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मंगलवार, 17 अगस्त 2021

दोहा, मुक्तक, कुण्डलिया

दोहा सलिला
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श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
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आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
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मुक्तक :
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है

कुंडलिया  छंद :
रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
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फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
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