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सोमवार, 23 अगस्त 2021

लेख : स्वतंत्रता के ७५ वर्ष : पाया-खोया

स्वतंत्रता के ७५ वर्ष : पाया-खोया 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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चर्चिल की धूर्तता 
भारत को स्वतंत्रता मिले ७५ वर्ष हुए, देश के कल्प-कल्प के इतिहास की तुलना में यह समयावधि नगण्य होते हुए भी वर्तमान काल के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। देश को स्वतंत्रता, क्रांतिकारियों, आज़ाद हिन्द फ़ौज और सत्याग्रहियों के क्रमिक, निरंतर और सम्मिलित प्रयासों से मिली। यह भी सत्य है कि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् तथाकथित ग्रेट ब्रिटेन अपनी ग्रेटनेस गँवा चूका था और  अपने गुलाम देशों को छोड़ने के लिए विवश था। कहावत है कि हाथी कितना भी दुर्बल हो गधे से अधिक ताकतवर रहता है। ब्रिटेन प्रभुत्व बनाये न रख पाने पर भी अपने संकुचित रक्षा करने में समर्थ था। कूटनीति में दक्ष चर्चिल चुनाव हारने के पूर्व ही ईरान-अफगानिस्तान के भूगर्भीय उत्पादों पर कब्जा बनाये रखने के लिए भारत का विभाजन कर एक भारत द्वेषी, कमजोर, इंग्लैंड समर्थक देश बनाने  बना चुके थे। विभाजन रेखा कहाँ से खींची जाएगी यह तय कर विभाजन होने तक गोपनीय रखा गया। यहाँ तक कि भारत में अंतिम  वायसराय लार्ड माउंटबेटन जो अपनी शर्तों पर आये थे कि सभी अंतिम निर्णय उनके होंगे, ब्रिटिश सरकार भी उनके निर्णयों पर आपत्ति न करेगी, को भी धोखे में रखा गया। माउंबेटन विभाजन की तिथि तय हो जाने के चंद दिन पूर्व ही सच जान सके और तब कुछ बदला नहीं जा सकता था।
नाम का सवाल  
ब्रिटिश संसद ने ट्रांसफर औफ पॉवर एक्ट (सत्ता हस्तांतरण अधिनियम) में 'इंडिया' को सत्ता हस्तांतरित की, जबकि इस देश का प्रचलित नाम भारत या हिंदुस्तान था। इस कारण भारत का संविधान बनाते समय संविधान सभा को 'इण्डिया' शब्द का प्रयोग करना पड़ा किंतु सतर्कता बरतते हुए संविधान में 'इंडिया दैट इस भारत' (इंडिया जो कि भारत है) लिख दिया गया। दुर्भाग्य है कि केंद्र में कई दलों की सरकारें आईं-गईं, संविधान में अनेक संशोधन किए गए किन्तु संविधान के प्रस्वणॅ में से 'इण्डिया दैट इस' शब्दों को विलोपित करने पर आज तक विचार नहीं किया गया। संविधान के हिंदी अनुवाद में 'इण्डिया' न लिखकर केवल 'हम भारत के लोग' लिखा जाता है। यह संशोधन हो तो अंग्रेजी में भी 'वी द पीपुल ऑफ़ भारत' लिखा जाने लगेगा। यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी उठाया गया जिसके निर्णय में कहा गया कि देश के नाम परिवर्तन का कार्य न्यायालय नहीं सरकार का है। सरकार कान में तेल डाले बैठी रही, बैठी है और बैठी रहेगी क्यों की इससे कोइ राजनैतिक लाभ नहीं हो रहा।  
भारत के भीतर भारत 
वस्तुत: यह प्रश्न देश के दो नामों का नहीं, देश के शासन-प्रशासन में पनपती रही दो प्रवृत्तियों का है। 'इंडिया' अर्थात संपन्न, सशक्त शक वर्ग और 'भारत' अर्थात विपणन, अशक्त और शासित वर्ग। इस प्रवृत्ति ने देश को 'खुद को कानून से ऊपर समझनेवाले' और 'कानून से संचालित होनेवाले' दो वर्गों में बाँट दिया। शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थ व्यवस्था, आरक्षण, सेवावसर कहीं भी देश के नागरिकों में पूरी तरह समानता नहीं है, जबकि संविधान मौलिक अधिकारों, अवसरों की समानता तथाभाषा-भूषा-धर्म-लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न किये जाने की गारंटी देता है। इसीलिए कहा जाता है कि भारतीय संविधान एक हाथ से देकर दूसरे से छीन लेता है। यह भारत के भीतर दो भारत होने जैसी स्थिति है। 
लोक या तंत्र : प्रभावी कौन?
