की
एक हरकत ही थी।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक दिन राजा ‘प्रिंस
ऑफ वेल्स’ के स्वागत के लिये दिल्ली रवाना हो रहे थे। काफिले में सबसे पीछे
कई आदिवासी “बेगारी” थे, जो बोझ ढ़ोए चल रहे थे। काफिला जहाँ-जहाँ से
गुजरता गाँव का गाँव राजा को देखने उमड़ आता। बच्चों के लिये यह जुलूस एक
कौतूहल था तो युवाओं के लिये जिज्ञासा। जबकि कई बूढ़े-आदिम राजा के आगे
दण्ड़वत हो रहे थे। सब कुछ सामान्य लग रहा था। काफिला बड़े-मारेंगा पहुँचा।
तभी जुलूस ठहर गया। अभी जगदलपुर से महज चौदह किलोमीटर का सफर तय हुआ था।
‘आगरवारा परगना’ का माँझी और उसके साथ लगभग पाँच सौ मुरिया आदिवासियों ने
राजा के काफिले को घेर लिया था। आदिवासियों राजा को दिल्ली न जाने का
अनुरोध कर रहे थे। उनके अनुसार यदि राजा ही रियासत के बाहर चले गये तो संभव
है अंग्रेज उन्हे दुबारा यहाँ आने नहीं देंगे। उनकी अनुपस्थिति में राज्य
के सरकारी कर्मचारियों की मनमानी बढ़ जायेगी। आदिवासियों को मुख्य नाराजगी
दीवान गोपीनाथ कपड़दार तथा दण्ड न्यायालय के प्रमुख अदितप्रसाद से थी।
आदिवासियों द्वारा भैरमदेव को इस तरह रोकना उनके प्रति सम्मान दिखाना था।
वह व्यवस्था, जिसके आधीन हुई नृशंसताओं की दास्तान सुनायी और दिखायी गयी,
उसका दायित्व स्वयं राजा का ही था।
दीवान ने राजा के आगे की
यात्रा का मार्ग तैयार कर दिया। सशस्त्र सिपाहियों के हथियार कंधे से उतर
कर हाँथों में आ गये। अंगरक्षक सिपाहियों के हवा में लहराते कोड़ों की सांय
सांय भीड़ को धमकाने के लिये थी। लेकिन अपेक्षा के विपरीत आदिवासी अड़
गये। “मैं राजा का सामान आगे नहीं ले जाउंगा” एक मुरिया बेगारी सम्मुख आ
गया। उसकी आखों में बात नहीं मानने की शर्मिन्दगी के साथ साथ, बात नहीं
मानूंगा की जिद थी। जैसे ही उसकी अवज्ञा का प्रत्युत्तर कोडे से दिया गया
बात पूरी तरह बिगड़ गयी। सभी आदिवासियों ने राजा का सामान नीचे रख दिया।
स्वाभाविक विरोध का उत्तर दमन नहीं होता है। बात बिगड़ गयी। मुरिया, राजा
को आगे नहीं जाने देने पर तुल गये। बात दीवान की प्रतिष्ठा पर आ गयी थी।
‘बेगारी’ सामान ढ़ोने को तैयार नहीं और ग्रामीण काफिले को आगे बढ़ने देने
के लिये सहमत नहीं हो रहे थे। राजा हाँथी पर बैठ गये लेकिन एक कदम आगे
बढ़ना संभव नहीं था। दीवान की भाषा कड़वी और धमकी भरी थी जिससे मुरिया शांत
होने की जगह और गुस्से से भर गये। बात आर या पार पर आ गयी। आखिरकार दीवान
की आज्ञा से भीड़ पर गोली चलायी जाने लगी। कुछ ही देर में हाय तौबा और चीख
पुकार के बाद चुप्पी हो गयी। तीन लाशों और अठारह गिरफ्तारियों के बाद हुई
इस शांति में तूफान के आने की सुनिश्चितता अंतर्निहित थी। भैरमदेव ने
स्थिति को समझा और अपनी दिल्ली यात्रा स्थगित कर दी।
