कृति चर्चा:
गीति काव्य और मानव सभ्यता का साथ चोली-दामन का सा है। आदिकाल से कलकल-कलरव, गर्जन-तर्जन, रुदन-हास के साथ पलता-बढ़ता मानव अन्य प्राणियों की तुलना में 'नाद' को अधिक सघनता से ग्रहण कर अभिव्यक्त कर सका। अंतर्नाद तथ बहिर्नाद का सम्यक संतुलन विविध ध्वनियों को सुन, ग्रहण, स्मरण तथा अभिव्यक्त कर क्रमश: एकालाप व वार्तालाप का विकास कर वाचिक परंपरा का वाहक बना। श्रुति-स्मृति की परंपरा विद्वद्वर्ग में विकसित हुई तो लोक में लोकगीत (लोरी, जस, देवी गीत, मिलन गीत, विरह गीत, आल्हा, बम्बुलिया, राई, बटोही, कजरी, फाग, कबीर आदि) और लोककथाओं का प्रचलन हुआ। विविध शैलियों और शिल्पों का समन्वय कर गीति काव्य 'स्व' को 'सर्व' से सम्बद्ध करने का सेतु बना। समय तथा स्थितियों से साक्षात् करते स्वर, ताल से संयुक्त होकर गति-यति-लय का सहयोग पाकर सत्-शिव-सुंदर के वाहक बने। सतत परिवर्तित होते देश-काल-परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गीत की वाचिक परंपरा लोकगीत, जनगीत, आव्हान गीत, विरुदावली, भक्ति गीत, प्रणय गीत आदि पड़ावों से होते हुए जन-जीवन के खुरदुरे यथार्थ को संवेदनशीलता से स्पर्श करते हुए 'नवगीत' की संज्ञा से अभिषिक्त कर दी गई। विडंबना यह कि दीर्घकालिक पराधीनता तथा सद्य प्राप्त स्वाधीनता के संधि काल में पारंपरिक परंपराओं पर नवीन मूल्यों की चाहत हावी होती गई। राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं ने साहित्य में भी गुटबंदी को जन्म दिया। फलत:, प्रगतिवाद के नाम पर सामाजिक वैषम्य-विडंबना, टकराव-बिखराव, दर्द-पीड़ा की अभिव्यक्ति को ही प्रगतिवाद कह दिया गया। उत्सव, आल्हाद, सुख, हर्ष, मिलन, सहयोग, साहचर्य, सद्भाव आदि भावनाओं को परित्यक्त मानने के दुराग्रह को लोक ने अस्वीकार कर दिया। लोक-जीवन के प्राणतत्व उत्सवधर्मिता का वास्तविक आकलन न कर प्रगतिवादी कविता के प्रति लोक की उदासीनता को गीत का कारण मान लिया गया। विधि का विधान यह कि 'गीत' के मरण की घोषणा करनेवाले मर गए पर गीत छंद की विरासत के साथ न केवल जिंदा रहा आया, अपितु उसकी वंश परंपरा लोक से जीवन-सत्व पाकर पहले की तुलना में दिन-ब-दिन अधिकाधिक परिपुष्ट होती रही।
नवगीत ने इन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी जड़ों को मजबूत करने के साथ-साथ नव शाखों और नव पल्लवों के रूप में जीवन के सभी अंगों को अंगीकार किया। अपने उद्भव काल में निर्धारित की गई परिभाषा और मानकों को मार्गदर्शक मानते हुए भी नवगीत ने उन्हें पिंजरे की तरह नहीं माना और मुक्ताकाश में उड़ान भरते हुए मानव-मन और जीवन की विविध अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर खुद को सार्थक सिद्ध किया। नवगीत को नव भाव-मुद्रा के साथ बिना कोई दावा किए पूरी शिद्दत के साथ अंगीकार करनेवाली कलमों में लखनऊ की सरजमीं पर रचनारत संध्या सिंह का भी शुमार है। संध्या जी की कृति 'मौन की झंकार' में वरिष्ठ नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी ने ठीक ही लिखा है कि संध्या जी उन कुछ में हैं जो शब्द की लय और अर्थ की लय को इस तरह अपने से जोड़े हुए हैं कि गद्य