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रविवार, 22 अगस्त 2021

राखी

विशेष आलेख- 
रक्षाबंधन : कल, आज और कल 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।

सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)

रक्षा बंधन क्यों ?

स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।

महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)

भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-

बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।


बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)

उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है।  जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।

बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)

रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ  ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया। 

संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )

रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है। 

कजलियाँ 

कजलियां मुख्‍यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्‍ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। 

भाई दूज 

कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी  इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है। 
***
राखी पर एक रचनाबंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
*
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर ९४२५१८३२४४   

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