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रविवार, 15 अगस्त 2021

समीक्षा ओ मेरी तुम

कृति चर्चा : 
प्रणय-ऋचाओं का गुलदस्ता-‘ओ मेरी तुम’
सुरेन्द्र सिंह पँवार
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गीत सृजन की सुदीर्घ शृंखला में अविराम साधना रत साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका यश:-सौरभ विंध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत मालाओं के सदृश भारत में विस्तृत है। ‘ओ मेरी तुम’ उनका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है, जिसमें 53 गीत-नवगीत और 52 दोहे (43 खड़ी बोली+9 बुन्देली) संग्रहित हैं। गीतकार ने गत सुधियों में विचरण करते मन की अनुभूतियों का शब्दांकन इन शृंगारिक गीतों-नवगीतों-दोहों में किया है। कृति कार सलिल ने अपनी ‘साधना’ (अर्धांगिनी डॉ साधना वर्मा) को उनकी अधि वार्षिकी-आयु पूर्ण होने (सेवा-निवृति) पर यह अनमोल कृति सृजित, संपादित, समर्पित और प्रकाशित की है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि नितांत निजी पलों में अनुभूत सत्य की यह अभिव्यक्ति प्रणय-ऋचाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जिसे भेंट कर उन्होंने अपनी जीवन संगिनी के अमूल्य अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन माना है।

गीतकार संजीव सुखद वैवाहिक जीवन(परिणय तिथि---01/31/1985) के तीस साल बाद, जब अपने विवाह-संस्कार की मधुर स्मृति में गोता लगाते हैं, फ्लेश-बैक में जाते हैं, विशेषकर ‘कन्यादान’ और ‘सिंदूर दान’ जैसी रस्में---- तब माँग भरने के बदले कन्या को ‘वर’ का दान करने और ‘कन्या का दान’ मिलने पर अपनी ‘जिंदगी को दान करने’ की उनकी माँग शिष्ट व विशिष्ट है। रस्मों और रीति-रिवाजों की ऐसी आदर्श व्याख्या-- सलिल जैसा भारतीय संस्कारों और परंपराओं का पुजारी ही कर सकता है।

माँग इतनी/माँग भर दूँ। आपको वर/ दान कर दूँ। मिले कन्या/दान मुझको, जिंदगी को दान कर दूँ॥(चाहता मन/पृष्ठ 10-11)

गीतकार सलिल एक सिविल इंजीनियर हैं; ईंट, पत्थर, लोहा और कंक्रीट जैसी सख्त और बेजान चीजों से गगनचुंबी इमारतें, सीधी-सपाट सड़कें और सड़क-सेतुओं के निर्माण के बहाने सुंदर तम [आधारभूत] सृजन उनका व्यवसाय रहा है। लेकिन उनका यह भी अटूट विश्वास है कि एक गुणवंत नारी जब अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी संभालती है तब ईंट-गारे की चारदीवारी से घिरा मकान, घर बनता है और-तभी सारे सपने, अपने बनकर किलकारी कर मचलने लगते हैं---

मृग नयनी को/ गजगामिनी होते देखा तो, मकाँ बन गया/ पल भर में घर।(तुम सोईं/31)