रचते हुए भी कथ्य की आधुनिकता, समकालीनता के बावजूद छांदस बनेनी रहे। नवगीत की पाठशाला के मंच पर विदुषी शारद सुता पूर्णिमा बर्मन के सत्संग में नवगीत का ककहरा पढ़कर अभिव्यक्ति विश्वम् का प्रतिष्ठित पुरस्कार पाकर अपने लेखन की प्रामाणिकता सिद्ध करनेवाली संध्या जी आत्मलीन रचनाकार तो हैं किन्तु आत्मीमुग्ध रचनाकार नहीं हैं। वे अग-जग की खोज-खबर रखकर भी 'पर' की अनुभूति को 'स्व' की तरह अनुभव कर अभिव्यक्त कर पाती हैं-
'सहेजो जरा
प्रेम की मछलियों को
कि तट पर खड़ा है अभी तक मछेरा'
निजता और सार्वजनिकता को 'दो में एक' की तरह देखती संध्या जी जानती हैं कि 'घर-घर में मिट्टी के चूल्हें हैं' किंतु वे ही घर को घर बनाये रखते हैं -
'भीतर पानी में कंपन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अंबर तक हो आई
मन की अपनी मुक्त उड़ानें
तन के सख्त नियम'
सामयिक समस्याओं और पारिस्थितिक विडंबनाओं को देखती-स्वीकारती, उनसे जूझने का दर्द झेलने के बाद भी जिजीविषा अपने सपने नहीं छोड़ती-
'जीवन का अब गद्य जरा सा
गीतों में ढलने दो ...
.... कंटक पथ और घना अँधेरा
मंथन में बस मिला हलाहल
पाँव छिले हैं कल देखेंगे
बंजर जैसा ठोस धरातल
अभी मुलायम नरम गुदगुदे
सपने पर चलने दो।'
इन नवगीतों में किताबी आलंकारिक तथा क्लिष्ट प्राध्यापकीय भाषा से बचते हुए परिमार्जित रूप में अपनी बात कही गई है जो आम आदमी के मन तक पहुँचती है-
'छाया छत
विश्राम ठिकाने
बने रहे पथ में अनजाने
झोंके बादल
और फुहारें
आए केवल रस्म निभाने
बीज लिए मुट्ठी में फिरते बंजर-बंजर'
अभिव्यक्ति का सबल वाहक बनकर गीत मानव मात्र ही नहीं सकल सृष्टि (प्रकृति, पर्यावरण, जीवन मूल्य आदि) के कुशल-क्षेम की कामना करता हुआ रूढ़ियों-आडंबरों से संघर्ष कर सामाजिक सरोकारों से हाथ मिलाते हुए नर-नारी, शासक-शासित के मध्य समन्वय और समझ की नव संस्कृति को सबल बना रहा है। 'मौन की झनकार' के नवगीतों में अन्तर्निहित पंच तत्वों सटीकता, सरलता, सरसता, संक्षिप्तता तथा मौलिकता के शब्द सुमनों को संवेदना के सूत्र (धागे) में पिरोकर प्रस्तुत किया गया है। दिन भर जीवन संघर्षों से जूझने के बाद गीत थकता-चुकता नहीं, प्रकृति और समाज के सानिन्ध्य में अंतर्मन की अनुभूतियों को सम्यक बिंबों, प्रतीकों, उपमानों, रूपकों आदि के माध्यम से अभिव्यक्त कर आनुप्रसिक सौंदर्य की छटा बिखेरता है- 'रस्ता रोक रही चट्टानें / पत्थर से सब बंद मुहाने / पर्वत की पूरी साजिश है / उठती लहर दबाने की' और यह भी कि 'देह सहेजी बड़े जतन से / लेकिन रही निरंतर ढलती / बहुत कसी मुट्ठी में लेकिन / उम्र रेत सी रही निकलती' पर गीत यह भी जानता है कि 'मगर नदी ने जिद ठानी है / सागर तक बह जाने की।', 'मछली को फरमान दे दिया / आसमान में उड़ना सीखे', सर्प सरीखे दिन जहरीले /नागिन जैसी रात विषैली', आज घटा ने पानी फेरा / मेहनत के अरमानों पर' आदि ही अंतिम सत्य नहीं है। संध्या जी का नवगीतकार वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नवगीतकारों की तुलना में भिन्न और बेहतर इसलिए है कि जीवन को समग्रता में देखकर उसका आकलन करता है। 