समस्याओं को उकेर, उनके निदान सुझाता दोहा संग्रह: "उठने लगे सवाल"
चर्चाकार- सोनिया वर्मा
[पुस्तक विवरण: उठने लगे सवाल, दोहा संग्रह, राजपाल सिंह गुलिया, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ संख्या ९६, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली ११००३०। चर्चाकार संपर्क: सोनिया वर्मा
जूनियर एम. आई . जी - ९१७, वीर सावरकर नगर हीरापुर , रायपुर ४९२०९९ ( छ.ग.)]
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गुलिया जी का दोहा संग्रह यह दर्शाता है कि कवि के मन में पारिवारिक समस्याओं, बढ़ते अलगाववाद, लूट-खसोट, चोरी, भ्रष्टाचार, धर्मनिरपेक्षता, पाखंडों, कृषि और कृषक से जुड़ी समस्याओं पर सवाल उठते हैं। बढ़ रही आपराधिक प्रवृत्तियों और आतंकवाद की गतिविधियों में वृद्धि को देखते हुए कवि मन विचलित हो यह स्वाभाविक है पर उससे ज़्यादा तब आहत होता है, जब अपराधियों में कानून या सज़ा का भय भी न रहे। आक्रोशित कवि- मन स्वतः ही कह उठता है कि-
खौफ़ मौत का भी नहीं, मान रहे शैतान।
जिम्मा हर अपराध का, लेते सीना तान।।

रैली भाषण घोषणा, नारे और प्रचार।
मत हथियाने के यही, हैं सारे हथियार।।
बन जाए सरकार तब, कोसो मत श्रीमान।
अभी समय है सोच कर, करो सभी मतदान।।
फूट डालने का काम करता है झूठ। लोग झूठे आरोपों पर मनमुटाव कर लेते हैं। यहाँ तक कि ऐसे शीत युद्ध बहुत लम्बे समय तक चलते रहते हैं। ऐसे में कवि मन सहसा ही कह उठता है कि-
निराधार आरोप पर, बात बढ़ाए कौन।
सबसे अच्छा झूठ का, उत्तर है बस मौन।।
जीवन की आधारभूत आवश्यकता भोजन है और भोजन मिलता है कृषक के अथक प्रयास से। कृषक किसी देश की रीढ़ की हड्डी के समान होते हैं पर इनकी दशा बहुत ख़राब है। जिसके कारण अधिकतर कृषक कृषि छोड़, कुछ अन्य कामकाज करने लगें हैं और जो बच गये उनकी स्थिति को दोहे में कुछ ऐसे बयां किया है कवि ने-
घटाटोप को देखकर, सोचे खड़ा किसान।
देखूँ सूखा खेत या, दरका हुआ मकान।।
किसान बारिश से परेशान हो या ख़ुश, समझ नहीं पाता है। ख़ुद की ग़लतियों से मनुष्य ने पर्यावरण को इतना दूषित कर दिया है कि पृथ्वी का प्रकोप अब अम्ल वर्षा, सूखा और अकाल आदि के रूप में सामने आ रहा है।पर्यावरण के सबसे अच्छे रक्षक हैं पेड़। मृदा, पानी और वातावरण सब नियंत्रित रहता है पेड़ के होने से। इस पर कवि मन सवाल करता है कि-
भीषण गर्मी पड़ रही, सूरज उगले आग।
बहुत ज़रूरी पेड़ हैं, मानव अब तो जाग।।
वायु प्रदूषण के साथ-साथ कवि ने जल प्रदूषण पर भी कई प्रश्न किये हैं। बढ़ते जल प्रदूषण के कारण नदियों का अस्तित्व भी ख़तरें में पड़ गया है-
मैली गंगा देखकर, उभरा यही सवाल।
आज भगीरथ देखते, होता बहुत मलाल।।
मनुष्य चाहे जैसा भी रहे, अपने परिवार के बारे में सोचता ही है।वर्तमान परिवेश में माँ-बाप की महत्ता घटती जा रही है, रिश्ते गौण हो गये हैं। माता-पित अपमान का घूँट पीकर रह जाते हैं, तब वह प्रसन्न होता है जिसकी संतानें नहीं हैं-
रिश्तों ने जब-जब किया, पगड़ी का अपमान।
गर्वित किस्मत पर हुआ, तब-तब निस्संतान।।
परिवार, समाज के कार्य और अपना दायित्व निर्वाह करते-करते मनुष्य की उम्र तो बढ़ती जाती है परंतु अपने सपने पूरे नहीं कर पाने का मलाल रह ही जाता है। अपने कार्य पूर्ण करने के लिए सुबह शाम काम, काम और बस काम ही करता है। कई बार ऐसी परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है, जिसे हम पसंद नहीं करते-
नाम इसी का चाकरी, खटो सुबह और शाम।
आए गुस्सा देखकर, उनको करो सलाम।
चाह अधूरी ही रही, मनुआ रहा अधीर।
सपने पूरे कब हुए, पूरा हुआ शरीर।।
चापलूस लोगों का बोलबोला हर जगह रहता है। हर काम बहुत ही आसानी से निकाल लेते हैं ऐसे लोग। ज़िन्दगी की सच्चाई को बहुत ही सरल शब्दों में कवि ने कहा है कि-
लिखे महल की शान में, उसने सुंदर लेख।
टपक रही थी छत मगर, किया नहीं उल्लेख।।
प्रस्तुत संग्रह में गुलिया जी ने सरल और सधे हुए शब्दों में प्रभावशाली दोहे कहे हैं। यह दोहा संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है।
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