देखने की बात यह है कि संयोग और वियोग के धरातल पर रचे संग्रह के सभी शृंगारक गीतों के उद्दीपन में प्रकृति का विशेष उपादान है, जैसे- उषा की अरुणाई, कोकिल-स्वर, कमल दल, पनघट, पुरवैया के झौंके, महकता मोंगरा , अमलतास, मन महुआ, नीड़ लौटे परिंदे, चाँदनी, छिटके तारे, सावन, फागुन, पावस, हरसिंगार का मुस्काना, नंदन वन में चंदन-वंदन, हिरनिया की तरह कुलाँचें भरना, मरुवन का हरा होना। विभाव, अनुभव और संचारी भावों से परिपुष्ट स्थायी भाव रति को जागरण की स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय संयोग में मिलता है। शृंगार रस के देवता लक्ष्मी और विष्णु माने गए है जो सृष्टि के पोषण, पालन प्रक्रिया के संचालक हैं और यही भाव सुघड़-गृहिणी के सृष्टि-क्रम का साधन-यज्ञ है। गीतकार ने अपनी नायिका को सद्य:स्नाता कहा है और उसकी चेष्टा, मुद्राओं और कार्य व्यापार का सम्यक चित्रण किया है। विद्यापति के गीतों से सद्य:स्नाता का संदर्भ तलाशा तो उसका सीधा- सीधा अर्थ मिला, “अभी-अभी नहाई नायिका”। ऐसी नायिका की सलिल-क्रीड़ाओं को देखकर सौन्दर्य-भोगी ‘सलिल’ का हृदय पंच-शरों (कामदेव के पाँच तीरों- सम्मोहन, उन्मादन, स्तंभन, शोषण, तापन) से बिंध जाता है और उस अंतरंग क्षण की सुखद-स्मृति, जो संग्रह के गीतों-नवगीतों में है, में डूबने-अतराने लगता है। ‘ओ मेरी तुम’ के हमारे समाज में, जहाँ पति-पत्नी एक दूसरे का नाम नहीं लेते, ‘ऐ जी’, ‘ओ जी’ जैसे संबोधनों के अभ्यस्त हैं, स्नेह (दाम्पत्य-संबंधों) की सार्वजनिक स्वीकृति की परंपरा परिवारों में नहीं है। गीतकार सलिल ने इसे आरंभ कर तनिक जोखिम अवश्य उठाया है। उनका एक प्रयोग,----

चिबुक निशानी / लिए, देह की/इठलाया है।

बिखरी लट, फैला काजल भी/ इतराया ह

टूट बाजूबंद/ प्राण-पल/जोड़ गया है!

कँगना खनका/ प्रणय राग गा/ मुस्काया है।

बुझी पिपासा / तनिक, देह भई/ कुसमित टहनी/

ओ मृग नयनी! ओ पिक बयनी !! ओ मेरी तुम। (ओ मेरी तुम/पृष्ठ 68-69)

देखा जाए तो; गीतकार ने जब-जब वियोग के गीत गाये हैं, वे ‘संयोग’ से ज्यादा मुखर हुए हैं। नायिका का किसी कार्य वश प्रवास ( मायके) में होने पर संतृप्त नायक की स्थिति अलका पुरी से निष्कासित यक्ष के समान होती है जो अपनी प्रेमिका को मेघ के माध्यम से संदेश भेजता है--- गीत ‘बिन तुम्हारे’ में विरह का वैसा-ही हृदय स्पर्शी वर्णन किया गया है, विशेषकर उद्दीपन— जो सर्वथा मौलिक हैं, सहज-सरल हैं, अपने से जिए-भोगे हैं। --

द्वार पर कुंडी खटकती / भरम मन का जानकर भी/ दृष्टि राहों पर अटकती।

अनमने मन/चाय की ले/चाह, जगकर नहीं जगना ।

दूध का गंजी में फटना/या उफन गिरना-बिखरना।

साथियों से/ बिना कारण /उलझना, कुछ भूल जाना।

अकेले में गीत कोई / पुराना फिर गुनगुनाना।

साँझ बोझिल पाँव/ तन का श्रांत/ मन का क्लांत होना।

याद के बागों में कुछ/ कलमें लगाना, बीज बोना।

विगत पल्लव के तले/ इस आज को/फिर-फिर भुलाना।

कान बजना/ कभी खुद पर/खुद लुभाना-मुस्कराना।(पृष्ठ/४८-४९)

और; यहाँ तो विप्रलंभ की पराकाष्ठा ही हो गई, जब वियोगी गा उठा-

बिना तुम्हारे

सूर्य उगता

पर नहीं होता सबेरा। (बिना तुम्हारे/पृष्ठ 48)

इतर इससे, उम्र और अनुभव के इस पड़ाव में गीतकार का अध्यात्म की तरफ झुक जाना आश्चर्य चकित नहीं करता। उसका दैहिक-सौन्दर्य से परे आत्मीय-सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होना सहज है, स्वाभाविक है। द्वैत तज अद्वैत का वरण इसकी अंतिम फल श्रुति है।

