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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

khanjan

खंजन 
भारतीय साहित्य के एक चिरपरिचित और उपमेय पक्षी खंजक को खिंडरिच, खंजरीट, खंडलिच, खड़इंच (अवध), पुचुक चिरैया (छ.ग.) आदि नामों से भी पुकारते हैं। यह मोटासिलिडी (Motacillidae) कुल के मोटासिला (motacilla) वर्ग (genus) का पक्षी है जिसे अंग्रेजीमें वैगटेल कहते हैं। रंगरूप और स्वभाव में भेद के अनुसार इसकी चार जातियां देश में पाई जाती हैं।यह भारत का बहुत प्रसिद्ध पक्षी है जो जाड़ों में उत्तर की ओर से आकर सारे देश में फैल जाता है और गरमी आरंभ होते ही शीत प्रदेशों को लौट जाता है। यह छोटा सा चंचल पक्षी है। इसकी लंबाई ७ से ९ इंच तक होती है। देह लंबी तथा पतली होती है। यह पानी के किनारे बैठा अपनी पूँछ बराबर हिलाता रहता है। इसके नेत्र हर समय चंचल रहते हैं जिसके कारण भारतीय कवि नेत्रों की उपमा खंजन से दिया करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में लिखा है :"खंजन मुंज तिरीछे नैननि।" 
खंजन लगभग ८ इंच लंबा और रंग में चितकबरा होता है। जाड़ों में इसके नर के सिर के पीछे एक काला चकत्ता रहता है जो गले के चारों ओर फैल जाता है। सिर का ऊपरी भाग और शरीर का निचला हिस्सा सफेद होता है जिसमें थोड़ी कंजई झलक रहती है। ऊपर का हिस्सा हल्का सिलेटी और डैने काले होते हैं। डैने के परों के किनारे सिलेटी और सफेद होते है ; दुम काली होती है जिसके दोनों बाहरी पंख सफेद रहते हैं। गर्मियों में ठुट्ढी से सीने तक का रंग काला हो जाता है। नर की अपेक्षा मादा धुमैली होती है और शरीर पर की चित्तियां चटक नहीं होती। यह जाड़ों में देश में प्राय: सर्वत्र पानी के किनारे दिखाई देता है। गरमियों में यह यहाँ से लौटकर कश्मीर तथा हिमालय की तराई में अपने घोंसले बनाकर रहता है और वहीं अंडे देता है। इस प्रकार ऋतु के अनुसार इतनी इतनी दूरियों का स्थानांतरण प्रकृति का एक आश्चर्यजनक चमत्कार ही कहा जाएगा। यह पानी के किनारे छोटे छोटे झुंडों में कीड़े मकोड़ों का शिकार करता रहता है और दौड़कर चलता है, अन्य पक्षियों की भाँति फुदकता नहीं। खतरे का आभास मिलने पर उड़ जाता है किंतु थोड़ी ही दूर के बाद पुन: जमीन पर उतर आता है। इसकी उड़ान लहराती हुई होती है और उड़ते समय चिट् चिट् जैसी बोली बोलता रहता है। सामान्यत: यह पक्षी दो-चार की ही टोली में देखा जाता है किंतु जब वे पहाड़ों की ओर लौटते हैं तो इनका एक बड़ा समूह बन जाता है।
