मुक्तक:
संजीव
*
उषा कर रही नित्य प्रात ही सविता का अभिनन्दन
पवन शांत बह अर्पित करती यश का अक्षत-चंदन
दिग्दिगंत तक कीर्ति पा सकें छेड़ रागिनी मीत
'सलिल' नमन स्वीकारें, जग को कर दें मिल नंदन वन
*
मुक्तिका:
संजीव
*
कारवाले कर रहे बेकार की बातें
प्यारवाले पा रहे हैं प्यार में घातें
दोपहर में हो रहे हैं काम वे काले
वास्ते जिनके कभी बदनाम थीं रातें
दगा अपनों ने करी इतिहास कहता है
दुश्मनों से क्या गिला? छल से मिली मातें
नाम गाँधी का भुनाते हैं चुनावों में
नहीं गलती से कभी जो सूत कुछ कातें
आदमी की जात का करिये भरोसा मत
स्वार्थ देखे तो बदल ले धर्म मत जातें
नुक्क्डों-गलियों को संसद ने हराया है
मिले नोबल चल रहे जूते कभी लातें
कहीं जल प्लावन, कहीं जन बूँद को तरसे
रुलाती हैं आजकल जन- गण को बरसातें
***
मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए
रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए
बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए
आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए
देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए
मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए
छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
***
मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बात को जानते मानते हैं सदा
बात हो मानने योग्य तो ही कहें
वायदों को कभी तोडियेगा नहीं
कायदों का तकाज़ा नहीं भूलिए
बाँह में जो रही चाह में वो नहीं
चाह में जो रहे बाँह में थामिए
जा सकेंगे दिलों से कभी भी नहीं
जो दिलों में बसे हैं, नहीं जाएँगे
रौशनी की कसम हम पतंगे 'सलिल'
जां शमा पर लुटा के भी मुस्काएँगे
***
११-८-२०१५
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 11 अगस्त 2021
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