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शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

रासबिहारी पांडेय

स्मरण :
अनूठे व्यंग्यकार रासबिहारी पांडेय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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हिंदी में व्यंग्य लेखन की परंपरा को पुष्ट करने में जिन साहित्यकारों ने आजीवन समर्पित भाव से अपने लेखनी को गतिशील रखा, उनमें सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी नगरी जबलपुर, मध्यप्रदेश के स्मृतिशेष व्यंग्यकार रासबिहारी पांडेय का स्थान महत्वपूर्ण है। नर्मदा का नीर पारदर्शी और धार तेज है। यहाँ की लोकभाषा बुंदेली में बृज और अवधी का माधुर्य और राजस्थानी-हरयाणवी का खड़ापन दोनों मिश्रित है। ऐसा ही स्वभाव इस अंचल के रहवासियों का है। रासबिहारी पांडेय जी के व्यक्तित्व-कृतित्व में ये दोनों गुण (दुनियादारी के हिसाब से अवगुण) कूट-कूटकर भरे थे। इसलिए अहर्निश साहित्य साधना करने के बाद भी वे वह ख्याति और सम्मान नहीं पा सके जिसके वे पात्र थे। आपका जन्म ३० नवंबर १९३३ को जबलपुर में हुआ, आजीवन जबलपुर में शैक्षणिक, साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक गतिविधियों में संलग्न रहकर २६ जुलाई १९९३ को आपने परलोक के लिए प्रस्थान किया। 

हिंदी व्यंग्य के शलाका पुरुष हरिशंकर जी परसाई का व्यक्तित्व और कृतित्व वट वृक्ष की तरह था। कहते हैं की वट की छाँव में और कोई पौधा नहीं पनप पाता। रासबिहारी जी के जीवट का प्रमाण यही है कि वे वट वृक्ष की छाँव में रहकर भी न केवल पनप सके अपितु उन्हें वट वृक्ष का आशीष भी मिलता रहा। बहुधा लेखन और लेखक के स्तर भिन्न पाए जाते हैं किन्तु रासबिहारी जी इस मामले में अपवाद थे। वे न तो परनिंदा रस में पगे, न स्तुति रस के सगे हुए। वे जीवन के ऊँचे-नीचे सफर में सदैव मानी बने रहे, अभिमानी कभी नहीं हुए। वे व्यंग्य की कुनैन को विनोद के गुड़ में लपेट कर परोसते रहे। 

अर्थ शास्त्र में  स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने बी.एड. किया, शिक्षक हुए और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर सफलता और यश दोनों का अर्जन किया। जबलपुर जिला हिंदी सम्मेलन के महामंत्री, गुंजन कला सदन के उपाध्यक्ष, मित्र संघ के साहित्यिक संयोजक, सरयू सौरभ मासिकी के संस्थापक संपादक, युवा एकता छात्र संघ के संरक्षक, व्यंग्यकार परिषद् के अध्यक्ष, मिलान तथा हिंदी मंच भारती के विशिष्ट सदस्य  में लगभग ४ दशकों तक रासबिहारी पाण्डे जी अपनी आभा से नगर के साहित्य जगत को प्रकाशित करते रहे। 