राजा का
काफिला जगदलपुर लौट आया। गिरफ्तार मुरिया कुरंगपाल जेल भेज दिये गये।
गोपीनाथ कपड़दार के लिये तो राजा का वापस लौटना उसकी प्रशासनिक क्षमता की
पराजय थी। उसकी क्या इज्जत रह गयी? आदिवासियों पर ही हुकूमत नहीं चला सका,
तो किस काम का दीवान? वह एक पल भी जगदलपुर में नहीं रुका। घुड़सवार सैनिक
टुकड़ी ले कर सीधे कुरंगपाल आ पहुँचा। दीवान से इस मूल्यांकन में चूक हो
गयी कि विद्रोही हो जाने के बाद परिणाम कौन सोचता है? पतंगे जान कर और
होश-हवास में ही शमां पर मर मिटते हैं। वह गिरफ्तार कैदियों पर ज्यादती कर
अपनी हताशा का प्रतिशोध लेना चाहता था। आततायी हमेशा जोश में होते हैं
किंतु वे आम जन के होश का सही मूल्यांकन कभी नहीं कर पाते। दीवान का
कुरंगपाल आना कोई तय योजना नहीं, गुस्से में उठाया गया कदम था। कुरंगपाल
आते हुए सैनिकों ने भी आतंक फैलाने का ही काम किया। किसी का घर उजाड़ दिया
तो किसी के जानवर खोल दिये या किसी की पीठ कोड़े की मार से उधेड़ दी।
अफरा-तफरी फैला दी गयी थी, बदला लिया जा रहा था।
कैदियों को जबरन
जगदलपुर ले जाने के लिये निकाला गया। सैनिकों और कैदियों में जोर आजमाईश
हो ही रही थी कि चार-पाँच सौ मुरिया ग्रामीण अचानक सैनिकों पर झपट पड़े।
दीवान को अपने लिये खतरे का जैसे ही आभास हुआ उसने एक पल भी नहीं गँवाया और
अपना घोड़ा राजधानी की ओर भगा लिया। भीड़ ने सभी कैदी छुड़ा लिये थे।
दीवान के कुछ सिपाही तो भाग निकले लेकिन जो भी मुरियाओं के हत्थे चढ़े
उन्हें अधमरा कर दिया गया। अब विद्रोह स्वरूप लेने लगा। मुरियाओं के सामने
माँगे साफ हो गयी थीं। दीवान गोपीनाथ कपड़दार, दण्ड न्यायालय का प्रमुख
अदित प्रसाद और राजा के तमाम वो मुंशी जिन्हे दीवान ने नियुक्त किया था,
विद्रोहियों के निशाने पर थे। इस बीच विद्रोही मुरिया आरापुर गाँव में
एकत्रित हुए और सबने मिल कर ‘झाड़ा-सिरहा’ को नेता चुन लिया गया था।
चमत्कारी था झाड़ा सिरहा। जादू टोना जानता था। सब मानते थे कि उसने बहुत से
पिरेत बस में किये हैं जिनसे वह अपनी बात मनवा लेता है। वस्तुत: किसी भी
व्यक्ति की नायक के रूप में स्वीकार्यता उसमे अंतर्निहित विशिष्ठताओं के
कारण ही होती है। नेतृत्व के गुण झाड़ा सिरहा में कूट कूट कर भरे थे। उसके
दिशा निर्देश पर विद्रोह की स्वीकार्यता को प्रसारित करने का निर्णय लिया
गया तथा भागीदारी में सहमति के लिये प्रतीक स्वरूप तीर को गाँव गाँव भेजा
गया। जगदलपुर और उससे लगे सभी गाँव-परगने विद्रोह के लिये तत्पर थे। तीर
स्वीकार कर लेने का अर्थ ही विद्रोह को गाँव का समर्थन प्राप्त होना था।
प्रतीक के रूप में गाँवों के खलिहान में आम की डाल रोंप दी गयी। अपेक्षित
परिणाम भी सामने था। राजा की ओर से भी विद्रोह को टालने और सुलह करने की