'करो आज जगमग दसों ही दिशाएँ / दिए के तले भी न छूटे अँधेरा', 'तुम भले पतवार तोड़ो / नाव को मँझधार मोड़ो / हम भँवर / से पार होकर / ढूँढ लेंगे खुद किनारे', लहरों की पाजेब पहनकर / जल के ऊपर थिरक रही है / ये उत्सव की शाम।' जैसी गीति रचनाओं में नवगीत को घिसे-पिटे कलेवर से निकालकर वैसी ही उत्सवधर्मी भाव मुद्रा दी गयी है जैसी 'काल है संक्रांति का' के कुछ नवगीतों में है किंतु अपनी मौलिकता को बनाये रखकर। नवगीत की पिछली अर्ध सदी में नकारात्मता के स्वर प्रधान रहे हैं किन्तु संध्या जी के नवगीत नव रचनाधर्मियों को दिशा दिखाते हैं कि नवगीत में हर्ष, उमंग, उल्लास, आल्हाद वर्जित नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति का तरीका पारंपरिक तरीके से यत्किंचित भिन्न अवश्य है।
नवगीतों की भाषा को प्रवाहमयी बनाये रखने के लिए कवयित्री ने अपने उपकरण खुद ईजाद किये हैं। ''शब्दावृत्ति'' एक ऐसा ही उपकरण है। इन गीतों में शब्दों के दुहराव से उत्पन्न आनुप्रसिकता ने सरसता का संचार करने के साथ-साथ कथ्य पर बल भी दिया है। जनम-जनम, ऊपर-ऊपर, भरी-भरी, ऊबी-ऊबी, जहाँ-जहाँ, वहाँ-वहाँ, भीतर-भीतर, नस-नस, बूँद-बूँद, कब-कब, बुला-बुला, मना-मना, कदम-कदम, परत-परत, खंड-खंड, रौंद-रौंद, रेंग-रेंग, टिक-टिक, सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों, बहक-बहक, छम-छम, भीग-भीग, घूँट-घूँट, रह-रह, तिल-तिल, बदल-बदल, सहमी-सहमी, भुला-भुला, कंकर-कंकर, किरन-किरन, सोना-सोना, सिक्का-सिक्का, लहर-लहर, हटा-हटा, पात-पात, टहनी-टहनी, बीत-बीत, गली-गली, पंखुरी-पंखुरी, अक्षर-अक्षर, उपवन-उपवन, फूल-फूल, उजड़ा-उजड़ा, सहमे-सहमे, सँभल-सँभल, फिसल-फिसल, थल-थल, पिघल-पिघल, फूल-फूल, घूम-घूम, गलियों-गलियों, वहीं-वहीं, डब-डब, छिप-छिप, धीमे-धीमे, पत्ता-पत्ता आदि शब्द-युग्मों के माध्यम से भाव अथवा क्रिया का सघनीकरण अभिव्यक्त किया गया है।
नवगीत भली-भाँति जानता है विसंगतियों से दो-चार होता हुआ आम आदमी ही नहीं, गरीब और कमजोर मनुष्य भी उत्सवधर्मी रसात्मकता के सहारे अभावजयी हो जाता है-
खिड़की-खिड़की हवा बाँटती
चिट्ठी फूलों की
पंखुड़ियों का बिछा गलीचा
खुशबू का पंडाल
पवन बसंती मादक धुन पर
गढ़े तिलस्मी जाल
इस उत्सव ने सहला दी है
चुभन बबूलों की
नचिकेता जिस प्रयोगधर्मी नव्यता के दुराग्रह से दूर रहने की सलाह देते हैं, संध्या जी के नवगीतों में उसकी झलक दूर-दूर तक नहीं है। मौन की झंकार की कवयित्री गीत-नवगीत के विभाजन को गीत के लिए हानिप्रद मानकर कथ्य को 'स्व' से 'सर्व' तक पहुँचाने की प्रक्रिया के रूप में छंद को अंगीकार करती है और शब्दों का चयन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए करते समय हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी या बोली के आधार पर नहीं करती। परिणामत: गीत-पंक्तियाँ वह कह पाती हैं जिसे कहने के लिए उन्हें रचा गया है।
समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठाए बिना समाधान नहीं मिल सकता, इसलिए किसी को कटघरे में खड़े किए बिना, आरोप-प्रत्यारोप किए बिना सत्य की अदालत में संध्या जी पूछती हैं-
'ऊबे दिन बासी रातों से
कैसे नयी कहानी लिख दें....
