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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

nai kalam

​​विश्ववाणी हिंदी संस्थान 
नई कलम:













गीतकार अविनाश ब्योहार
आत्मज: स्व. लक्ष्मण ब्योहार।
शिक्षा: बी.एससी., स्टेनोग्राफर अंग्रेजी।
संप्रति: व्यक्तिगत सहायक, महाधिवक्ता कार्यालय, उच्च न्यायालय म. प्र.।
प्रकाशित: आधी पीसे कुत्ते खाएँ व्यंग्य काव्य संग्रह।
संपर्क: रॉयल एस्टेट कोलोनी, कटंगी मार्ग, माढ़ोताल, जबलपुर ४८२००१।
चलभाष: ९८२६७९५३७२।
ईमेल: Avinash Beohar <a1499.9826795372@gmail.com>
*
गीत-नवगी
१. सन्नाटों की झीलें
.
हैं सन्नाटों
की झीलें
दिन हुए पुरइन।
फुनगी संग 
धूप की 
होती किलोल।
पिक बंधु
हवाओं में
गंध रहे घोल।।
ताल-तलैया
सूने-सूने, हैं  
हंसों के बिन।
सफर हुआ खत्म
नदिया का
मुहाना है।
फ़िरदौस में
गंध की 
तितली उड़ाना है।।
नदी-नाव 
संयोग पा 
पुलकित पल-छिन।
* २. हुआ तो क्या?
.
श्रम का ही
यश-गान करेगा
घर, खपरैल
हुआ तो क्या?
.
ऊँचे बँगलों
के कंगूरे,
बेईमानी की
बातें करते।
महानगर के
बाशिंदे बन,
विश्वासों से
घातें करते।
कोई तवज्जो
नहीं मिली,
दिल में अरमान
हुआ तो क्या।
.
हो गईं
मुँहजोर
शहर में
चलती हुई हवाएँ।
हैं भोंडेपन के
दबाव चुप
सहती
विवश कलाएँ।
हमने उनकी
करी भलाई
उनको बैर
हुआ तो क्या।
*

३. दूर खड़े 
.
दूर खड़े 
सुख-दुख, 
सब कुछ
मोबाइल है। 
कब-किस पर
क्या गाज गिरी है?
बहरों से आवाज
घिरी है। 
नेकी की 
भू बाँझ
बदी फर्टाइल है। 
नहीं झोपड़े
घास-फूस के। 
आमों जैसा
फेंक चूस के। 
बिना वजन
कब खिसके
कोई फाइल है!
* ४.
कैसे भरूँ  उड़ान?
. पंख दिये हैं
कुदरत ने पर
कैसे भरूँ उड़ान?
अब खतरे में
परवाजें हैं। 
गूँगी-गूँगी 
आवाजें हैं। 
इतने पर भी
आसमान सोया
है चादर तान। 
चुप्पी ढोते
हुए ठहाके। 
खेत कर रहे
बेबस फाँके। 
कष्टों का है
खड़ा हिमालय,
कण-कण में 
भगवान। 
* ५.
सौंधी-सौंधी
.
सौंधी-सौंधी
गंध उठ रही
माह जुलाई है।
.
आ गया
मौसम काली
घटाओं का।
बाग में
बिखरी मोहक
छटाओं का।
.
शिखरों के
मुखड़ पे चिपकी
हुई लुनाई है।
.
डैने फैलाए
मेघ उड़
रहे हैं।
फुहार लगे
गूंगे का
गुड़ रहे हैं।
.
वर्षा के पानी
की सरिता करे
पहुनाई है।
*
६. चुभती बूँदें
.
बुरे हुए दिन
चुभती बूँदें
शूल सी।

दामिनी सा
दुःख तड़का
जेहन में।
ख्वाबों की
जागीर है
रेहन में।

अल्पवृष्टि लगती
मौसम की
भूल सी।

कैसा मौसम
आया कि
मेह न बरसे।
नदी, ताल, विटप
सहमें हैं
डर से।

खेतिहर की
सूरत है
मुरझाये फूल सी।
*

७. वर्षा गीत   
.
घोर घटा
छाई मौसम
है मक़्बूल। 
अंकुरित
हो आए 
फूल-पत्ते। 
लबालब
भरे हुए 
हैं खत्ते। 