कोशिशे तेज हो गयीं। अपने सभासदों - ‘कुँअर दुर्जनसिंह’ और ‘दुबेदानी’ को
राजा भैरमदेव ने विद्रोह का आंकलन करने और सुलह की जमीन तलाशने के लिये
भेजा। झाड़ा सिरहा से बातचीत के बाद इस बात पर स्वीकार्यता बनी कि राजा
स्वयं विद्रोहियों से बात करने आयेंगे।
राजा के सुलह के लिये आने
की खबर ने विद्रोहियों के उत्साह को दुगुना कर दिया। वे यही तो चाहते थे।
झाड़ा सिरहा ने एहतियात बरतते हुए अलग अलग स्थानों पर ढ़ेर बना कर पत्थर और
हड्डियाँ जमा करवा दीं। उसने विद्रोहियों को उनके शस्त्रों के हिसाब से
विभाजित कर दिया था। कोई भी हमला होने की स्थिति में उसका उत्तर दिया जा
सकता था। दोपहर ढ़लने लगी थी। राजा की पालकी आरापुर पहुँची। राजा आपनी
सैनिक तैयारियों और सिपहसालारों के साथ पहुँचा था। एक सफेद घोड़े में वहाँ
राजा का चचेरा भाई लाल कालिन्द्र सिंह भी उपस्थित था जिनके पिता रियासत के
दिवंगत बहुचर्चित दीवान दलगंजन सिंह थे। विद्रोहियों और राजा में बात
सौहार्द पूर्ण वातावरण में आरंभ हुई। बहुत संभव था कि राजा और विद्रोही
किसी मान्य समझौते पर पहुँच भी जाते कि तभी एक दम से अराजकता फैल गयी थी।
अचानक दीवान का घोड़ा आरापुर में आते देख कर विद्रोहियों के सब्र ने जवाब
दे दिया। दीवान के खिलाफ पनप चुका आक्रोश इतना अधिक था कि उसे देखते ही
जनसमूह के समक्ष राजा की उपस्थिति भी गौँण हो गयी। दीवान और राजा, दोनों ने
ही इस बात की कल्पना नहीं की थी। अब तक तो यही होता आया था कि राजा का
वाक्य अंतिम था।
मुरिया अपना आपा खो बैठे और सब कुछ अनियंत्रित
हो गया। दीवान को निशाना बना कर पत्थर और हड्डियाँ फेंकी जाने लगी। कपड़दार
बचाव के लिये राजा की पालकी की आड़ लेने लगा। विद्रोह के कारणों के
केन्द्र में तो वही था और तनाव के माहौल में उसके घोड़े पर बैठ कर आने ने
बुझाई जा रही चिंगारी को सुलगा कर दावानल बना दिया। अब बात राजा के हाँथ के
बाहर थी। सुरक्षा सैनिकों ने राजा और दीवान को घेरे में ले लिया।
विकल्पहीन राजा ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। एक ओर से गोली चलाई जाने
लगी और दूसरी ओर से भीड़ पर हाँथी सवार सैनिक छोड़ दिये गये। छह मुरिया
आदिवासी मारे गये। दीवान सहित कई सैनिक भी घायल हुए। राजा और दीवान लगभग बच
कर वापस लौट आये थे। विद्रोही तितर बितर अवश्य हुए लेकिन अब उनके द्वारा
पुन: संगठित हो कर अधिक आक्रामक जवाबी कार्यवायी किये जाने का अंदेशा था।
जल्दबाजी में महल के भीतर अनाज का भंडारण किया गया। महल के सभी द्वार बंद
कर दिये गये। ज्वालामुखी फट पड़ने से पहले सदियों घुटन सहता है, फिर कठोर
चट्टानों को पिघला कर लावा अपना मार्ग बनाता हुआ भयंकर विस्फोट के साथ बाहर
