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बुधवार, 18 अगस्त 2021

कुरुक्षेत्र गाथा

 अध्याय १

कुरुक्षेत्र और अर्जुन
कड़ी ४.
*
कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में
योद्धाओं का विपुल समूह
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन
ले मन में भीषण अवसाद
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे
आँखों में था अतुल विषाद
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे
कहीं पूज्य उसको मिलते
*
कौरव दल था खड़ा सामने
पीछे पाण्डव पक्ष सघन
रक्त एक ही था दोनों में
एक वंश -कुल था चेतन
*
वीर विरक्त समान खड़ा था
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा
खींच रही विपदा के चित्र
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त
संग्रहीत साहस जीवन का
बना रहा था युद्धासक्त
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल
रौद्र रूप धर लिपट रही
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में
उतर धरातल पर आया
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा
टिका हुआ हुआ था अब रथ में
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को
शत्रु-दलन को थे उद्यत
पर तुरीण में ही व्याकुल हो
पीड़ा से थे अब अवनत
*
और आत्मा से अर्जुन की
निकल रही थी आर्त पुकार
सकल शिराएँ रण-लालायित
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की
अंगुलि थाम कर थका-चुका
कुरुक्षेत्र से हट जाने का
बोध किलकता छिपा-लुका
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर
नहीं युद्ध की थी राई
उधर कूप था गहरा अतिशय
इधर भयानक थी खाई
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले
स्वयं पंगु बन गये देखकर
महानाश के मतवाले
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो
तुम में वह पलता-हँसता
वही क्रिया का लेकर संबल
जग को त्रस्त सदा करता
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते
तुम्हीं किसी को मित्र महान
तुमने अर्थ दिया है जग को
जग का तुम्हीं लिखो अवसान
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर
आधारित विष खोल रहे
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे?
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें
विप्लव गहन मचा देता
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित
करते-युद्ध रचा देते
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को
मिटा उसे निर्जन करते
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन
लिखते महानाश का काव्य
नस-नस को देकर नव ऊर्जा
करते युद्ध सतत संभाव्य
*
अमर मरण हो जाता तुमसे
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को
ले जाकर ढकेल देते
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का
जग को विस्मित कर देते
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो
तुम्हीं करो संहार यहाँ
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ
*
विजय-पराजय, जीत-हार का
बोध व्यक्ति को तुमसे है
आच्छादित अनवरत लालसा-
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की
सुख पर उपल-वृष्टि बनते
जीवन मृग-मरीचिका सम बन
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम
गतिमय अंतर्मन करते
शांत न पल भर मन रह पाता
तुम सदैव नर्तन करते
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते
तुम्हीं धरा पर हो भंगार
*
भू पर तेरी ही हलचल है
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ
भाषण. संभाषण, गायन में
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ
*
अवसरवादी अरे! बदलते
क्षण न लगे तुमको मन में
जो विनाश का शंख फूँकता
वही शांति भरता मन में
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर
नित्य नवीन रूप धरते
नये कलेवर से तुम जग की
पल-पल समरसता हरते
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर
दंश न अपना तुम मारो
वंश समूल नष्ट करने का
रक्त अब तुम संचारो
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम
वहीँ शांति के बीज छिपे
अंधकार के हट जाने पर
दिखते जलते दिये दिपे
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर
नग्न बनाते मानव को
*
रोदन जन की है निरीहता
अगर न कुछ सुन सके यहाँ
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से
जीवन भर फिर चले यहाँ
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने
मानव शिशु को बहलाया
और भूख की बातचीत की
बाढ़ बहाकर नहलाया
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने
छला, पतिततम हमें किया
संचय की उद्दाम वासना, से
हमने जग लूट लिया
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने
विगत शोक में सिक्त किया
वर्तमान कर जड़ चिंता में
आगत कंपन लिप्त किया
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है
औ' अनीति का धन-संचय
निम्न कर्म ही करते आये
धन-बल-वैभव का संचय
*
रावण की सोने की लंका
वैभव हँसता था जिसमें
अट्हास आश्रित था बल पर
रोम-रोम तामस उसमें
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल
साकेत धाम अति सरल यहाँ
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते
मानव रहते हैं निर्द्वंद
दैव मनुज दानव का मन में
सदा छिड़ा रहता है द्वंद
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने
अपना शौर्य सँवारा है
शोषण के वीभत्स जाल को
बुना, सतत विस्तारा है
*
बंद करो मिथ्या नारा
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं
उद्घोषित कर मीठी बातें
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता
अन्य कोई बन सकता
अपना भाग्य बनाना खुद को
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ
अर्जुन सम करतीं विचलित
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का
प्रेरक होता है विगलित
*
फिर निराश होता थक जाता
हार सहज शुभ सुखद लगे
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम
जीवन खुद को सफल लगे
*
दुविधाओं के भँवरजाल में
डूब-डूब वह जाता है
क्या करना है सोच न पाता
खड़ा, ठगा पछताता है
*

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