सज्री रास बिहारी पांडेय ने साहित्यिक सृजन यात्रा का श्रीगणेश वर्ष १९५१ में 'कुणाल' नाटक लिखकर किया। तत्पश्चात कहानी की डगर से होते हुए वे व्यंग्य लेखन के राजमार्ग के पथिक हो गए।स्पीकर क्रांति  जनवरी १९७८ में 'उधार का भाषण' व्यंग्यात्मक निबंध संग्रह के प्रकाशन के साथ ही उनकी ख्याति सिद्धहस्त व्यंग्य लेखक के रूप में हो गयी थी। कृति के आमुख में स्व. हरिशंकर परसाई ने लिखा "पांडेय जी  विस्तृत हैं इसीलिए दोनों प्रकार की विसंगतियां वे पकड़ पाए हैं। उनमें हास्यास्पद और बेढंगी स्थितियों की पकड़ है। साथ ही वे अपने ऊपर भी हँस लेते हैं, अपने को तटस्थ भाव से लेते हैं। व्यक्ति के बेढंगेपन का चित्रण उन्होंने अच्छा किया है, वह तथाकथित इंटेलेक्चुअल हो या उधार लेनेवाला। ........पांडेय जी जीवन को खुली आँख देखते हैं, उसमें विसंगति खोजते हियँ और उनके पास अभिव्यक्ति के लिए सरल और समर्थ भाषा है।' सुकवि, सांसद और महापौर जबलपुर भवानीप्रसाद तिवारी जी के शब्दों में -" श्री रासबिहारी पांडेय की 'उधार का भाषण' पुस्तक व्यंग्यपूर्ण निबंधों का संग्रह है ..... लेखनी के ललित्य ने अंतिम प्रौष्ठ तक लालित्य बनाये रखा।अतएव इस संग्रह को ललित व्यंग्य निबंधों की पुस्तक कहना मुझे अधिक उचित जान पड़ता है। व्यंग्य विधा की साधना सहज नहीं होती। व्यंग्य की प्रकृति स्वभावत: तीव्र होती है, अतएव व्यंग्य के साथ बहुधा 'बाण' शब्द प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत पुस्तक के निबंधों में 'व्यंग्य-बाण' कहीं नहीं है अपितु 'व्यंग्य कुसुम' सर्वत्र बिखरे हैं जो अपने स्पर्श से गुदगुदाते हैं। घटनाएँ और समस्याएँ शिष्ट हास्य के सूत्र से संबद्ध हैं, चरित्र ऐसे उभरे हैं कि समाज के बीच में पहचाने जाते हैं। यही व्यंग्य की कला में सफल परिणति है।'  प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्य मायाराम सुरजन के अनुसार 'श्री पांडेय की शैली में निजता और भाषा में सहजता है।' रायबरेली के प्रसिद्ध कवि मधुकर खरे के शब्दों में रासबिहारी जी के व्यंग्य ह्रदय को स्पर्श करते हैं, उसका छेदन नहीं करते।' साहित्यिक पत्रिका सरस्वती के यशस्वी संपादक देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त' लिखते हैं - 'इनकी अभिव्यक्ति में व्यंग्य का पुट अनावश्यक विस्तार से सहज ही बचकर अपन काम कर जाता है और यही विशेषता उन्हें कुशल व्यंग्यशिल्पी की संज्ञा प्रदान पर देती है।' राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' की दृष्टी में 'पांडेय जी समाज के उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो दुःख-दर्द और अभाव को मात्र फिल्म में नहीं देखता अपितु उन्हें स्वयं झेलता, ठेलता और उनसे खेलता है।  इसीलिए उनके लेखन में सजीवता है, पैनापन है, बेबाकी है।' 

दूसरे व्यंग्य संकलन 'स्पीकर क्रांति' के बाद सटीक एवं बेबाक व्यंग्य लेखन के धनी रासबिहारी पांडे जी को वर्ष १९८१ में डंके की चोट, व्यंग्य उपन्यास हेतु मध्य प्रदेश प्रेमचंद जन्म शताब्दी समिति तथा मध्य प्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद् द्वारा सम्मानित किया गया। आकाशवाणी जबलपुर से उनकी रचनाओं का निरंतर प्रसारण होता रहा। वर्ष १९८८ में पांडेय जी की चौथी कृति 'काका के जूते' को पाठकों व समीक्षकों ने जी भरकर सराहा। वर्ष १९९२ में व्यंग्य लेख संग्रह 'तीसरी आँख' के प्रकाशन के शीघ्र बाद ही पांडेय जी का निधन हो गया और और वर्ष १९९४ में हास्य-व्यंग्य कविताओं का संग्रह 'कटपीस' उनके परिवारजनों ने प्रकाशित कराया। 

मेरी दृष्टि में रासबिहारी पांडेय जी के शिक्षक ने जीवन को खुली आँखों देखकर घटनाओं, मन:स्थितियों, चरित्रों और आदतों (लतों भी) का सूक्ष्म अवलोकन व मन-मंथन करने के पश्चात् नवदृष्टि से रूढ़ियों पर शब्द-प्रहार किया किन्तु अपने लेखन को रूढ़ होने से बचाकर। उनके व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य अकृत्रिमता, व्यापकता, रोचकता और कथात्मकता है। हिंदी व्यंग्य के इस चितेरे को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। 
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संपर्क : ९४२५१ ८३२४४ / ७९९९५५ ९६१८।  
     

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