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शनिवार, 29 सितंबर 2018

geet- rishte

गीत:
रिश्ते 
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं..
*
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते।
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते।।
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं।
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं।।
कभी दूर से आँख तरेरे,
निकट किसी की ऑंखें नम हैं।
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
*
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा।
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा।।
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं।
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं।।
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं।
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
*
हम सब एक दूजे के पूरक,
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी।
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी।।
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं।
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं।।
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के तम-गम हैं।
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
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salil.sanjiv@gmail.com
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर
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