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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

समय की आँख नम है- विनय मिश्र

डॉ. जगदीश व्योम
आँख नम होना, आँख भर आना, आँखें गीली होना आदि ऐसे मुहावरे हैं जिनके प्रयोग से मन में समाहित दुख अभिव्यंजित हो जाता है। वैयक्तिक प्रयोग में तो यह दुख किसी व्यक्ति विशेष के दुख तक सीमित रहकर किसी एक इकाई के दुख का बोध कराता है परन्तु जब समूचे समय की आँख नम होने की बात कही जाये तो इस दुख का फलक बहुत व्यापक हो जाता है। ऐसा महसूस होने लगता है कि हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसी अदर्शनीय चादर फैली हुई है जिसके रेशे-रेशे में दुख पिरोया हुआ है। प्रश्न उठता है कि यह दुख किस तरह का दुख है? कहाँ से प्रक्षेपित हो रहा है यह दुख? कितने रूप हैं इस दुख के? ऐसे अनेकानेक प्रश्न बुद्धिजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं।

विनय मिश्र का समकालीन गीत संग्रह ‘समय की आँख नम है’ ऐसी ही चिन्ताओं से उपजी रचनाओं का संकलन है जिसमें उनके एक सौ पाँच नवगीत प्रकाशित किए गए हैं। हिन्दी गज़लों के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके विनय मिश्र के पास रचनात्मक अनुभव की बड़ी पृष्ठभूमि है। उनके नवगीतों में जन जन के जीवन में परिव्याप्त तमाम तरह की चिन्ताएँ हैं। 

वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी है आपस में संवादहीनता का होना, सब अपने-अपने में व्यस्त हैं, किसी की रुचि किसी से बात करने में नहीं है और न ही किसी के पास आपस में संवाद का समय ही है। मोबाइल पर और फेसबुक पर  दुनियाभर की खोज खबर रखने वालों के पास इतना समय भी नहीं है कि वे जान सकें कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। इस संवादहीनता से आपसी रिश्ते टूट रहे हैं, सामाजिक ताने-बाने शिथिल होते जा रहे हैं-
कीड़े लगते संवादों की
खड़ी फसल में
काँटे उगते दुविधाओं के
मन मरुथल में
धीरे-धीरे जड़ से
उखड़ रहा है बरगद .. पृष्ठ-२२ 

कोर्ट, कचहरी यों तो सत्य की रक्षा के लिए हैं परन्तु वहाँ झूठ का ऐसा कारोबार होता है कि इसमें आम आदमी पिसा जा रहा है-
दौड़ धूप में 
कोट कचहरी लगी हुई है
अपना काम बनाने झूठी
अड़ी हुई है
जब तक सँभले देश
सियासत खेल कर गई ..... पृष्ठ-२४ 

जब हर जगह झूठ और भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है तब लेखक और कवियों से आशा की जाती है परन्तु विडम्बना है कि पुस्तकों की भीड़ तो है परन्तु पुस्तकों को पढ़ने वाला पाठक नहीं है। ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या रचनाकार  पाठक की सही नब्ज़ नहीं पकड़ पा रहे हैं या कुछ और बात है? विनय मिश्र ने यह एक बड़ा प्रश्न उठाया है-
पुस्तकों की भीड़ है
पाठक तिरोहित है
एक निर्णायक समय में
हम विवादित हैं
बढ़ा सुरसा के बदन-सा
रोज यह मसला .... पृष्ठ-२७ 

सन्त कवि ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ कह कर न जाने कब से सचेत करने का प्रयास करते रहे हैं किन्तु इसे व्यवहारिक जीवन में मानने को कोई तैयार नहीं है। सोने के मृग के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति बहुत पहले से चली आ रही है। हर व्यक्ति रातों-रात अमीर बन जाना चाहता है। एक दूसरे को धोखा देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति समाज के सामूहिक चरित्र में प्रविष्ट हो चुकी है। लोग सबके सामने समाज सेवा का दिखावा करते हैं परन्तु मौका मिलते ही अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, आम आदमी कठपुतली मात्र बनकर रह गया है-
कंचन मृग के पीछे भागे
लौटे अब तक राम नहीं

गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के
हम कठपुतली बने फिजूल
हैं विशिष्ट सुविधाओं वाले
कहने को पब्लिक स्कूल
तपते पथ पर दूर-दूर तक
शीतलता का नाम नहीं

कानाफूसी बढ़ी समय की
खींचतान समझौतों में
साँसें यहाँ सुपारी होकर
कटने लगीं सरौतों में
आज धुएँ में डूबी
आँखों में गोधूली शाम नहीं .... पृष्ठ-३२

