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शुक्रवार, 10 मई 2013

hindi poem, geedh, acharya sanjiv verma 'salil'


एक कविता:
गीध 
संजीव 
*
जब 
स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध, 
तब 
समझ लो आदमी 
इंसान नहीं रह गया 
बन गया है गीध।
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

2 टिप्‍पणियां:

achal verma ने कहा…

achal verma

आ.आचार्य सलिल ,
यथार्थ ।
वैसे आदमी के कई और रूप समय समय पर दिखते रहते हैं
जिनमे गीद्ध भी एक है :

"कुछ लोग स्वान होते हैं , कुछ होते सूकर
कुछ लोमडियाँ भी दिखे यहाँ कुछ लगते तीतर
चमगादड भी लोग कभी बन जाते हैं
पशुओं से मानव के तो ढेरों नाते हैं ॥
गिरगिट जैसे हम रंग बदलते जाते हैं
जब भी हम कोई अवसर जग में पाते हैं ॥"........अचल वर्मा , ५-१०-२०१३ ॥

indira pratap ने कहा…

एकदम सत्य वचन संजीव भाई , तीखा व्यंग , बधाई ,दिद्दा