कृष्ण कौन हैं?
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कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
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कृष्ण पीर हैं,
दर्द-व्यथा की अकथ कथा हैं।
कष्ट-समुद ही गया मथा हैं।
जननि-जनक से दूर हुए थे,
विवश पूतना, दुष्ट बकासुर,
तृणावर्त, यमलार्जुन, कालिय,
दंभी इंद्र, कंस से निर्भय
निपट अकेले जूझ रहे थे,
नग्न-स्नान कुप्रथा-रूढ़ि से,
अंधभक्ति-श्रद्धा विमूढ़ से,
लडे-भिड़े, खुद गाय चराई,
वेणु बजाई, रास रचाई।
छूम छनन छन, ता-ता-थैया,
बलिहारी हों बाबा-मैया,
उभर सके जननायक बनकर,
मिटा विपद ठांड़े थे तनकर,
बंधु-सखा, निज भूमि छोड़ क्या
आँखें रहते सूर हुए थे?
या फिर लोभस्वार्थ के कारण
तजी भूमि; मजबूर हुए थे?
नहीं 'लोकहित' साध्य उन्हें था,
सत्-शिव ही आराध्य उन्हें था,
इसीलिए तो वे सुंदर थे,
मनभावन मोहक मनहर थे।
थे कान्हा गोपाल मुरारी
थे घनश्याम; जगत बलिहारी
पौ फटती लालिमा भौन हैं।
कौन बताए कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
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कृष्ण दीन हैं,
आम आदमी पर न हीन हैं।
निश-दिन जनहित हेतु लीन हैं।
प्राणाधिक प्रिय गोकुल छोड़ा,
बन रणछोड़ विमुख; मुख मोड़ा,
जरासंध कह हँसा 'भगोड़ा',
समुद तीर पर बसा द्वारिका
प्रश्न अनेकों बूझ रहे थे।
कालयवन से जा टकराए,
आक्रांता मय दनु चकराए,
नहीं अनीति सहन कर पाए,
कर्म-पंथ पर कदम बढ़ाए।
द्रुपदसुता की लाज न जाए,
मान रुक्मिणी का रह पाए,
पार्थ-सुभद्रा शक्ति-संतुलन,
धर्म वरें, कर अरि-भय-भंजन,
चक्र सुदर्शन लिए हाथ में
शीश काटते क्रूर हुए थे?
या फिर अहं-द्वेष-जड़ता वर
अहंकार से चूर हुए थे?
नहीं 'देशहित' साध्य उन्हें था,
सुख तजना आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे नटनागर थे,
सत्य कहूँ तो भट नागर थे।
चक्र सुदर्शन के धारक थे,
शिशुपालों को ग्रह मारक थे,
धर्म-पथिक के लिए पौन हैं।
कौन बताए कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
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कृष्ण छली हैं,
जो जग सोचे कभी न करते।
जो न रीति है; वह पथ वरते।
बढ़ें अकेले; तनिक न डरते,
साथ अनेकों पग चल पड़ते।
माधव को कंकर में शंकर,
विवश पाण्डवों में प्रलयंकर,
दिखे; प्रश्न-हल सूझ रहे थे।
कर्म करो फल की चिंता बिन,
लड़ो मिटा अन्यायी गिन-गिन,
होने दो ताण्डव ता तिक धिन,
भीष्म-द्रोण के गए बीत दिन।
नवयुग; नवनिर्माण राह नव,
मिटे पुरानी; मिले छाँह नव,
सबके हित की पले चाह नव,
हो न सुदामा सी विपन्नता,
और न केवल कुछ में धनता।
क्या हरि सच से दूर हुए थे?
सुख समृद्धि यशयुक्त द्वारिका
पाकर खुद मगरूर हुए थे?