... उधर झोल है संबंधों में
इधर अहं के तार कसे हैं
यहाँ सिर्फ उपदेश नसीहत
सपने तो उस पार बसे हैं
आन-बान की संगीनों में
कैसे साफ़ बयानी लिख दें।
सम्पन्नता को सुखदाई मानकर किसी भी कीमत पर पाने के लिए लडती-मरती जीवन शैली से असहमत संध्या जी कहती हैं-
'यश वैभव के हिम पर्वत पर
रिश्तों की गर्माहट खोती'
और
'तमगे और तालियाँ अकसर
तन्हाई का जंगल बोतीं'
प्यार बंधन बनकर क्यों आता है-
प्यार तुम्हारा इसी शर्त पर
हुनर हदों से बाहर दीखे
मछली को फरमान दे दिया
आसमान से उड़ना सीखे'
और इसका दुष्परिणाम
'दिए हारकर जो सपनों को
त्यागपत्र मंजूर हो गए'
अंधियारों के हाथों पराजित होना सपनों को मंजूर नहीं है। यह जिजीविषा का नया स्वर इस सदी के नवगीतकारों ने नवगीत को दिया है और इसी के बल पर नवगीत भावी को सपने देते हुए कहेगा-
जब सपनों पर लगे फफूंदी
जीवन में चौमासा आये
जब पीड़ा के अंकुर पनपें
उत्सव पर सीलन छा जाए
तब सूर्योदय के पहले ही
तन के श्याम पट्ट पर लिख दूँ
उजियारे के अक्षर'
'मौन की झंकार' से जिस यात्रा का आगाज़ हुआ है, उसका अंजाम अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा होगा, यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है और इसी भरोसे के सहारे संध्या जी के आगामी नवगीत संकलन की प्रतीक्षा की जा सकती है।
[चर्चाकार संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल: salilsanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४]
***
"मौन की झंकार" गीत में नवगीत का संस्कार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: मौन की झंकार, गीत संग्रह, संध्या सिंह, प्रथम संस्करण २०१७, आई. एस. बी. एन. ९७८-९३-८४७७३-४१-०, पृष्ठ ८८, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य १५०/-, अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद ५, चलभाष ०९९१११७९३६८, ०९८११२७९३६८, रचनाकार संपर्क: डी १२२५ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष: ७३८८१७८४५९, ७३७६०६१०५६। ]
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गीति काव्य और मानव सभ्यता का साथ चोली-दामन का सा है। आदिकाल से कलकल-कलरव, गर्जन-तर्जन, रुदन-हास के साथ पलता-बढ़ता मानव अन्य प्राणियों की तुलना में 'नाद' को अधिक सघनता से ग्रहण कर अभिव्यक्त कर सका। अंतर्नाद तथ बहिर्नाद का सम्यक संतुलन विविध ध्वनियों को सुन, ग्रहण, स्मरण तथा अभिव्यक्त कर क्रमश: एकालाप व वार्तालाप का विकास कर वाचिक परंपरा का वाहक बना। श्रुति-स्मृति की परंपरा विद्वद्वर्ग में विकसित हुई तो लोक में लोकगीत (लोरी, जस, देवी गीत, मिलन गीत, विरह गीत, आल्हा, बम्बुलिया, राई, बटोही, कजरी, फाग, कबीर आदि) और लोककथाओं का प्रचलन हुआ। विविध शैलियों और शिल्पों का समन्वय कर गीति काव्य 'स्व' को 'सर्व' से सम्बद्ध करने का सेतु बना। समय तथा स्थितियों से साक्षात् करते स्वर, ताल से संयुक्त होकर गति-यति-लय का सहयोग पाकर सत्-शिव-सुंदर के वाहक बने। सतत परिवर्तित होते देश-काल-परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गीत की वाचिक परंपरा लोकगीत, जनगीत, आव्हान गीत, विरुदावली, भक्ति