निकल आता है। इसके बाद एक नयी भू-आकृति होती है, नयी शिलायें जन्म लेती
हैं नया वातावरण बनता है। झाड़ा सिरहा और उसके साथियों के लिये यह परीक्षा
की घडी थी। रात होने से पहले ही हजारो विद्रोही मुरिया जगदलपुर पहुँच गये।
अचरजपूर्ण रूप से बढ़ते बढ़ते यह संख्या बीस हजार से अधिक हो गयी। झाड़ा
सिरहा की सोच और उसका रण कौशल देखते ही बनता था। घेराबन्दी इस तरह की गयी
कि महल के भीतर न तो अनाज भेजा जा सकता था न ही पानी। महल से बाहर किसी तरह
भी कोई संदेश नहीं ले जाया जा सकता था। इसी तरह दिन और महीने बीतते जा रहे
थे।
राजमुरिया आदिवासियों ने राजधानी को चार महीनों से घेरा हुआ
था। बीस हजार से अधिक नरमुंड़ अपना काम-काज, खेती-शिकार, परब-तिहार सब कुछ
छोड़ कर एकत्रित थे। इन राजमुरियाओं में से हर एक सशस्त्र था। गंडासा,
फरसा, टंगिया, भाला, तलवारें और धनुष-बाण से सुसज्जित यह भीड़ जिस क्षण
चाहती राजधानी उनकी होती। आन्दोलन व्यवस्था को उलट देने के लिये ही नहीं
होते। आन्दोलन इस लिये भी होते है कि व्यवस्था को जन-सामान्य के अनुरूप
ढ़लने के लिये बाध्य किया जा सके। अन्यथा दुविधा क्यों थी? अंग्रेजी सत्ता
ने राजा को बिना दाँत का कर ही दिया था। उसे सीमित संख्या में सैनिक रखने
की अनुमति थी। महल में इतने सैनिक नहीं थे कि सामने एकत्रित राजमुरियाओं के
संगठित हमले का जवाब दे सकें। आदिवासी अगर ठान लेते तो भैरमदेव काकतीय वंश
के आखिरी राजा होते। ताकत ही सर्वोपरि नहीं होती। झाड़ा-सिरहा का अनुमान
था कि महल मे अन्न के भंडार और जल संसाधन सीमित हैं। विद्रोहियों ने सरकारी
खजाने को हथिया लिया था। जानकार मुरियाओं से खजाने की गिनती करवायी गयी।
आठ से दस मुरिया कोष की निगरानी में तैनात किये गये। जिस गर्व से वह
व्यवस्था को चुनौती दे रहा था यह देखते ही बनता था। यह लड़ाई भैरमदेव की
जगह झाड़ा-सिरहा की सत्ता निरुपित करने के लिये नहीं थी। यह लड़ाई किसी
धारा-विचारधारा या वाद की परिणति भी नहीं थी।
राजमहल के भीतर भी
इन परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिये निरंतर मंथन चल रहा था। पहले
राजगुरु लोकनाथ को समझौते के लिये झाड़ा सिरहा के पास भेजा गया किंतु
विफलता ही हाथ लगी। अब एक नाटकीयता पूर्ण साजिश रची गयी। अंग्रेजों से
सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से एक पत्र लिखा गया। अब समस्या किसी भी
तरह इस पत्र को जयपोर पहुँचाने की थी। चिठ्ठी को एक मिट्टी की हाँडी की तली
में रख कर मोम से भर दिया गया। हाँडी में उपर तक पेज भरा गया। मोम और पेज
का रंग एक ही होता है अत: यदि विद्रोही जांच भी करते तो चिट्ठी के पकडे
जाने की संभावना न्यूनतम थी। हाँडी बाहर ले कर जाने के लिये जिस महिला का
चयन किया गया था वह ‘माहरा जाति’ की थी। योजनाकार जानते थे कि महारा जाति
