शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारास
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तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएँ सुप्त अवस्था में होती है। इणका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।
प्रथम स्रोत-
१.अन्नमय, २.प्राणमय, ३. मनोमय, ४.विज्ञानमय, ५.आनंदमय, ६.अतिशयिनी, ७.विपरिनाभिनी, ८.संक्रमिनी, ९.प्रभवि, १०.कुंथिनी, ११.विकासिनी, १२.मर्यादिनी, १३.सन्हालादिनी, १४.आह्लादिनी, १५.परिपूर्ण और १६.स्वरूपवस्थित।
द्वितीय स्रोत-
१.श्री, २.भू, ३.कीर्ति, ४.इला, ५.लीला, ६.कांति, ७.विद्या, ८.विमला, ९.उत्कर्षणी , १०.ज्ञान, ११.क्रिया, १२.योग, १३.प्रहवि, १४.सत्य, १५.इसना और १६.अनुग्रह।
तृतीय स्रोत-
१.प्राण, २.श्रधा, ३.आकाश, ४.वायु, ५.तेज, ६.जल, ७.पृथ्वी, ८.इन्द्रिय, ९.मन, १०.अन्न, ११.वीर्य, १२.तप, १३.मन्त्र, १४.कर्म, १५.लोक और १६. नाम।
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तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएँ सुप्त अवस्था में होती है। इणका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।
प्रथम स्रोत-
१.अन्नमय, २.प्राणमय, ३. मनोमय, ४.विज्ञानमय, ५.आनंदमय, ६.अतिशयिनी, ७.विपरिनाभिनी, ८.संक्रमिनी, ९.प्रभवि, १०.कुंथिनी, ११.विकासिनी, १२.मर्यादिनी, १३.सन्हालादिनी, १४.आह्लादिनी, १५.परिपूर्ण और १६.स्वरूपवस्थित।
द्वितीय स्रोत-
१.श्री, २.भू, ३.कीर्ति, ४.इला, ५.लीला, ६.कांति, ७.विद्या, ८.विमला, ९.उत्कर्षणी , १०.ज्ञान, ११.क्रिया, १२.योग, १३.प्रहवि, १४.सत्य, १५.इसना और १६.अनुग्रह।
तृतीय स्रोत-
१.प्राण, २.श्रधा, ३.आकाश, ४.वायु, ५.तेज, ६.जल, ७.पृथ्वी, ८.इन्द्रिय, ९.मन, १०.अन्न, ११.वीर्य, १२.तप, १३.मन्त्र, १४.कर्म, १५.लोक और १६. नाम।
वास्तव में १६ कलाएँ बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की १५ अवस्थाएँ ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।
१९ अवस्थाएँ: भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की ३ प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् की १५ कला शुक्ल पक्ष की १ कल है। इनमें से आत्मा की १६ कलाएँ हैं।
आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। - (८-२४ )
भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।
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