गीत, प्रणय गीत आदि पड़ावों से होते हुए जन-जीवन के खुरदुरे यथार्थ को संवेदनशीलता से स्पर्श करते हुए 'नवगीत' की संज्ञा से अभिषिक्त कर दी गई। विडंबना यह कि दीर्घकालिक पराधीनता तथा सद्य प्राप्त स्वाधीनता के संधि काल में पारंपरिक परंपराओं पर नवीन मूल्यों की चाहत हावी होती गई। राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं ने साहित्य में भी गुटबंदी को जन्म दिया। फलत:, प्रगतिवाद के नाम पर सामाजिक वैषम्य-विडंबना, टकराव-बिखराव, दर्द-पीड़ा की अभिव्यक्ति को ही प्रगतिवाद कह दिया गया। उत्सव, आल्हाद, सुख, हर्ष, मिलन, सहयोग, साहचर्य, सद्भाव आदि भावनाओं को परित्यक्त मानने के दुराग्रह को लोक ने अस्वीकार कर दिया। लोक-जीवन के प्राणतत्व उत्सवधर्मिता का वास्तविक आकलन न कर प्रगतिवादी कविता के प्रति लोक की उदासीनता को गीत का कारण मान लिया गया। विधि का विधान यह कि 'गीत' के मरण की घोषणा करनेवाले मर गए पर गीत छंद की विरासत के साथ न केवल जिंदा रहा आया, अपितु उसकी वंश परंपरा लोक से जीवन-सत्व पाकर पहले की तुलना में दिन-ब-दिन अधिकाधिक परिपुष्ट होती रही।
नवगीत ने इन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी जड़ों को मजबूत करने के साथ-साथ नव शाखों और नव पल्लवों के रूप में जीवन के सभी अंगों को अंगीकार किया। अपने उद्भव काल में निर्धारित की गई परिभाषा और मानकों को मार्गदर्शक मानते हुए भी नवगीत ने उन्हें पिंजरे की तरह नहीं माना और मुक्ताकाश में उड़ान भरते हुए मानव-मन और जीवन की विविध अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर खुद को सार्थक सिद्ध किया। नवगीत को नव भाव-मुद्रा के साथ बिना कोई दावा किए पूरी शिद्दत के साथ अंगीकार करनेवाली कलमों में लखनऊ की सरजमीं पर रचनारत संध्या सिंह का भी शुमार है। संध्या जी की कृति 'मौन की झंकार' में वरिष्ठ नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी ने ठीक ही लिखा है कि संध्या जी उन कुछ में हैं जो शब्द की लय और अर्थ की लय को इस तरह अपने से जोड़े हुए हैं कि गद्य रचते हुए भी कथ्य की आधुनिकता, समकालीनता के बावजूद छांदस बनेनी रहे। नवगीत की पाठशाला के मंच पर विदुषी शारद सुता पूर्णिमा बर्मन के सत्संग में नवगीत का ककहरा पढ़कर अभिव्यक्ति विश्वम् का प्रतिष्ठित पुरस्कार पाकर अपने लेखन की प्रामाणिकता सिद्ध करनेवाली संध्या जी आत्मलीन रचनाकार तो हैं किन्तु आत्मीमुग्ध रचनाकार नहीं हैं। वे अग-जग की खोज-खबर रखकर भी 'पर' की अनुभूति को 'स्व' की तरह अनुभव कर अभिव्यक्त कर पाती हैं-
'सहेजो जरा
प्रेम की मछलियों को
कि तट पर खड़ा है अभी तक मछेरा'
निजता और सार्वजनिकता को 'दो में एक' की तरह देखती संध्या जी जानती हैं कि 'घर-घर में मिट्टी के चूल्हें हैं' किंतु वे ही घर को घर बनाये रखते हैं -
'भीतर पानी में कंपन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अंबर तक हो आई
मन की अपनी मुक्त उड़ानें
तन के सख्त नियम'
सामयिक समस्याओं और पारिस्थितिक विडंबनाओं को देखती-स्वीकारती, उनसे जूझने का दर्द झेलने के बाद भी जिजीविषा अपने सपने नहीं छोड़ती-
'जीवन का अब गद्य जरा सा
गीतों में ढलने दो ...