खंजन लगभग ८ इंच लंबा और रंग में चितकबरा होता है। जाड़ों में इसके नर के सिर के पीछे एक काला चकत्ता रहता है जो गले के चारों ओर फैल जाता है। सिर का ऊपरी भाग और शरीर का निचला हिस्सा सफेद होता है जिसमें थोड़ी कंजई झलक रहती है। ऊपर का हिस्सा हल्का सिलेटी और डैने काले होते हैं। डैने के परों के किनारे सिलेटी और सफेद होते है ; दुम काली होती है जिसके दोनों बाहरी पंख सफेद रहते हैं। गर्मियों में ठुट्ढी से सीने तक का रंग काला हो जाता है। नर की अपेक्षा मादा धुमैली होती है और शरीर पर की चित्तियां चटक नहीं होती। यह जाड़ों में देश में प्राय: सर्वत्र पानी के किनारे दिखाई देता है। गरमियों में यह यहाँ से लौटकर कश्मीर तथा हिमालय की तराई में अपने घोंसले बनाकर रहता है और वहीं अंडे देता है। इस प्रकार ऋतु के अनुसार इतनी इतनी दूरियों का स्थानांतरण प्रकृति का एक आश्चर्यजनक चमत्कार ही कहा जाएगा।
सफेद खंजन- यह पानी के किनारे छोटे छोटे झुंडों में कीड़े मकोड़ों का शिकार करता रहता है और दौड़कर चलता है, अन्य पक्षियों की भाँति फुदकता नहीं। खतरे का आभास मिलने पर उड़ जाता है किंतु थोड़ी ही दूर के बाद पुन: जमीन पर उतर आता है। इसकी उड़ान लहराती हुई होती है और उड़ते समय चिट् चिट् जैसी बोली बोलता रहता है। सामान्यत: यह पक्षी दो चार की ही टोली में देखा जाता है किंतु जब वे पहाड़ों की ओर लौटते हैं तो इनका एक बड़ा समूह बन जाता है।
शबल खंजन- ममोला और कालकंठ भी कहते हैं। यह सफेद खंजन से कुछ बड़ा और उससे अधिक चितकबरा होता है। नर का सिर, ऊपरी सीना और शरीर का सारा ऊपरी भाग काला होता है। आँख के ऊपर एक चौड़ी पट्टी होती है जो नथुने से लेकर कान तक चली जाती है। डैने काले होते हैं, जिनके किनारे सफेद रहते हैं ; दुम काली होती है जिसके बाहर के दोनों पंखों का अधिकांश भाग सफेद होता है नीचे शरीर का सारा भाग सफेद होता है। नर और मादा रूपरंग में प्राय: एक से ही होते हैं। अंतर केवल इतना ही है कि मादा का काला भाग चटक काला न होकर कुछ रखीले भूरेपन को लिए होता है। यह भारतवर्ष का बारहमासी पक्षी है और अपना देश छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाता। यह देश के प्राय: सभी स्थानों पर तथा हिमालय में भी पाँच हजार फुट की ऊंचाई तक देखने में आता है। यह अकेले या झुंड में नदियों, झीलों और तलाबों के किनारे कीड़े मकोड़े ढूंढ़ता फिरता है। इसकी प्राय: सभी आदतें सफेद खंजन जैसी ही होती हैं। घोसला बनाने के मामले में यह पक्षी अत्यंत लापरवाह है। पानी के निकट किसी भीटे या चट्टानों की सूराख में थोड़ा सा घासफूस रखकर ही मादा अंडा दे देती है।