शिलापट्ट जेठ
की तपन
गये भूल। 
बूँदा-बाँदी
मतलब मेघों
का प्यार। 
चतुर्दिक हो
रही आनंद
की बौछार। 

चिकने पत्ते
बूटे निखर
गये फूल। 
*
८. तालों की ख़ामोशी
खयालों ने पहन लिये 
टेसुई लिबास। 
नींदों में स्वप्न जैसे 
डाली में फल। 
तालों की खामोशी 
बुन रही हलचल। 
गलियों में तैर रही 
चंदनी वातास। 
होंठों पर आ गई 
मुस्कान चुलबुली।
जलती दुपहरी से 
छाँव है भली। 
भटकती उम्मीदों को 
मिल गया आवास।
*
९.  मौसम बाँह पसारे
मौसम बाँह पसारे,
जब चलती 
है पछुआ। 
कलकल बहती 
नदिया में,
है संगीत भरा। 
नित श्रध्दा का 
दीप जलाए 
तुलसी का बिरवा।
जटा-जूटधारी 
बरगद को 
है बैराग हुआ। 
सरसर चलीं 
हवाएँ, डोले 
पीपल के पत्ते। 
घाट नदी का 
जिस पर 'रतिया'
फींच रही लत्ते। 
हुआ पहरुआ 
खलिहानों का 
चौकस है महुआ। 
*
१०.  शिरीष के फूल
*
खिलते हैं 
विपरीत समय में 
हम शिरीष के फूल। 
बाट जोहते 
द्वार खिड़कियाँ 
नयना पथराए। 
बीते मास 
खुशी के पल छिन 
द्वार नहीं आए। 
शिशुओं की 
किलकारी सहमी 
समय हुआ प्रतिकूल। 
आँगन, बाड़ी 
सिसक रहे हैं
बदल गया परिवेश। 
बड़े-बुज़ुर्गों को 
अब छोटे 
देते हैं आदेश। 
कली उदास,
सुगंधें गायब,
हँसते शूल बबूल। 
*
११.  जाल रूप का
.
नवयुवती फेंक रही
जाल रूप का!
कमनीय है
मादक है
उनका इशारा। 
नदिया का
जल लगे
जैसे शरारा। 
सुबह हुई लहराया
पाल धूप का। 
मौसम रंगीन है
इन्द्रधनुषी शाम। 
थरथराये लब लेते
उनका नाम। 
पनिहारिन चूम रही
भाल कूप का। 
*
१२. मजनू की लैला 
अंधियारा इस जग
में फैला है। 
आग उगलती
जल की धारा। 
काल कोठरी
में उजियारा। 
लोंगों का नेचर
हुआ बनैला है। 
धोखाधड़ी
बन गई फितरत। 
घिरी बबूलों 
से है इशरत। 
फ्लर्ट करे मजनू
की लैला है। 
*
१३. बंद हुए नाके 
महानगर में होते हैं
रोज धमाके। 
बदहवास सी
भीड़ भाड़ है!
दहशत का
पसरा पहाड़ है। 
अंधी खोहों में
किरणें न झाॅके। 
पुलिस कर रही
है पेट्रोलिंग। 
बिगड़ी बाजारों
की रोलिंग। 
एहतियात के नाते
बंद हुये नाके। 
*
१४. सुबह हुई
.
सुबह हुई
सूरज ने आँखें खोलीं।
.
पल हैं रंगीं
और शहतूती
सी बातें।
शबनम से
दिलकश मुलाकातें।
भरने उड़ान
पंछी ने
आँखें खोलीं।
.
काँटों ने
फूलों का
दिल बहुत दुखाया।
खिले-खिले बागों पर
पतझर का साया।
सच हो बेदाग़
सलाखें बोलीं।
***


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