के आदिमों की सामाजिक स्थिति हीन मानी जाती है। आम तौर पर माहरा जाति के
लोग गाँव में कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। वे किसी भी मुरिया ग्राम के
आवश्यक निवासी होते हैं। इन कारणों को देखते हुए माहरा महिला की तलाशी होने
की संभावना नहीं थी। एक अन्य कारण था कि माहरा ही विद्रोही और राजा के
लोगों के बीच सूचना का आदानप्रदान भी कर रहे थे अत: महिला का महल से पेज
भरी हांडी ले कर निकलना साधारण बात ही मानी जाती।
यह साजिश पूरी
तरह से कामयाब हुई। राजगुरु विद्रोहियों से समझौता करा पाने में मिली
विफलता को राजा की नाराजगी बता कर महल से बाहर चले आये। माहरा महिला जैसे
ही चिट्ठी को विद्रोहियों से बचा कर निकाल लाने मे सफल हुई, राजगुरु लोकनाथ
ने हांडी फोड कर उसे बाहर निकाल लिया। यह चिट्ठी कोरापुट में जा कर पोस्ट
कर दी गयी। अंग्रेजों के लिये तो अंधा क्या चाहे दो आँखें वाली बात थी।
विद्रोह को दबाने के बहाने राज्य की गर्दन अधिक बेहतर तरीके से दबाई जा
सकती थी। तुरंत ही सिरोंचा से थलसेना की तीन रेजिमेंट जगदलपुर के लिये
रवाना हुई। पड़ोसी राज्यों की पुलिस को भी अभियान का हिस्सा बनाया गया।
अंग्रेज कमाण्डर मैक्जॉर्ज ने इस सेना का नेतृत्व किया। इधर महीनों की
घेराबंदी ने झाड़ा सिरहा को निश्चिंत बना दिया था। विद्रोही ‘राज-मुरिया’
अपनी जीत सुनिश्चित मान कर चल रहे थे। उनका अनुमान था कि पानी और रसद की
महल में कमी हो गयी है। किसी भी समय उनकी जीत हो सकती है। लम्बे अंतराल के
कारण घेराबंदी की सुदृढ़ता में भी कमी आ गयी थी। एक समय में महल के गिर्द
दस हजार से अधिक मुरिया एकत्रित रहा करते थे, घटते घटते यह संख्या, अब
चार-पाँच हजार रह गयी थी। अचानक हमला हो गया। कुछ मुरिया उस समय खाना खा
रहे थे तो कुछ सुस्ता रहे थे। गोलियाँ चलने की आवाजों के साथ ही सबको पैरों
के नीचे से जमीन जाती दिखाई पड़ी। प्रतिरोध अव्यवस्थित हो गया। नगाड़े जोर
जोर से पीटे जाने लगे जिससे विद्रोही खतरे के प्रति सजग हो जायें और
आक्रमण के लिये तैयार हो सकें। नगाड़े की आवाज उन मुरियाओं के लिये भी
संदेश था जो निकट के गाँवों में हों और अपने साथियों को सहयोग करने के लिये
आ सकें। बहुत देर हो चुकी थी और चिडिया ने खेत चुग लिया। विद्रोही जी-जान
से लड़े। कोई तय योजना नहीं रह गयी। कोई पेड़ पर चढ़ कर तीर चला रहा था तो
कोई बंदूख से फरसे-भाले लिये भिड़ गया। झाड़ा सिरहा ने भगदड़ रोकने की भरसक
कोशिश की। अंतिम परिणाम उसकी समझ में आ गया। अग्रेजों ने झाड़ा सिरहा को
पकड़ कर न केवल मार ही डाला अपितु उसके पार्थिव शरीर को इन्द्रावती नदी में
बहा दिया गया। एक वीर आदिवासी योद्धा की कहानी का यह दु:खद अंत था।
