मिली तरुण की तरुणता, संगीता के साथ
याद हरी हो गई झट, झुका आप ही माथ
*
संस्कार ही अस्मिता, सीख रखें हम याद
गूँगे के गुड़ सा सरस, स्नेह सलिल का स्वाद
*
अनुकृति हो सद्गुणों की, तभी मिले सम्मान
पथिक सदृश हों मधुर हम, जीवन हो रसखान
*
कान कजलियाँ खोंसकर, दें मन से आशीष
पूज्य-चरण पर हो विनत, सदा हमारा शीश
*
लोक मनाता कजलियाँ, गाकर कजरी गीत
कजरारे बंकिम नयन, कहें बनो मन मीत
*
मन मंदिर में बस गए, जो जन वे हैं धन्य
बसा सके जो किसी को, सचमुच वहीअनन्य
*
अपने अपनापन बिसर, बनते हों जब गैर
कान कजलिया खोँसिए, मिटा दिलों से बैर
*
२३-८-२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें