कार्यशाला-
दोहा से कुण्डलिया
रीता सिवानी-संजीव 'सलिल
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दोहा से कुण्डलिया
रीता सिवानी-संजीव 'सलिल
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धागा टूटा नेह का, बंजर हुई ज़मीन।
अब तो बनकर रह गया, मानव एक मशीन।।
मानव एक मशीन, न जिसमें कुछ विवेक है।
वहीं लुढ़कता जहाँ, स्वार्थ की मिली टेक है।।
रीता जैसे कलश, पियासा बैठा कागा।
कंकर भर थक गया, न पानी मिला अभागा।।
*
१०-९-२०१८
अब तो बनकर रह गया, मानव एक मशीन।।
मानव एक मशीन, न जिसमें कुछ विवेक है।
वहीं लुढ़कता जहाँ, स्वार्थ की मिली टेक है।।
रीता जैसे कलश, पियासा बैठा कागा।
कंकर भर थक गया, न पानी मिला अभागा।।
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१०-९-२०१८
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