ठगने ठगाने का कारोबार केवल धान तक ही सीमित नहीं रह गया है लोग दूसरों की भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकते हैं। पूजा-पाठ करना लोगों की धार्मिक आस्था के साथ जुड़ा हुआ है। परन्तु इसी पूजा-पाठ के बहाने ठगने-ठगाने का धंधा भी न जाने कब से हो रहा है। इसे भी धान कमाने का माध्यम बना लिया गया है, और अब तो इसके पीछे बड़े बड़े कारपोरेट घराने हैं जिन्होंने इसे एक बड़े कारोबार का रूप दे दिया है-  
सारी कलई इस मौसम की 
कोई सूरज खोल रहा
पूजापाठ कराने वाला
गोरखधंधा खूब चला
उसके दो को हमने अपना 
चार बनाकर खूब छला
काली काली यमुना का मन
जै राधा जी बोल रहा ... पृष्ठ- ३२ 

भारत में सरकार बनाने का कार्य जनता करती है, लेकिन जनता हर बार अपने को ठगा हुआ महसूस करती है। सरकारें बदलती हैं परन्तु जनता की दशा ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। आम आदमी गुस्से में मुट्ठियाँ तानता है पर होता कुछ नहीं। सरकार बनने से पहले नेता जो वादा करते हैं उसके बाद हालात वही बने रहते हैं-
आती जाती सरकारों के
उलझे हुए बयान
मुट्ठी ताने आग बबूला
देखो हिन्दुस्तान

लाख टके की बोली पर
दो कौड़ के हालात .... पृष्ठ-५६ 

इसे यों भी कह सकते हैं कि समूची राजनीति का चरित्र ही बदल गया है, वहाँ झूठ बोलने के बाद जब झूठ पकड़ा जाता है तो राजनेता शर्मिन्दा होने की जगह कुतर्क गढ़ते हैं। जैसे ही पद और प्रतिष्ठा मिलती है उनकी धारणा ही बदल जाती है। आम आदमी उनके लिए सिर्फ एक वोट है और यह वोट यदि समझदार हो जायेगा, खुशहाल हो जायेगा तो फिर उस पर मनमानी भला कैसे की जा सकेगी, उनका स्वार्थी मकसद पूरा कैसे होगा, इस सब को देखकर रचनाकार भी निराश हो गया है, यह अच्छा संकेत नहीं है- 
हरसिंगार झरते आँसू के
चाहत हुई बबूल
दूर-दूर तक आँखों में
उड़ती सपनों की धूल
सुख, गूलर का फूल हो गया
अब तक दिखा नहीं
तकदीरों के पन्ने बिखरे
जीवन फटी किताब
रिश्तों की फुलवारी उजड़ी
झुलसे गीत गुलाब
लौटेगा मौसम खुशियों का
हमको लगा नहीं ..... पृष्ठ-१२८

वर्तमान में सबसे बड़ा बदलाव यह दिखाई दे रहा है कि हमारे घर तक बाजार आ गया है, बाजारवाद ने सबको अपने मायाजाल में फँसा लिया है। खराब से खराब वस्तु को विज्ञापन के द्वारा अच्छा सिद्ध किया जा रहा है, लोगों को ठगा ही नहीं जा रहा है बल्कि उनके जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। हमारे राजनेता सब कुछ समझ कर अनजान बने हुए हैं और जनता को लुटेरों से लुटने दे रहे हैं क्योंकि इस लूट के माल में से जूठन उन्हें भी तो मिल रही है-
मुँह में लगी हुई उनके
झूठन देखो
सत्ता के मारों का
सनकीपन देखो
लाभ जिधर सारा दर्शन
उस ओर बहा  
दरवाजे पर विज्ञापन की
वंदनवार
हर कमरे में एक नया है कारोबार
क्या बोलूँ जब घर में ही
बाजार घुसा  ..... पृष्ठ-१४० 

 कुल मिलाकर ‘समय की आँख नम है’ के नवगीत अपने समय की तमाम तल्ख सच्चाइयों को उजागर करते हैं। भाषा का सहज रूप इन नवगीतों की विशेषता है। पेपर बैक में छपी १४४ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ११० रुपए है जो ठीक ही है। 
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गीत- नवगीत संग्रह -समय की आँख नम है, रचनाकार- विनय मिश्र, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-७७, सेक्टर-९, रोड नं.११, कर्तारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ११०/-, पृष्ठ- १४४, समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।

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