नहीं 'प्रजा हित' साध्य उन्हें था,
मिटना भी आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे उन्नायक थे,
जगतारक शुभ के गायक थे।
थे जसुदासुत-देवकीनंदन
मनुज माथ पर शोभित चंदन
जीवनसत्व सुस्वादु नौन हैं।
कौन बताए कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
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संजीव
१५-२-२०२१
आचार्य कृष्णकान्त चतुर्वेदी जी
भारतीय मनीषा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि, विद्वता के पर्याय, सरलता के सागर, वाग्विदग्धता के शिखर आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी का जन्म १९ दिसंबर १९३७ को हुआ। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ आपके व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं-
जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला
गौरव गंध उसे उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।।
कालिदास अकादमी उज्जैन के निदेशक, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में संस्कृत, पाली, प्रकृत विभाग के अध्यक्ष व् आचार्य पदों की गौरव वृद्धि कर चुके, भारत सरकार द्वारा शास्त्र-चूड़ामणि मनोनीत किये जा चुके, अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के सर्वाध्यक्ष निर्वाचित किये जा चुके, महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्राच्य विद्या के विशिष्ट विद्वान के रूप में सम्मानित, राजशेखर अकादमी के निदेशन आदि अनेक पदों की शोभा वृद्धि कर चुके आचार्य जी ने ४० छात्रों को पीएच डी, तथा २ छात्रों को डी.लिट् करने में मार्गदर्शन दिया है। राधा भाव सूत्र, आगत का स्वागत, अनुवाक, अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा, ड्वायर वेदांत तत्व समीक्षा, आगत का स्वागत, बृज गंधा, पिबत भागवतम, आदि बहुमूल्य कृतियों की रचना कर आचार्य जी ने भारती के वांग्मय कोष की वृद्धि की है।
जगद्गुरु रामानंदाचार्य सम्मान, पद्मश्री श्रीधर वाकणकर सम्मान, अखिल भारतीय कला सम्मान, ज्योतिष रत्न सम्मान, विद्वत मार्तण्ड, विद्वत रत्न, सम्मान, स्वामी अखंडानंद सामान, युगतुलसी रामकिंकर सम्मान, ललित कला सम्मान, अदि से सम्मानित किये जा चुके आचार्य श्री संस्कारधानी ही नहीं देश के गौरव पुत्र हैं। आप अफ्रीका, केन्या, वेबुये आदि देशों में भारतीय वांग्मय व् संस्कृति की पताका फहरा चुके हैं। आपकी उपस्थिति व आशीष हमारा सौभाग्य है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान संरक्षक के रूप में आपको को धन्य पा रहा है।
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डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी
जन्म - १८ दिसंबर १९४५, पन्ना मध्य प्रदेश।
शिक्षा - एम.ए. संस्कृत, बी.एड., पीएच. डी., एम.डी.एस., पंच वर्षीय यूजीसी पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप महर्षि सांदीपनि वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी।
संप्रति - प्राध्यापक तथा प्रवाचक वैदिक विश्वविद्यालय।
रचनाएँ - १. कालिदास एवं अश्वघोष के दार्शनिक तत्व। २. वैष्णव आगम के वैदिक आधार। ३. उन्मेष काव्य संग्रह। ४. युग परिधि (श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न पर केंद्रित उपन्यास)।
परामर्शदात्री विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर।
अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
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विशिष्ट वक्ता
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
श्रद्धेय डॉ. सुरेश कुमार वर्मा नर्मदांचल की साधनास्थली संस्कारधानी जबलपुर के गौरव हैं। "सदा जीवन उच्च विचार" के सूत्र को जीवन में मूर्त करने वाले डॉ. वर्मा अपनी विद्वता के सूर्य को सरलता व् विनम्रता के श्वेत-श्याम मेघों से आवृत्त किये रहते हैं। २० दिसंबर १९३८ को जन्मे डॉ. वर्मा ने प्राध्यापक हिंदी, विभागाध्यक्ष हिंदी, प्राचार्य तथा अतिरिक्त संचालक उच्च शिक्षा के पदों पर रहकर शुचिता और समर्पण का इतिहास रचा है। आपके शिष्य आपको ऋषि परंपरा का आधुनिक प्रतिनिधि मानते हैं।
शिक्षण तथा सृजन राजपथ-जनपथ पर कदम-डर-कदम बढ़ते हुए आपने मुजताज महल, रेसमान, सबका मालिक एक, तथा महाराज छत्रसाल औपन्यासिक कृतियोन की रचना की है। निम्न मार्गी व दिशाहीन आपकी नाट्य कृतियाँ हैं। जंग के बारजे पर तथा मंदिर एवं अन्य कहानियाँ कहानी संग्रह तथा करमन की गति न्यारी, मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ आपके निबंध संग्रह हैं। डॉ. राम कुमार वर्मा की नाट्यकला आलोचना तथा हिंदी अर्थान्तर भाषा विज्ञान का ग्रन्थ है। इन ग्रंथों से आपने बहुआयामी रचनाधर्मिता व् सृजन सामर्थ्य की पताका फहराई है।