मैं तुम हम बनकर हर पल को/ बांटे आजीवन खुशहाली। (तुम बिन/पृष्ठ 34)

संग्रह में ज्यादातर गीत, नवगीत के साँचे में ढले हैं। यानी उनमें एक मुखड़ा है, दो से तीन अंतरे हैं, मुखड़ों की पंक्ति-संख्या या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा संख्या का कोई बंधन नहीं है। यद्यपि मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान पद भार की पंक्ति प्रत्येक अंतरे के अंत में विद्यमान है, जिसे गाने के बाद मुखड़े को दोहराए जाने से निरन्तरता की प्रतीति होती है। इन गीतों–नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी तरफ मृदुल-हास है, नोक-झौंक है, रूठना-मनाना है। एक लाक्षणिक दृश्य है; जहां बावरा-सजन परिजनों की उपस्थिति में सजनी से न मिल पाने के कारण खीजता है, ऐसी स्थिति में गीत के शब्द अपने साधारण या प्रचलित अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ बतलाने लगते हैं—

लल्ली-लल्ला करते हल्ला/ देवर बना हुआ दुमछल्ला/

ननद सहेली बनी न छोड़े/ भौजाई का पल भर पल्ला। (तुम मुस्काई-2/41)

संग्रह के गीतों–नवगीतों की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे यथा- तन्नक (थोड़ा/बुन्देली), मुतकी (अधिक-स्त्रीलिंग/बुन्देली), फुनिया (अंग्रेजी शब्द फोन से व्युत्पति जिसका देशज अर्थ टेलीफोन या मोबाइल पर निरर्थक चर्चा से है), सुड़की चाय (देशज-चाय को सुड़ककर पीना), राह काट गई करिया बिल्ली (एक रूढ़िगत मुहावरा/ ‘बिल्ली ने रास्ता काटा’ का बुन्देली संस्करण), चंदा–तारे हिरा गए (अदृश्य हो जाने को या गुम जाने को बुन्देली में ‘हिरा गए’ प्रचलित है) के प्रयोग से लाया गया टटकापन विशिष्ट है। यदि दोहा एवं सोरठा को प्रयुक्त कर तुम हो या (पृष्ठ- 50/51)। हरिगीतिका छंद में सजनी मिलो (पृष्ठ-61), दस मात्रिक दैशिक छंद पर आधारित मखमली-मखमली (पृष्ठ-106), दोहा सलिला मुग्ध (पृष्ठ-107/111), बुन्देली दोहे (पृष्ठ-112) तथा तुमको देखा (पृष्ठ-56-57), तुम क्या जानो (पृष्ठ -58), मनुहार (पृष्ठ-59), तुम कैसे (पृष्ठ-60), धूल में फूल (पृष्ठ-62), मन का इकतारा (पृष्ठ-63) की गजल-सजल छोड़ दी जाए तो शेष गीत, नवगीत की ही शैली में हैं। वैसे लोक-शैली या धुनो पर दो-एक गीत/नवगीत और होते तो पढ़ने का आनंद दुगना हो जाता। इन गीतों-नवगीतों में अलंकारिकता के प्रति अधिक रुझान नहीं है, फिर भी ‘बरगद बब्बा’ या ‘सूरज ससुरा’ जैसे उपमेय-उपमान और ‘मन्मथ भजते अंतर्मन मथ’ जैसे यमक के साथ पुनरुक्ति[SSP1] प्रकाश अलंकारों व पद-मैत्री अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। पूर्ण पुनरुक्त पदावली—खनक-खनक, टप-टप, झूल-झूल, अपूर्ण पुनरुक्त पदावली— तुड़ी-मुड़ी, ऐ जी-ओ जी, तन-मन-धन, शारदा-रमा-उमा, विरोधाभाषी शब्द-सुख-दुःख, ज्ञान-कर्म, धरा -गगन, मिलन-विरह व सहयोगी शब्दों-ठुमरी-ख्याल, कथा-वार्ता, चूल्हा–चौका, नख-शिख के प्रयोग के प्रति गीतकार जागरूक रहा है। कुछ गीतों-नवगीतों में सलिल (तख्खलुस/उपनाम) का पर्यायवाची अर्थ में तथा ‘नेह नर्मदा’ ‘द्वैत-अद्वैत’ जैसी शब्दावलियों के प्रयोग के प्रति आसक्ति दिखाई देती है। ऐसे ही प्रस्तुत मकता (मक्तअ) में