भूरा खंजन- इसे खैरैया भी कहते हैं। यह जाड़ों में उत्तर और पश्चिम की ओर से आता है और हिमालय से लेकर धुर दक्षिण तक फैल जाता है। यह पानी के किनारे अकेले ही रहता है। यह अपनी लंबी दुम, निलछौंह स्लेटी पीठ और पीले पेट के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। जाड़ों में नर और मादा दोनों का ऊपरी भाग निलछौंह स्लेटी रहता है और उसमें हरछौंह झलक भी जान पड़ती है। दुम की जड़ के पास एक पिलछौंह हरा चकत्ता रहता है और आँख के ऊपर एक गंदी सफेद रेखा जाती है। डैने काले भूरे होते हैं जिसके किनारे पिलछौंह सफेद रहते हैं। दुम काली जिसके किनारे हरछौंह और ........ के तीन जोड़े पंख एकदम सफेद रहते हैं। ठुड्ढी गला और गर्दन का अगला भाग सफेद रहाता है। नीचे का सारा भाग पीला होता है जो दुम तक जाते जाते अधिक चटक हो जाता है। गर्मियों में नर की ठुड्ढी गला और गर्दन का अगला भाग काला हो जाता है। यह समान्यत: पहाड़ी झरनों के किनारे रहने वाला पक्षी है लेकिन इसे सभी प्रकार के जलाशयों के किनारे देखा जा सकता है। गर्मियों में यह पक्षी स्वदेश लौट जाता है; कुछ हिमालय में रह भी जाते हैं और वहीं मई जून में अंडे देते हैं।
पीला खंजन- इसे पिनाकी भी कहते हैं। यह ७ इंच का छोटा पक्षी है। जाड़ों में इसके नर के सिर का ऊपरी हिस्सा निलछौंह सिलेटी और पीठ का सारा भाग धुमैला जैतूनी भूरा रहता है। डैने गाढ़े भूरे रंग के होते हैं; दुम काली होती है। सिर के दोनों ओर एक चौड़ी कलछौंह पट्टी होती हैं। शरीर के नीचे का सारा हिस्सा पीला होता है। गर्मियों में नर के सिर के ऊपर का हिस्सा सिलेटी और पीठ का सारा भाग पिलछौंह हरा हो जाता है। सिर के दोनों ओर की पट्टी काली हो जाती है और नीचे का पीला रंग और चटक हो जाता है। मादा सामान्यत: नर के समान ही होती है अंतर यह है कि उसका सिर हरा और पीठ गाढ़ी जैतूनी भूरी होती है। शरीर के नीचे का पीला रंग हलका रहता है। यह खंजनों में सबसे सुंदर कहा जाता है। इस जाति का खंजन जाड़ों में अगस्त महीने के आसपास उत्तर और पश्चिम से आते हैं और जाड़ा समाप्त होने पर अप्रैल तक उसी ओर लौट जाते हैं। यह अकेला रहने वाला पक्षी है किंतु शाम को बहुत से पीले खंजन एकत्र होकर नरकुल आदि पर बसेरा करते हैं
इन सभी जातियों के खंजन ४ से ७ अंडे देते हैं।
आभार: विकीपीडिया 