.... कंटक पथ और घना अँधेरा
मंथन में बस मिला हलाहल
पाँव छिले हैं कल देखेंगे
बंजर जैसा ठोस धरातल
अभी मुलायम नरम गुदगुदे
सपने पर चलने दो।'
इन नवगीतों में किताबी आलंकारिक तथा क्लिष्ट प्राध्यापकीय भाषा से बचते हुए परिमार्जित रूप में अपनी बात कही गई है जो आम आदमी के मन तक पहुँचती है-
'छाया छत
विश्राम ठिकाने
बने रहे पथ में अनजाने
झोंके बादल
और फुहारें
आए केवल रस्म निभाने
बीज लिए मुट्ठी में फिरते बंजर-बंजर'
अभिव्यक्ति का सबल वाहक बनकर गीत मानव मात्र ही नहीं सकल सृष्टि (प्रकृति, पर्यावरण, जीवन मूल्य आदि) के कुशल-क्षेम की कामना करता हुआ रूढ़ियों-आडंबरों से संघर्ष कर सामाजिक सरोकारों से हाथ मिलाते हुए नर-नारी, शासक-शासित के मध्य समन्वय और समझ की नव संस्कृति को सबल बना रहा है। 'मौन की झनकार' के नवगीतों में अन्तर्निहित पंच तत्वों सटीकता, सरलता, सरसता, संक्षिप्तता तथा मौलिकता के शब्द सुमनों को संवेदना के सूत्र (धागे) में पिरोकर प्रस्तुत किया गया है। दिन भर जीवन संघर्षों से जूझने के बाद गीत थकता-चुकता नहीं, प्रकृति और समाज के सानिन्ध्य में अंतर्मन की अनुभूतियों को सम्यक बिंबों, प्रतीकों, उपमानों, रूपकों आदि के माध्यम से अभिव्यक्त कर आनुप्रसिक सौंदर्य की छटा बिखेरता है- 'रस्ता रोक रही चट्टानें / पत्थर से सब बंद मुहाने / पर्वत की पूरी साजिश है / उठती लहर दबाने की' और यह भी कि 'देह सहेजी बड़े जतन से / लेकिन रही निरंतर ढलती / बहुत कसी मुट्ठी में लेकिन / उम्र रेत सी रही निकलती' पर गीत यह भी जानता है कि 'मगर नदी ने जिद ठानी है / सागर तक बह जाने की।', 'मछली को फरमान दे दिया / आसमान में उड़ना सीखे', सर्प सरीखे दिन जहरीले /नागिन जैसी रात विषैली', आज घटा ने पानी फेरा / मेहनत के अरमानों पर' आदि ही अंतिम सत्य नहीं है। संध्या जी का नवगीतकार वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नवगीतकारों की तुलना में भिन्न और बेहतर इसलिए है कि जीवन को समग्रता में देखकर उसका आकलन करता है। 'करो आज जगमग दसों ही दिशाएँ / दिए के तले भी न छूटे अँधेरा', 'तुम भले पतवार तोड़ो / नाव को मँझधार मोड़ो / हम भँवर / से पार होकर / ढूँढ लेंगे खुद किनारे', लहरों की पाजेब पहनकर / जल के ऊपर थिरक रही है / ये उत्सव की शाम।' जैसी गीति रचनाओं में नवगीत को घिसे-पिटे कलेवर से निकालकर वैसी ही उत्सवधर्मी भाव मुद्रा दी गयी है जैसी 'काल है संक्रांति का' के कुछ नवगीतों में है किंतु अपनी मौलिकता को बनाये रखकर। नवगीत की पिछली अर्ध सदी में नकारात्मता के स्वर प्रधान रहे हैं किन्तु संध्या जी के नवगीत नव रचनाधर्मियों को दिशा दिखाते हैं कि नवगीत में हर्ष, उमंग, उल्लास, आल्हाद वर्जित नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति का तरीका पारंपरिक तरीके से यत्किंचित भिन्न अवश्य है।
नवगीतों की भाषा को प्रवाहमयी बनाये रखने के लिए कवयित्री ने अपने उपकरण खुद ईजाद किये हैं। ''शब्दावृत्ति'' एक ऐसा ही उपकरण है। इन गीतों में शब्दों के दुहराव से उत्पन्न आनुप्रसिकता ने सरसता का संचार करने के साथ-साथ कथ्य पर बल भी दिया