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गुरुवार, 16 मई 2013

sarita sharma

सरिता शर्मा



गीत-

ज्वार उठते हैं,
नदी की हर लहर
पागल हुई...!

दूर नभ से झांकता है
चाँद, जल में -
चांदनी करवट बदलती है,
फूल की डाली
लचकती, झूमती है,
खुशबुएँ बेकल
मचलती है
रात पल भर सो न पाई
और सहर पागल हुई....!!
ज्वार उठते हैं नदी की
हर लहर पागल हुई...!

दौड़ते, गिरते
सम्भलते पाँव..
थमते ही नही
सरपट ढलानों पर ...
कब कहां से
आ लिपटते सर्प
चन्दन के खजानों पर

गंध बौरायी
बहकती सी उमर पागल हुई...!!!
ज्वार उठते हैं नदी की हर लहर पागल हुई...!

*
मुक्तक



चलाओ तीर तुम, मुझको सहन करना ज़रूरी है
ज़हर हो या कि अमृत, आचमन करना जरूरी है
विधाता ने मुझे जननी बनाकर जग में भेजा है--
सृजन की भूमिका में हूँ, सृजन करना ज़रूरी है!

*

ठेस लगी तो फिर भर आया खारा पानी आँखों में
ढुलक गया कब तक रहता बेचारा पानी आँखों में
बरसों-बरस बहा- छलका अब भी उतने का उतना है-
लगता है भर गया जगत का सारा पानी आँखों में.....!!!

*
छंद



"आज तेरी बगिया से मेहंदी चुराके मैंने,
हाथ पे रचाई तो हथेली हंसने लगी
कल्पना में आके तूने हौले से जो छू लिया तो,
कामना में प्रीत की पहेली हंसने लगी
जाने क्या हुआ मुझे अकेली कभी रोई और,
अगले ही पल मैं अकेली हंसने लगी
सुध -बुध भूल गयी, सपनों में झूल गयी,
मेरी दशा देख के सहेली हंसने लगी. "
*
गजल



कागजों के गुलाब मत देना
कोई झूठा खिताब मत देना

गर तुम्हे नागवार लगता है
मेरे खत का जवाब मत देना

आँख खुलते ही टूट जाए जो
अब हमे ऐसा ख्वाब मत देना

रोशनी से डरी निगाहों को
तुम कोई आफताब मत देना

खून उल्फत का जो करे 'सरिता'
ऐसे खंज़र को आब मत देना .
*

बस कभी बददुआ नही देते
वरना दरवेश क्या नही देते

तेरी खुद से ही खुद जिरह होगी
जा ..तुझे हम सजा नही देते

डूबते थे तो डूब जाते हम
नाखुदा को सदा नही देते

दुश्मनी खुल के हम निभाते हैं
दोस्त बन कर दगा नही देते

वो जो नफरत के डाकिये हैं उन्हें
अपने घर का पता नही देते.!
*
 कविता



मन
उदास
है!

बरसों -बरस पुरानी कुछ
यादों के
बेहद आस-पास है!!

एक कंटीली झाडी में
दामन उलझा
उलझन में ज़्यादा
कांटो में
कम उलझा
और समय की उस झाडी में
कलियों सा , फूलों सा
वह दिन बहुत
ख़ास है!!
मन
उदास
है!!!

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