शब्दसागर खंजन संज्ञा पुं॰ [सं॰] 


१. एक प्रसिद्ध पक्षी । खँड़रिच । विशेष—इसकी अनेक जातियाँ एशिया, युरोप, और अफ्रिका में अधिकता से पाई जाती हैं । इनमें से भारतवर्ष का खंजन मुख्य और असली माना जाता है । यह कई रग तथा आकार का होता है तथा भारत में यह हिमालय की तराई, आशाम और बरमा में अधिकता से होता है । इसका रंग बीच बीच में कहीं सफेद और कहीं काला होता है । यह प्रायः एक बालिश्त लंबा होता है और इसकी चोंच लाल और दुम हलकी काली झाई लिए सफेद और बहुत सुंदर होती है । यह प्रायः निर्जन स्थानों में और अकेला ही रहता है तथा जाड़े के आरंभ में पहाड़ों से नीचे उतर आता है । लोगों का विश्वास है कि यह पाला नहीं जा सकता, और जब इसके सिर पर चोटी निकलती है, तब यह छिप जाता है और किसी को दिखाई नहीं देता । यह पक्षी बहुत चंचल होता है इसलिये कवि लोग इससे नेत्रों की उपमा देते हैं । ऐसा प्रसिद्ध है कि यह बहुत कम और छिपकर रति करता है । कहीं कहीं लोग इसे 'खँडरिच' या 'ममोला' कहते हैं । पर्या॰—खंजखल । मुनिपुत्रक । भद्रनामा । रत्ननिधि । चर । काकछड़ । नीलकंठ । कणाटीर
२. खंडरिच के रंग का घोड़ा ।
३. 'गंगाधर' या 'गंगोदक' नामक छद का एक नाम ।
४. लँगड़ाते हुए चलना ।
अंग्रेज़ी में नाम : White Wagtail, वैज्ञानिक नाम : Motacilla alba
{L. motacilla, a wagtail,-cilla, hair, alba : L. albus, white.}
स्थानीय नाम : हिंदी में इसे धोबन भी कहा जाता है। पंजाब में इसे बालकटारा, बांग्ला में खंजन, आसाम में बालीमाटी और तिपोसी और मलयालम में वेल्ला वलकुलुक्की कहते हैं।
विवरण व पहचान : बड़े प्यारे और सुंदर दिखने वाले इस पक्षी का आकार गोरैयों के बराबर, लगभग 8 इंच लंबा और रंग में चितकबरा होता है। ये पतली होती हैं। इन्हें खड़रिच भी कहा जाता है। नर और मादा रूपरंग में प्राय: एक से ही होते हैं। नर के शरीर ऊपरी हिस्सा राख के रंग का और नीचे का सफेद होता है। सिर के ऊपर का हिस्सा काला होता है। इसकी छाती पर एक काला चन्द्राकार चित्ता भी रहता है। डैने काले होते हैं, जिन पर सफेद धारियां बनी होती हैं। किन्तु उनके सिरों पर सफेदी रहती है। यह पक्षी साल में कई बार अपना रंग बदलता है। जाड़ों में इसके नर के सिर के पीछे एक काला चकत्ता रहता है जो गले के चारों ओर फैल जाता है। सिर का ऊपरी भाग और शरीर का निचला हिस्सा सफेद होता है जिसमें थोड़ी कंजई झलक रहती है। ऊपर का हिस्सा हल्का सिलेटी और डैने काले होते हैं। डैने के परों के किनारे सिलेटी और सफेद होते हैं ; दुम काली होती है जिसके दोनों बाहरी पंख सफेद रहते हैं। गरमी आते ही नर का सारा वक्षस्थल चमकीला काला हो जाता है और मादा का धूमिल होती हैं और शरीर पर की चित्तियां चटक नहीं होती। आंख की पुतलियां भूरी और चोंच और पांव काले होते हैं। भौंहें सफेद होती हैं। जाड़े में, जब इनका प्रजनन काल नहीं होता, आगे का वक्ष पर का काला भाग सफेद हो जाता है। ठोड़ी और गला भी नीचे की तरह सफेद हो जाता है।
व्याप्ति : जाड़े में समस्त भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के घास वाले मैदानी इलाक़ों में पाया जाता है। हमने इसकी तस्वीरें राजगीर, नालंदा और गंगासागर में ली थी।
अन्य प्रजातियां : भारत में पाई जाने वाली इसकी प्रमुख क़िस्में निम्नलिखित हैं –
1. Forest Wagtail – Dendronanthus indicus
2. चितकबरी – ख़ूबसूरती के लिए मशहूर – Large Pied Wagtail – M. maderaspatensis इसे ममोला और कालकंठ भी कहते हैं। यह सफेद खंजन से कुछ बड़ा और उससे अधिक चितकबरा होता है। यह भारतवर्ष का बारहमासी पक्षी है और अपना देश छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाता।
gray_wagtail3. भूरी – Grey Wagtail – M. cinerea इसे खैरैया भी कहते हैं। यह जाड़ों में उत्तर और पश्चिम की ओर से आता है और हिमालय से लेकर धुर दक्षिण तक फैल जाता है। यह अपनी लंबी दुम, निलछौंह स्लेटी पीठ और पीले पेट के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। गर्मियों में यह पक्षी स्वदेश लौट जाता है।


yellow wagtail4. पीली – Yellow Wagtail – Motacilla flava इसे पिल्किया भी कहते हैं। यह खंजनों में सबसे सुंदर कहा जाता है। इस जाति का खंजन जाड़ों में अगस्त महीने के आसपास उत्तर और पश्चिम से आते हैं और जाड़ा समाप्त होने पर अप्रैल तक उसी ओर लौट जाते हैं।
citrine wagtail (2)5. नीम्बू के रंग का - Citrine Wagtail – M. citreola
6. Eastern Yellow Wagtail – M. tschutchensis

