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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

दोहा-कुण्डलिया

कार्यशाला-
दोहा से कुण्डलिया
रीता सिवानी-संजीव 'सलिल
*
धागा टूटा नेह का, बंजर हुई ज़मीन।
अब तो बनकर रह गया, मानव एक मशीन
मानव एक मशीन, न जिसमें कुछ विवेक है
वहीं लुढ़कता जहाँ, स्वार्थ की मिली टेक है
रीता जैसे कलश, पियासा बैठा कागा
कंकर भर थक गया, न पानी मिला अभागा
*
१०-९-२०१८ 

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