है। जनम-जनम, ऊपर-ऊपर, भरी-भरी, ऊबी-ऊबी, जहाँ-जहाँ, वहाँ-वहाँ, भीतर-भीतर, नस-नस, बूँद-बूँद, कब-कब, बुला-बुला, मना-मना, कदम-कदम, परत-परत, खंड-खंड, रौंद-रौंद, रेंग-रेंग, टिक-टिक, सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों, बहक-बहक, छम-छम, भीग-भीग, घूँट-घूँट, रह-रह, तिल-तिल, बदल-बदल, सहमी-सहमी, भुला-भुला, कंकर-कंकर, किरन-किरन, सोना-सोना, सिक्का-सिक्का, लहर-लहर, हटा-हटा, पात-पात, टहनी-टहनी, बीत-बीत, गली-गली, पंखुरी-पंखुरी, अक्षर-अक्षर, उपवन-उपवन, फूल-फूल, उजड़ा-उजड़ा, सहमे-सहमे, सँभल-सँभल, फिसल-फिसल, थल-थल, पिघल-पिघल, फूल-फूल, घूम-घूम, गलियों-गलियों, वहीं-वहीं, डब-डब, छिप-छिप, धीमे-धीमे, पत्ता-पत्ता आदि शब्द-युग्मों के माध्यम से भाव अथवा क्रिया का सघनीकरण अभिव्यक्त किया गया है।
नवगीत भली-भाँति जानता है विसंगतियों से दो-चार होता हुआ आम आदमी ही नहीं, गरीब और कमजोर मनुष्य भी उत्सवधर्मी रसात्मकता के सहारे अभावजयी हो जाता है-
खिड़की-खिड़की हवा बाँटती
चिट्ठी फूलों की
पंखुड़ियों का बिछा गलीचा
खुशबू का पंडाल
पवन बसंती मादक धुन पर
गढ़े तिलस्मी जाल
इस उत्सव ने सहला दी है
चुभन बबूलों की
नचिकेता जिस प्रयोगधर्मी नव्यता के दुराग्रह से दूर रहने की सलाह देते हैं, संध्या जी के नवगीतों में उसकी झलक दूर-दूर तक नहीं है। मौन की झंकार की कवयित्री गीत-नवगीत के विभाजन को गीत के लिए हानिप्रद मानकर कथ्य को 'स्व' से 'सर्व' तक पहुँचाने की प्रक्रिया के रूप में छंद को अंगीकार करती है और शब्दों का चयन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए करते समय हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी या बोली के आधार पर नहीं करती। परिणामत: गीत-पंक्तियाँ वह कह पाती हैं जिसे कहने के लिए उन्हें रचा गया है।
समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठाए बिना समाधान नहीं मिल सकता, इसलिए किसी को कटघरे में खड़े किए बिना, आरोप-प्रत्यारोप किए बिना सत्य की अदालत में संध्या जी पूछती हैं-
'ऊबे दिन बासी रातों से
कैसे नयी कहानी लिख दें....
... उधर झोल है संबंधों में
इधर अहं के तार कसे हैं
यहाँ सिर्फ उपदेश नसीहत
सपने तो उस पार बसे हैं
आन-बान की संगीनों में
कैसे साफ़ बयानी लिख दें।
सम्पन्नता को सुखदाई मानकर किसी भी कीमत पर पाने के लिए लडती-मरती जीवन शैली से असहमत संध्या जी कहती हैं-
'यश वैभव के हिम पर्वत पर
रिश्तों की गर्माहट खोती'
और
'तमगे और तालियाँ अकसर
तन्हाई का जंगल बोतीं'
प्यार बंधन बनकर क्यों आता है-
प्यार तुम्हारा इसी शर्त पर
हुनर हदों से बाहर दीखे
मछली को फरमान दे दिया
आसमान से उड़ना सीखे'
और इसका दुष्परिणाम
'दिए हारकर जो सपनों को
त्यागपत्र मंजूर हो गए'
अंधियारों के हाथों पराजित होना सपनों को मंजूर नहीं है। यह जिजीविषा का नया स्वर इस सदी के नवगीतकारों ने नवगीत को दिया है और इसी के बल पर नवगीत भावी को सपने देते हुए कहेगा-
जब सपनों पर लगे फफूंदी
जीवन में चौमासा आये
जब पीड़ा के अंकुर पनपें
उत्सव पर सीलन छा जाए
तब सूर्योदय के पहले ही
तन के श्याम पट्ट पर लिख दूँ
उजियारे के अक्षर'
'मौन की झंकार' से जिस यात्रा का आगाज़ हुआ है, उसका अंजाम अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा होगा, यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है और इसी भरोसे के सहारे संध्या जी के आगामी नवगीत संकलन की प्रतीक्षा की जा सकती है।
[चर्चाकार संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल: salilsanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४]
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