विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर : दिल्ली शाखा
काव्य लेखन गोष्ठी : विषय - अभिलाषा
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सहभागी - १. संजीव वर्मा 'सलिल' (अध्यक्ष), २. अंजू खरबंदा दिल्ली (संयोजक), ३. सदानंद कवीश्वर दिल्ली (संचालक), ४. निशि शर्मा 'जिज्ञासु' दिल्ली, ५. गीता चौबे 'गूँज' राँची, ६. भारती नरेश पाराशर जबलपुर, ७. पूनम झा कोटा, ८. पदम गोधा कोटा/गुरुग्राम, ९. मनोरमा जैन 'पाखी', भिंड, १०. पूनम कतरियार पटना, ११. रमेश सेठी, १२. सरला वर्मा भोपाल, १३. सुधा मल्होत्रा, १४. विभा तिवारी जैनपुर, १५. पूनम झा, १६. सुषमा सिंह सिहोरा, १७. शेख शहजाद शिवपुरी, १८. सपना सक्सेना ।
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१. निशि शर्मा जिज्ञासु
अभिलाषा है करूँ मैं मन की,
जग की कोई फ़िकर न हो !
अभिलाषा है मिलूँ आपसे ,
रोकनेवाली डगर न हो !
अभिलाषा है निकलें घर से,
कोविड का ये क़हर न हो !
अभिलाषा है फुटपाथों पर,
निर्धनता की नहर न हो !
अभिलाषा है नशे में डूबी
मेरे युवा की नज़र न हो !
अभिलाषा है ललना देश की
रहे निडर, कोई डर न हो !
अभिलाषा है जिएँ ज़िंदगी,
अवसादों का ज़हर न हो !
अभिलाषा बतियाएँ जी भर,
कोई अगर-मगर न हो !
अभिलाषा है जमें महफ़िलें,
घुटन भरे अब घर न हों !
अभिलाषा है मिलूँ जो रब से
फिर से आना इधर न हो !
अभिलाषा है मिलूँ जो तब से
फिर से आना इधर न हो !
१०/१२/२०२०
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२. पदम् गोधा : श्रृंगार गीत
सुधियों के बदल घिर आए
मत जाओ अभी रेन गुजरना बाकि है
यौवन लौट रहा पनघट से
मंदिर में घन गनत बजे
सपनों के बाजार सजे
सागर में सूरज डूब रहा
आबो चाँद संवारना बाकि है
लहरों में लो तूफ़ान उठा
छू गई पवन अनजाने में
मन की कश्तियाँ दोल उठी
जब पग भाटजी मयखाने में
इस कलकल होती धरा में
गहरे में उतरना बाकि है।
सहमी सहमी सी प्रीत खड़ी
भीना सा कंपन अधरों पर
अंगड़ाई लेकर फूल खेले
मदहोशी छी अधरों पर
नयनों के प्याले छलक उठे
अभी होश में आना नबकी है
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क्रमांक - 3, गीता चौबे गूँज
अभिलाषा : नवल युगल की
जीवन-राहों पर चलें, हम-तुम दोनों संग।
सफर प्यार से तय करें, मन में लिए उमंग।।
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किया नया अनुबंध है, थाम हाथ में हाथ ।
सुख-दुख में छूटे नहीं, अब अपना यह साथ।।
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अब तक तो हम थे रहे, मात-पिता की शान।
होगा रखना ध्यान अब, दोनों कुल का मान।
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सब कुछ मंगलमय रहे, सबका हो आशीष।
नवजीवन वरदान का, कृपा करें जगदीश।।
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अभिलाषा अपनी यही, इतनी-सी बस चाह।
पहिए गाड़ी के बनें, निष्कंटक हो राह।।
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४. सदानंद कवीश्वर, दिल्ली
मुक्तक
इच्छा है तेरी बिंदिया पर कोई मुक्तक रच डालूँ,
इच्छा है तेरी निंदिया पर कोई सपना बुन डालूँ,
मीठे अधरों से जो भी गीत कहे हैं तुमने अब तक,
उनमे से ही किसी एक को अपना जीवन कह डालूँ।