भारत की सरकारें किसी भी दल की हों, खुद को  विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहती आई है। लोकतंत्र में 'लोकमत', जनतंत्र में 'जनमत' सांसे अधिक प्रभावशली और निर्णायक तत्व होता है। क्या भारत में ऐसा है? हम हर दिन देखते हैं कि छोटे से छोटा सरकारी कर्मचारी भी आम नागरिक की कोई इज्जत नहीं करता, गरूर में ऐंठा हुआ सीधे मुँह बात तक नहीं करता। ठाने, अदालत, तहसील कार्यालय किसी भी सरकारी दफ्तर में क्या गाँधी जी का 'आखिरी आदमी' बेख़ौफ़ जा सकता है? क्या उसकी बात हुक्मरान सुनता है? 'लोक' रोजगार माँगने जाए तो बर्बरता से पीटा जाता है। स्त्री, वृद्ध या विकलांग का भी लिहाज नहीं किया जाता। पुलिस विभाग का गठन ही आम नागरिक की सहायता और सुरक्षा हेतु किया गया था। विदेशों में पुलिस नेताओं और अफसरों नहीं जनता के अधिकारों की रक्षा और सहायता करती है जिसे 'पुलिसिंग' कहा जाता है। क्या भारत में इसकी कल्पना भी की जा सकती है? सभी राजनैतिक दलों की दो चेहरे हैं। विरोध में हो तो, पुलिस द्वारा जनता पर अत्याचार का रोना रोओ और सत्ता पाने पर खुद पुलिस के माध्यम से अत्याचार करो, विपक्ष में बैठाओ तो नौकरशाही पर आरोप लगाओ और सत्ता मिलते ही उसी नौकरशाही के माध्यम से मनमानी करो। जब हर दिन 'लोक' को 'तंत्र' कुचलता हो, 'जन' की 'तंत्र' अनदेखी करता हो, 'प्रजा' को 'तंत्र' से भय लगता हो, ' गण' पर तंत्र जब चाहे 'गन' ताने रहता हो तब 'रामराज्य' केवल ख्यालों तक सीमित रहता है। 
जनविरोधी अर्थ व्यवस्था 
किसी भी देश की प्रति व्यक्ति आय 'उत्पादन' से बढ़ती है। उत्पादन केवल किसान और मजदूर करता है। इनकी योग्यता वृद्धि के लिए शिक्षा, जीवनोपयोगी परिस्थितियों और संसाधनों के लिए यांत्रिकी और तकनीक तथा अच्छे स्वास्थ्य के लिए चिकित्सक चाहिए। ये पाँच वर्ग ही देश की प्रगति के मूल आधार हैं। इनकी सुरक्षा और शांतिपूर्ण जीवन के लिए पुलिस और न्याय प्रणाली तथा रोजगार अवसरों के लिए उद्योगपति और कारखाने चाहिए। क्या देश में इन पाँच वर्गों को महत्व मिला है? व्यावहारिकता में प्रशासनिक अधिकारी, राजनेता, न्यायालयीन अधिकारी, उद्योगपति, व्यवसायी और असामाजिक तत्व इन पाँचों का जीना हराम किये हैं। अभियंता और शिक्षक की हालत 'गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई' की तरह है। 'शिक्षाकर्मी' और 'अस्थायी रोजगार' के चक्रव्यूह में शिक्षक और अभियंता दयनीय स्थितियों में किसी प्रकार जी रहे हैं। 
समान काम - असमान वेतन 
'समान काम के लिए समान वेतन' प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है। भारत में इसका उपहास ही नहीं उड़ाया गया, इसकी हत्या कर दी गई। आज निजी महाविद्यालयों में १०-१५ हजार रुपये में प्राध्यापक पढ़ा रहा है, सरकारी कॉलेज में डेढ़ लाख रुपये वेतन मिल रहा है। समान शिक्षा प्राप्त प्रशासनिक अधिकारियों के वेतन, भाटी, पदोन्नति अवसर अपने समक्ष डॉक्टर या अभियंता से अत्यधिक अधिक हैं। फलत:, जिन अभियंताओं और चिकित्सकों की शिक्षा पर  देश की जनता से करों के रूप में बटोरे गए करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं, वे प्रशासनिक अधिकारी बनना पसंद करते हैं। आजादी के समय 'आई.