आदत और वास : ये सितम्बर अक्तूबर में आ जाते हैं और मार्च-अप्रैल में वापस चले जाते है। काफ़ी चंचल होते हैं। घने जंगलों में ये शायद ही नज़र आएं। अधिकतर ये दिनभर जलाशयों के किनारे या खेत-खलिहानों, पगडंडियों पर या मानव-आवास के बीच, गोशाला, घर के आंगन में आदि स्थानों पर लगातार अपनी दुम ऊपर-नीचे हिलाते हुए इधर-उधर कीड़ों-मकोड़ों के लिए दौड़ लगाते रहते हैं। यह दौड़कर चलता है, अन्य पक्षियों की भाँति फुदकता नहीं। खतरे का आभास मिलने पर उड़ जाता है किंतु थोड़ी ही दूर के बाद पुन: जमीन पर उतर आता है। इसकी उड़ान लहराती हुई होती है और उड़ते समय ‘चिट् चिट्’ जैसी बोली बोलता रहता है। सामान्यत: यह पक्षी दो चार की ही टोली में देखा जाता है किंतु गरमी आते ही जब वे अपने स्थायी स्थानों पहाड़ों की ओर लौटते हैं तो इनका एक बड़ा समूह बन जाता है। गर्मी और बरसात ये पहाड़ों पर या हिमालय की घाटियों में बिताते हैं। वहीं अंडे देते है और शरद ऋतु में इनका फिर से मैदानों और आबादी वाले क्षेत्रों में आगमन होता है। इस प्रकार ऋतु के अनुसार इतनी इतनी दूरियों का स्थानांतरण प्रकृति का एक आश्चर्यजनक चमत्कार ही कहा जाएगा। इस पक्षी को धोबिन भी कहा जाता है। कपड़े धोती महिलाओं के बीच खुद भी मज़े से टहलता रहता है। यह अत्यंत मधुर तान छेड़ता है।
भोजन : यह छोटे-छोटे कीड़ों, मकोड़ों, मच्छरों और नम भूमि से इकट्ठा किए गए सूंड़ियों को अपना आहार बनाता है। कभी-कभी यह घास चरने वाले जानवरों द्वारा परेशान किए गए उड़ते कीड़े को भी पकड़ता है।
प्रजनन : वसंत के समाप्त होते ही ये पक्षी पहाड़ों की ओर चले जाते हैं। वहीं, हिमालय की गोद में पत्थरों के कोटरों में मई से जुलाई के बीच यह अपना प्यालानुमा घोंसला बनाता है। घोंसला सूखी घास, जड़ें, दूब, और इसी तरह के कर्कटों से बना होता है। प्रजनन काल में नर कई मिनटों तक सुरीले गीत गाता है। इसके अंडों की संख्या साधारणतः 4-6 होती है। अंडे चौड़े-अंडाकार होते हैं। छोटे किनारे की तरफ़ नुकीले होते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर अंडों की देखभाल करते हैं। चूजों को प्रायः कीड़े खिलाए जाते हैं। नर और मादा द्वारा संतानों को पाल-पोस कर यह इस लायक कर दिया जाता है कि वे वर्षा के समाप्त होते ही नीचे उतर आएं।

संदर्भ

1. The Book of Indian Birds – Salim Ali

2. Popular Handbook of Indian Birds – Hugh Whistler

3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carlos Inskipp, Tim Inskipp

4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

5. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, Biswajit Roychowdhury

6. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

7. एन्साइक्लोपीडिया पक्षी जगत – राजेन्द्र कुमार राजीव

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