झाड़ा सिरहा का दुख़द अंत इस लिये कहना होगा चूंकि स्वयं मैकजॉर्ज मानते
थे कि मुरिया वस्तुत: अपनी जीती हुई लड़ाई केवल नैतिकता के कारण हार गये
थे। मैक्जॉर्ज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि “विद्रोहियों की संख्या इतनी
थी कि वे किसी भी समय आक्रमण कर के महल पर कब्जा कर सकते थे, लेकिन
उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहाँ तक कि जब हमने पीछे से इनपर आक्रमण किया तब
भी यदि ये चाहते तो महल पर हमला कर अधिकारियों की हत्या कर सकते थे,
उन्होंने वह भी नहीं किया। सबसे आश्चर्यजनक था कि विद्रोहियों ने राजा का
लूटा हुआ खजाना उसे सही सलामत लौटा दिया था।“ इसी रिपोर्ट में मैक्जॉर्ज ने
आगे जानकारी दी है कि “जब मुरियाओं ने घेराव कर रखा था तब राजपरिसर में ही
उनकी पहुँच में राजकीय जेल भी था। जेल की सुरक्षा में राजा के कुल बीस
सिपाही से अधिक तैनात नहीं थे। जेल भी कोई बहुत मजबूत नहीं था, इसकी दीवारे
मिट्टी की और छप्पर घास-फूस की थीं। मुरिया विद्रोही जब चाहते जेल की
दीवारे तोड़ कर कैदियों को मुक्त करा सकते थे। इनमे कई कैदी तो विद्रोहियों
के साथी भी थे। लेकिन ऐसा संयम रखा गया जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती।“
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ऐसा नहीं था कि यह विद्रोह केवल पराजय की दास्तान भर था। आदिवासियों की
सभी व्यवहारिक माँगे मान ली गयीं। यद्यपि कुछ विद्रोही भी गिरफ्तार किये
गये थी साथ ही साथ गोपीनाथ कपड़दार, अदितप्रसाद और लोकनाथ ठाकुर को भी
गिरफ्तार कर लिया गया। उन सभी मुंशियों को जिन्हें दीवान के आदेश से काम पर
रखा गया था, उन्हें टर्मिनेट कर दिया और रियासत से बाहर जाने के ऑर्डर दे
दिये गये। इसके बाद अपनी फितरत के अनुसार मैक्जॉर्ज ने ‘आदिवासी वर्सेज नॉन
आदिवासी’ का कार्ड खेला तो इस लड़ाई का विलेन चेहरा दीवान और उसके लोग ही
रह गये। इसके साथ ही 8 मार्च 1876 को पहली बार मुरिया दरबार बुलाया गया।
दरबार में मैक्जॉर्ज ने राजा और विद्रोही मुरिया नेताओं से आमने-सामने बात
की। चाल यह थी कि विद्रोही अगर राजा के प्रति जरा भी असंतोष दिखाते तो
भैरमदेव को भी गिरफ्तार किया जा सकता था किंतु योजना से ठीक उलट, न चाह कर
भी ‘मुरिया दरबार’ में अंग्रेजों को ‘राजा और प्रजा’ के बीच सुलह कराने में
अपनी उर्जा खर्च करनी पडी।” मुरिया दरबार इसके पश्चात प्रतिवर्ष की
अनिवार्य परम्परा बन गयी तथा आज भी दशहरे के पश्चात सिरासार में इसे
प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। निष्कर्षत: झाड़ा सिरहा का बलिदान व्यर्थ नहीं
गया था तथा 1876 का आन्दोलन मुरिया आदिवासियों की सफलता का इतिहास है।
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