सी.एस.' को समाप्त करने का निर्णय लिया गया था किन्तु वह रूप बदलकर 'आई.ए.एस.' के रूप में बच गया। कहा जाता है की यह नेहरू की पसंद थी किन्तु आज के नेहरू के धुर विरोधी नेता भी पूरी तरह इन्हीं पर आश्रित हैं। तकनीकी विषयों में दक्ष विशेषज्ञों के भाग्य विधाता यही वर्ग है। देश के अनुत्पादक व्यय में सर्वाधिक राशि इसी वर्ग के वेतन भत्तों हुए सुविधाओं पर खर्च की जाती है। वास्तव में हर प्रशासनिक अधिकारी सामंत की तरह निरंकुश और असीम शक्ति संपन्न है। 
लोकतंत्र पर हावी समूहतंत्र 
भारतीय लोकतंत्र पर समूह तंत्र 
भारतीय समाज की ताकत और कमजोरी दोनों उसका समूहों में विभाजित होता है। यह समूह कभी जाति, कभी सम्प्रदाय, कभी राजनैतिक विचारधारा, कभी व्यवसाय, कभी क्षेत्र, कभी भाषा आदि के आधार पर गठित होते हैं। धीरे-धीरे ये इतने बड़े और ताकतवर हो जाते हैं कि अपने हितों और स्वार्थ को सर्वोपरि मानकर अन्यों के नैसर्गिक और वैधानिक अधिकारों को कुचलने लगते हैं। कॉरोना काल में डॉक्टर समूह ने मरीजों का हर तरह से शोषण कर यही सिद्ध किया है कि चिकित्सक समाज सेवक नहीं अवसरवादी कुटिल व्यापारी है जो धन के लोभ में किसी भी हद को पार कर सकता है, उसे केवल अपनी कमाई से मतलब है, मरीज के हित से कोई लेना-देना नहीं है। यही स्थिति वकीलों और मुवक्किलों की है। चार्टर्ड अकाउंटेंट, आर्किटेक्ट आदि की संस्थाएँ बेहद ताकतवर हैं और वे अपने सदस्यों के कदाचार को छिपाने के लिए कुछ भी कर सकती हैं। व्यापारी संघ कभी ग्राहक हितों की बात नहीं करते। इसी कारन उपभोक्ता संरक्षण कानून बनाने पड़े पर वे भी इस शक्तिशाली संस्थाओं के आगे बौने सिद्ध हुए। 
राष्ट्रीयता का अभाव 
स्वतंत्रता के संघर्ष में सरे मतभेद भूलकर भारतवासी एक राष्ट्र के रूप में लाडे किन्तु स्वतंत्रता के बाद जैसे-जैसे समय बीता भारतीय नेतृत्व और समाज एक दूसरे से दूर होता गया। आज भाषा, साहित्य, समाज, राजनीति, शिक्षा किसी भी प्रश्न पर देश में एक राय कायम करना असंभव है। कहते हैं 'राजा करे सो न्याय' देश में विघटनकारी विचारों को पल्ल्वित-पुष्पित करने का दोष राजनीती को है जो अपने क्षुद्र स्वार्थों को साधने के लिए दलनीति और सत्ता नीति के रूप में अपराधियों और धनपतियों के हाथ का खिलौना बन गयी है। वैचारिक मतभेद और असहिष्णुता इस सीमा तक है की एक दूसरे को गद्दार और देशद्रोही तक करार दिया जा रहा है। चुनाव सभाओं ही नहीं संसद तक में मनमाने आचरण के कारण लोकतंत्र शर्मिंदा हो रहा है। हमें गंभीरता से विसंगतियों पर विचार करना ही होगा कि किसी भी नेता और दल से है। लोकतंत्र में असहमति का सत्कार हो, सहमति बनाने का प्रयास हो और सबको लेकर चलने क प्रयास हो। 'मन की बात' पर 'जन की बात'
को तरजीह दी जाए। 'आशा पर आसमान  'लोकोक्ति के अनुसार हमें भी आशा करनी ही चाहिए की क्रमश: सद्भावना और लोकहित को केंद्र बनाकर देश की प्रशानिक, राजनैतिक, न्याय व्यवस्था लोक को संतुष्ट करने में समर्थ होगी। 
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संपर्क : ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर। ९४२५१८३२४४      

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