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इच्छा है इस कालपत्र से, अच्छे पल चुन पाऊँ मै
प्रेम सुधा के रंग लगा फिर थोड़ा सा रंग पाऊँ मै
अधिक नहीं सामर्थ्य मेरी पर इतना सोचा है मैंने
एक रंगीला ऐसा पल-छिन, सखि! तुझको दे पाऊँ मै l
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इच्छा है तेरी देहरी पर दीप बना जल पाऊँ मैं,
तेरी साँसों की गर्मी से, बर्फ बना गल पाऊँ मैं,
अंतर्मन के अंतरपट पर स्नेह मसि से जो लिख दीं
तेरे जीवन में आकर, यूँ, इच्छित हो फल पाऊँ मैं l
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क्रमांक -5, पूनम झा, कोटा
मैं अभिलाषा हूँ
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हर मानव के मन में मैं होती हूँ,
जाने कितने ही रूपों में होती हूँ,
हाँ माध्यम कर्मों का ही लेती हूँ ,
पर कर्मों के फल में मैं बसती हूँ,
आंखों में जा कई रंगों में सजती हूँ,
और सबकी अभिलाषा बनती हूँ,
कोई ऊँची उड़ान भरना चाहता है,
कोई खूब पढ़ाई करना चाहता है,
कोई सत्ता हासिल करना चाहता है,
कोई धन इक्कठा करना चाहता है,
मैं सबको जीने का मकसद देती हूँ,
अभिलाषा बनकर दिल में बसती हूँ,
माता-पिता जिम्मेदारी में रखते हैं,
बच्चे भी अपनी तैयारी में रखते हैं,
भाई-बन्धु होशियारी में रखते हैं,
मित्रगण दोस्ती-यारी में रखते हैं,
सबके मन पर मेरा ही पहरा है,
अभिलाषा से नाता जो गहरा है,
पति-पत्नी के प्रेम में रहती हूँ मैं,
उनके नोक-झोंक में भी रहती हूँ मैं,
बच्चों की परवरिश में रहती हूँ मैं,
शिक्षा के परिणाम में भी रहती हूँ मैं,
जीवन को सुगम बनाए रखती हूँ मैं,
अभिलाषा हूँ बिन भाषा चलती हूँ मैं,
जब भी कोई निराशा से घिर जाता है,
राह नहीं जब कोई उसे नजर आता है,
उस निराशा में आशा बनकर आती हूँ,
हर अनुभव से मैं और निखर जाती हूँ,
खट्टे-मीठे दोनों की सहभागी बनती हूँ,
अभिलाषा हूँ दिन-रात जागी रहती हूँ,
हाँ मैं अभिलाषा हूँ मन की भाषा खूब समझती हूँ।
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क्रमांक - 6, मनोरमा जैन पाखी
अभिलाषा
किसी छोटे बच्चे सी है मेरी,
जब तब जिद पर अड़ जाती है
जो है ही नहीं इसका,
वही माँगने लगती है,
चंदा सूरज तारे सपने,
सब इसको भाते हैं,
मगर पास में जो है इसके
वो नहीं इसको भाते हैं,
पँछी सा उड़ना तो है
मगर सारा गगन चाहिए,
मछली सा तैरना तो है
मगर सारा सागर चाहिए,
बूंद सी खत्म हो सकती है,
मगर भीगनी पूरी धरती चाहिए,
प्यार भी चाहे ये किसी का
तो वो भरपूर और सारा इसे
मेरी ये पगली अभिलाषा,
बच्चे सी जिद क्यों करती है..
रहती है मन में मेरे,
खूब उछलती रहती है,
कभी कभी मुझको ही
खूब ये रुलाती है,
पता है इसको न पूरी होगी,
फिर भी जुबाँ पर आना है,
कोई करे पूरा इसलिये,
कविता में तक दिख जाना है,
मेरी अभिलाषा बिल्कुल बांवरी है
अपनी ही धुन में रहती है..
बहुत बाँधा मैने इसको,
बेड़ियाँ पहनाई मजबूरी की,
दुनिया क्या कहेगी के
अनगिनत पहरे लगाए,
बार बार दफनाया इसको,
बुरा भला बहुत कहा इसको,
मगर हर बेड़ी तोड़ देती है
हर पहरा लांघ आती है,
कब्र से भूतों की तरह
हर बार उठकर आ जाती है,
न जाने कौन सा अमृत
पीकर आई है ये मेरी अभिलाषा..