सच का सूत न समय कात पाया लेकिन

सच की चादर सलिल कबीरा तहता है।(मन का इकतारा/पृष्ठ63)

में सूत और चादर के साथ ‘सच’ की आवृति, पुनरावृत्ति दोष है।--- सलिल रसज्ञ हैं,--- भाषा-विज्ञानी हैं,--- शब्दों के जादूगर हैं, वे ऐसी अपरिहार्य स्थिति को टालने में समर्थ हैं। हाँ, एक शे’र में अतिशयोक्ति का प्रशस्त-प्रयोग है,

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे।

कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या, कर गुजरा तरुणाई में॥ (तुम क्या जानो /58)

“गीत” को परिभाषित करते हुए अनंत राम ‘अनंत’ लिखते हैं,-- “गीत कविता का अनुभूति एवं विशुद्ध भाव-प्रणव वह अंतर्मुखी रूप है, जिसमें कवि की वैयक्तिक अभिरुचियाँ, परिवेशगत संस्कार, विचार तथा उसके राग-विराग पूरे उन्मेष के साथ उभर कर सामने आते हैं”। वहीं “नवगीत” को व्याख्यायित करते हुए आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने एक आलेख में लिखा है कि “नवगीत में आम-आदमी को या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है”। उक्त परिप्रेक्ष्य में समीक्ष्य संग्रह ‘ओ मेरी तुम’ के गीत–नवगीत कथ्य, भाषा-सौष्ठव, भाषा-शक्ति, भाव-प्रवणता, अर्थ, ध्वनि एवं नाद सौन्दर्य के अप्रतिम उदाहरण हैं। इनमें लास्य है ! चारुत्व है !! माधुर्य है !!! परंतु ऐसा भी हो सकता है कि नवगीत की सारी अर्हता पूरी करने के बावजूद इन में ‘काल है संक्रांति का’ (सलिल का पहला नवगीत संकलन/2016 )-जैसा समष्टि के प्रति झुकाव और ‘सड़क पर’ ( सलिल का दूसरा नवगीत संकलन/2018)-जैसा आम-आदमी के पक्ष में खड़े होने का भाव न होने से नवगीत के धुरंधर इन्हें पहली-पाँत (पंक्ति) में बिठाने में कतिपय संकोच करें। अत: मेरा यह व्यक्तिगत सुझाव है कि इन गीतों को ‘शृंगार परक गीत’ या ‘प्रणय-ऋचाएं’ संज्ञापित करना अधिक तर्क-संगत होगा, बनिस्बत नवगीत के।


समन्वय प्रकाशन संस्थान, जबलपुर से प्रकाशित और श्रीपाल प्रिंटर्स से मुद्रित समीक्ष्य-संकलन ‘ओ मेरी तुम’ का आकर्षक-आवरण शीर्षक के अनुरूप है। किताब के करीने से तराशे कोने इसकी दूसरी खूबी है। यदि प्रिन्ट-लाइन और प्रिंटर्स-डेविल्स (मुद्रण-की-भूलें) को अनदेखा किया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय कृति है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ द्वारा सृजित और संकलित ये उपहार-गीत---गीतकार की अंतरंग भावनाओं का आवेग है, अंतरतम विचारों की अभिव्यक्ति है, आत्मीय-संबंधों की आश्वस्त है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये गीत उनके अधरों का शृंगार हैं, जिनके लिए लिखे गए।----- श्रम सार्थक हुआ। देर-सबेर जब सुधी-पाठक इनमें डूबेंगे, तो उन्हें भी पर्याप्त रस प्राप्त होगा, ऐसा विश्वास है।

201,शास्त्रीनगर,गढ़ा,जबलपुर(मध्य प्रदेश)-482003/ 9300104296/7000388332




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