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा हिंदी समालोचना के क्षेत्र में व्याप्त शून्यता को दूर करने में सक्षम और समर्थ हैं। सामाजिक विषमता, विसंगति, बिखराब एयर टकराव के दिशाहीन मानक तय कर समाज में अराजकता बढ़ाने की दुष्प्रवृत्ति को रोकन ेमें जिस सात्विक और कल्याणकारी दृष्टि की आवश्यकता है, आप उससे संपन्न हैं।
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विशिष्ट वक्ता डॉ. इला घोष
वैदिक-पौराणिक काल की विदुषी महिलाओं गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, रोमशा, पार्वती, घोषवती की परंपरा को इस काल में महीयसी महादेवी जी व चित्रा चतुर्वेदी जी के पश्चात् आदरणीया िला घोष जी ने निरंतरता दी है। ४३ वर्षों तक महाविद्यालयों में शिक्षण तथा प्राचार्य के रूप में दिशा-दर्शन करने के साथ ७५ शोधपत्रों का लेखन-प्रकाशन व १३० शोध संगोष्ठियों को अपनी कारयित्री प्रतिभा से प्रकाशित करने वाली इला जी संस्कारधानी की गौरव हैं।
संस्कृत वांग्मय में शिल्प कलाएँ, संस्कृत वांग्मये कृषि विज्ञानं, ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन, वैदिक संस्कृति संरचना, नारी योगदान विभूषित, सफलता के सूत्र- वैदिक दृष्टि, व्यक्तित्व विकास में वैदिक वांग्मय का योगदान, तमसा तीरे तथा महीयसी आदि कृतियां आपके पांडित्य तथा सृजन-सामर्थ्य का जीवंत प्रमाण हैं।
दिल्ली संस्कृत साहित्य अकादमी, द्वारा वर्ष २००३ में 'संस्कृत साहित्ये जल विग्यानम व् 'ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन' को तथा वर्ष २००४ में 'वैदिक संस्कृति संरचना' को कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा भोज पुरस्कार से सामंत्रित किया जाना आपके सृजन की श्रेष्ठता का प्रमाण है। संस्कृत, हिंदी, बांग्ला के मध्य भाषिक सृजन सेतु की दिशा में आपकी सक्रियता स्तुत्य है। वेद-विज्ञान को वर्तमान विज्ञान के प्रकाश में परिभाषित-विश्लेषित करने की दिशा में आपके सत्प्रयाह सराहनीय हैं। हिंदी छंद के प्रति आपका आकर्षण और उनमें रचना की अभिलाष आपके व्यक्तित्व का अनुकरणीय पहलू है।
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०१ आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी
०२ डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी
०३ आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
०४ पवन सेठी
०४ सरला वर्मा
०५ अचल सिंह
०६ इंद्रा गुप्ता,
०७ कुमकुम सिन्हा
०८ पुष्पा सक्सेना
०९ राहुल श्रीवास्तव
१० संध्या गोयल सुगम्या
११ उमेश पाठक
१२ मनोरमा जैन 'पाखी'
१३ रेखा श्रीवास्तव
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डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी -
कृष्ण भक्ति के गोपी भाव के साक्षी हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाई जी' संबंधी विविध प्रसंगों को सुनाकर चंद्रा जी ने गोपी भाव की श्रेष्ठता प्रतिपादित की।
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी -
मानव के अंत:करण में विराजमान भाव वैविध्य के नियंता, लीलाविहारी, समस्र रस विग्रह के रूप श्रीकृष्ण हर दृष्टि में भिन्न रूप धारी हैं। गोकुल के कृष्ण, द्वारिकावासी कृष्ण, गीता के उद्गाता कृष्ण एक ही हैं भिन्न? कृष्ण एक हैं जो अनेक रूपों में व्याप्त हैं। कृष्ण अनिर्वचनीय है, उन पर पड़नेवाली दृष्टि भी अनिवर्चनीय हो यह स्वाभाविक है। ।
पवन सेठी - जीव की मूल प्रवृत्तियान पलायन, निरोध, जिज्ञासा, सुषुप्ति, रचनात्मकता, संचय, सामूहिकता, काम, दैन्य, पौरुष, क्षुधा, हास आदि कृष्ण के व्यक्तित्व पूर्णता के साथ उपस्थित रहीं। कृष्ण का व्यक्तित्व आप्तकाम, निष्काम, उभयमुखी है।
संध्या गोयल 'सुगम्या' - कहानी कन्हैया के गोपी लीला प्रसंग पर केंद्रित कहानी में प्रेम के आध्यात्मिक प्रसंगों को, लौकिक दृष्टि से लिखने -चित्रित करने प्रवृत्ति को उद्घाटित किया गया। धर्म जीवन से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। इसलिए जितनी दृष्टियाँ, उतने रूप।
मनोरमा जैन 'पाखी' - कृष्ण के दो रूप लोक रंजक और लोक रक्षक के व्याप्त। २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ के समवयस्क चचेरे भाई कृष्ण हैं। नेमिनाथ बलशाली थे। कृष्ण को भय था कि नेमिनाथ को सत्ता न मिल जाए। चुनौती मिलने पर कृष्ण के पाञ्चजन्य को नेमिनाथ ने बजाया। भीत कृष्ण ने नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ की राजकुमारी तय कराया। राह में भोज में भक्ष्य पशुओं नेमिनाथ को वैराग्य हो गया।
कृष्ण नवमें वासुदेव हैं। वे पश्चात् तीर्थंकर परंपरा में कृष्ण तीर्थंकर होंगे। कृष्ण नेमिनाथ से प्रभावित थे। राजकुमारी राजुलमती ने विह्वल होकर दीक्षा ग्रहण कर ली। कृष्ण राजवंशी थे पर आम लोगों के बीच में पले-बढ़े और मृत्यु भी जंगल में हुई।
संजीव 'वर्मा' सलिल' -
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