सोचती जब कभी मैं हूँ,
इसको नजरअंदाज कर दूँ,
भेष बदलकर, जोकर बनकर
दुश्मन बनकर, दोस्त बनकर
सामने मेरे आ जाती है
सपने सलोने पलकों पर सजाकर
हर बार बहला जाती है..
क्या करूँ ओ अभिलाषा तेरा,
कैसे तुझसे छुटकारा पाऊँ
दिल से कहती हूँ साथ छोड़ दे,
मगर खुद इसके प्यार में
जाने क्यों उलझ जाती हूँ,
अभिलाषा जैसे मेरी संगी साथी
मेरे दिल में रहती है,
और मेरे सुनहरे सपनों का
पालन अच्छे से करती है।
अभिलाषा
करूँ न ये कैसे सम्भव हो
कैसे धड़कता दिल पत्थर हो,
अभिलाषा मेरी कुछ नहीं
मगर कुछ कर गुजरने की है
मरकर भी जिंदा रहूँ कहीं
कुछ ऐसा कर गुजरने की है।
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७. शेख शहजाद हुसैन
कौन अपना
कह दो की तुम मेरी हो
वरना गंगा-जमीनी मुल्क में हमें डरना
अब वे भवन एकता के नहीं सबूत
दिल में अपने यूं जगह दीजिए
एक पक्षी समाधान नहीं लोकतंत्री सबूत
क्रमांक -8, पूनम कतरियार
मैं 'भारत'
सुवर्ण- खचित,अभिराम-निष्कलुष;
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट.
दसों दिशि प्रशंसित, स्नेहसिक्त,
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!
युवा-उष्ण-ऊर्जा से गुंफित,
उत्कट अभिलाषा से संचित.
गौरवपूर्ण-उपलब्धियों का प्रकाश,
अशेष विजयों का स्वर्ण-इतिहास.
सृजा मेरा स्वरुप स्वयं शिव ने,
महावीर के तप,बुद्ध के ध्यान ने.
मुझी में है अशोक व गाँधी का त्याग,
मुझी में है पोरस-सुभाष की आग.
गुरु की बानी,माँ -टेरेसा का राग.
कजली-चैता,संत-योगियों का संयम.
मेरी गोद में हुलसती नदियाँ,
खेतों में हैं पुलकित स्वर्ण-बालियाँ.
हैरान संसार मेरे अध्यातम-ज्ञान से,
सुरभित विश्व मेरे केसर- गंध से.
मेरे चरणों में सागर नत है,
मेरे हुंकार से पड़ोसी पस्त है.
मेरा चंद्रयान छू रहा ब्रह्मांड,
नहीं सका कोई कभी मुझे बांध,
सुवर्ण- खचित,अभिराम-निष्कलुष;
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट.
दसों दिशि प्रशंसित-स्नेहसिक्त,
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!
*
११. भारती नरेश पाराशर
मेरी अभिलाषा
*
बुजुर्गों की झुरियां की
पके बालों की सफेदी की
कुछ लिखूंँ तजुर्बे की परिभाषा
यही मेरी अभिलाषा
कटें पेड़ के ठूंठ की
चढ़े अर्थी पर फूल की
कुछ लिखूंँ मौन भाषा
यही मेरी अभिलाषा
अनाथ के व्यथा की
सुने पन की दशा की
कुछ लिखूंँ उनके मन की पिपासा
यही मेरी अभिलाषा
गरीबों के गरीबी की
जीविका के बेबसी की
कुछ लिखूंँ पाने की जिज्ञासा
यही मेरी अभिलाषा
छली स्त्री के चरितार्थ की
पुरुष के पुरुषार्थ की
कुछ लिखूंँ असामाजिक निराशा
यही मेरी हैं अभिलाषा
नारी उत्थान की
आत्म-सम्मान की
कुछ लिखूंँ पाने की आशा
यही मेरी अभिलाषा
जीवन के अधिकार की
हक के दावेदार की
कुछ लिखूँ देने की दिलासा
यही मेरी अभिलाषा
वन प्राणी के विहार की
उनके सुनहरे संसार की
लिखूंँ जंगल का जलसा
यही मेरी अभिलाषा
नेता की चतुराई की
जनता की ठगाई की
कुछ लिखूंँ हथकंडे का तमाशा
यही मेरी अभिलाषा
जीवन के सरगम की
ऋतुराज वसंत की
कुछ लिखूंँ गीत संग ताशा
यही मेरी अभिलाषा
छलकते आंसुओं की
अनगिनत हैं परिभाषा
कुछ लिखूंँ भरे सुख का कासा
यही मेरी अभिलाषा
*
१२. संध्या गोयल सुगम्या
"अभिलाषा"
अभिलाषा
कुछ कर गुज़र जाने की
देश के लिये मर मिट जाने की
करा देती है काम महान
सदियों तक याद रह पाने की
अभिलाषा
जब हो स्वार्थ भरी
नीच,कपटी खोखली निरी
ढह जाती है एक दिन ऐसे
ज्यों गिरे कोई चट्टान भुरभुरी
अभिलाषा
रखता है कोना मेरे दिल का
आये समय जब जाने का
मलाल न हो तब मन में
जीवन व्यर्थ गंवाने का
अभिलाषा
मेरे मन की, कर लूँ गौर
पा जाऊँ ऐसा कोई ठौर
जीवन को कर दे जो सार्थक
मिलने से पहले अंतिम कौर
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१३. विभा तवारी
सरसी छंद
अन्तर्मन में अभिलाषाएं ,लेती चरण पसार।
सफल मनोरथ में हीं जीवन, हो जाता है पार।।
जलता रहता है जीवन भर,बन जाने को राख।
अहंकार मन मे भर भर के,हो जाता है खाक।।
विधाता छंद
दिखा मजबूत अभिलाषा जगा दी प्यार की आशा,
नहीं मैं जानती थी धमनियों की नित नई भाषा।
जहाँ अपनत्व बहता हो नसों में रक्त के जैसा,
वहीं पर ये हृदय जाता रहा बन के सदा प्यासा।।
ग़ज़ल
जो कभी मिल न सके उसकी तमन्ना न करो ।
नींद उड़ जाएगी इतना मुझे सोचा न करो ।।
हर खुशी बेच के जो प्यार कमाया मैंने।
तुम खुदा के लिए उस प्यार का सौदा न करो।।
मेरे होते हुए ऐ जान-ए-तमन्ना न यहांँ।
तुम किसी और खिलौने की तमन्ना न करो।।
ख्वाब वो देखो कि जिसकी कोई ताबीर मिले।
नक़्श बहते हुए पानी पे बनाया न करो।।
ए 'विभा' घेर न ले तुझ को भी रुसवाई कहीं।
वक़्त से पहले किसी बात की चर्चा न करो।।
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१४. सरला वर्मा, भोपाल
तुम बदल करके देखो यह अभिलाषा मेरी
यही चाह मेरी तुम बदल करके देखो यही चाह मेरी
मैंने आंगन में तुलसी का बिरवा है रोपा,
तुम नमन करके देखो यही चाह मेरी
इतना सुंदर यह तन मन, और सुंदर है जीवन
शुक्र भगवान का करते चलो चाह मेरी
रिश्तो की गरिमा में सारी खुशियाँ छुपी हैं,
तुम निहारो जतन से यही चाह मेरी
दुआओं के साए पली बेटियों का
महकने दो जीवन यही चाह मेरी
मानवता के आँगन में, फलते फरिश्तों को,
हृदय आसन बिठा लो यही चाह मेरी
ना तुम्हारी चली है, ना आगे चलेगी,
निजी स्वार्थों को अपने हवन करके देखो
मुकद्दर के मालिक के हर फैसले को,
तुम लगन से निभा लो यही चाह मेरी
तुम बदल कर के देखो यही चाहत मेरी
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रमेश सेठी
मुक्तक
अभिलाषा नहीं है चाँद तारों को छु पाऊँ
अभिलाषा नाहने है समंदर बमन गोते लगाऊं
अभोलाशा नहीं है बड़ा नाम कमाऊँ
अभिलाष ायहि यही आप सबसे मिल जाऊं
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सपना सक्सेना दत्ता दिल्ली
मेरी अभिलाषा है इतनी हर जनम में भारत देश मिले
इसकी गलियां नदियाँ माटी सांस्कृतिक परिवेश मिले
हिमगिरि सा हीरक मुकुट बना
जगज्जेता उलटे पाँव गए यहाँ भाड़ भी फोड़े एक चना
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